Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास मुनि नथमल Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध सम्पादक छगनलाल शास्त्री प्रकाशक सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट ८१, सदर्न एवेन्यू, कलकत्ता २६ जैन दर्शन ग्रन्थमाला : तेरहवां पुष्प मुद्रक रेफिल आर्ट प्रेस ३१, वड़तल्ला स्ट्रीट कलकत्ता-७ प्रबन्धक आदर्श साहित्य संघ चूरू ( राजस्थान ) प्रथम संस्करण १००० : मूल्य ३ रुपये ३७ न० पं० द्वितीय संस्करण ११०० मूल्य ३ रुपये ३७ न० पै० • -- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना जेन परम्परा उतनी ही प्राचीन है, जितनी आत्मा की परम्परा और आत्मा का दर्शन | उसके इतिवृत्त के आकलन का अर्थ है अध्यात्म - उत्कर्ष के बहुमुखी विकास का आकलन । महान् द्रष्टा, जनवन्द्य आचार्य श्री तुलसी के अन्तेवासी मुनि श्री नथमलजी द्वारा रचे 'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व' से गृहीत 'जैन परम्परा का इतिहास' नामक यह पुस्तक जैन संस्कृति, विचार-दर्शन और आचार - परम्परा के प्राग्- ऐतिहासिक एव ऐतिहासिक काल के विविध पहलुओ पर पर्याप्त प्रकाश डालती है । प्रागैतिहासिककालीन कुलकर-व्यवस्था, धर्म-तीर्थ- प्रवर्तन, सामाजिक जीवन का विकास, ऐतिहासिककालीन व्यवस्थाए, सघीय परम्पराए, जैन साहित्य का सर्वतोमुखी विकास, जैन धर्म का समाज पर प्रभाव, सव- व्यवस्था और चर्या प्रभृति अनेक विषयो का मुनि श्री ने इसमे सूक्ष्म अन्वेषण पूर्वक विवेचन किया है । श्री तेरापन्थ द्विशताब्दी समारोह के अभिनन्दन में इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट, कलकत्ता ने स्वीकार किया यह अत्यन्त हर्प का विषय है । तेरापथ का प्रसार, तत्सम्वन्धी साहित्य का प्रकाशन, अणुव्रत आन्दोलन का जन-जन मे सचार ट्रस्ट के उद्देश्यो मे से मुख्य है । इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा अपनी उद्देश्यपूर्ति का जो महत्त्वपूर्ण कदम ट्रस्ट ने उठाया है, वह सर्वथा अभिनन्दनीय है । जन-जन मे सत्तत्त्त्र-प्रसार, नैतिक जागरण की प्रेरणा तथा जन सेवा का उद्देश्य लिये चलने वाले इस ट्रस्ट के संस्थापन द्वारा प्रमुख समाजसेवी, साहित्यानुरागी श्री हनूतमलजी सुराना ने समाज के साधन सम्पन्न व्यक्तियो के समक्ष एक अनुकरणीय कदम रखा है । इसके लिए उन्हें सादर धन्यवाद - है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] आदर्श साहित्य संघ, जो सत्साहित्य के प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार का ध्येय लिए कार्य करता आ रहा है, इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशन का प्रबन्धाभार ग्रहण कर अत्यधिक प्रसन्नता अनूभव करता है । जैन परम्परा का इतिवृत्त जानने में यह पुस्तक विशेष रूप से सहायक सिद्ध होगी, ऐसी आशा है । सरदारशहर ( राजस्थान ) आषाढ कृष्णा ११, २०१७ जयचन्दलाल दफ्तरी व्यवस्थापक आदर्श साहित्य संघ द्वितीय संस्करण जैन परम्परा का इतिवृत जानने में यह पुस्तक विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुई है, यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नही है । पुस्तक का द्वितीय सस्करण इसका ज्वलन्त प्रमाण है । हमे आशा ही नही पूर्ण विश्वास है कि साहित्यानुरागी समाज संघ द्वारा प्रकाशित पुस्तको से लाभान्वित हो समय-समय पर इसका मार्ग-दर्शन करता रहेगा । चूरू ( राजस्थान ) भादव शक्ला १ स० २०२६ व्यवस्थापक आदर्श साहित्य सघ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका ०१. जैन संस्कृति का प्राग ऐतिहासिक काल २ ऐतिहासिक काल ३. जैन साहित्य ४. जैन धर्म का समाज पर प्रभाव ५. संघ व्यवस्था और चर्या १ १६ ५६ १०६ १३५ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जन संस्कृति का प्राग ऐतिहासिक काल • सामूहिक परिवर्तन 'कुलकर-व्यवस्था विवाह-पद्धति , खाद्य-समस्या का समाधान ५ अध्ययन और विकास • राज्य-तन्त्र और दण्डनीति • धर्मतीर्थ-प्रवर्तन साम्राज्य-लिप्सा और युद्ध का प्रारम्भ क्षमा विनय अनासक्त योग थामण्य की ओर ऋपभदेव के पश्चात् सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामूहिक परिवर्तन -- विश्व के कई भागो मे काल को अपेक्षा से जो सामूहिक परिवर्तन होता है, उसे 'क्रम-हासवाद' या 'क्रम-विकासवाद' कहा जाता है। काल के परिवर्तन से कभी उन्नति और-कभी अवनति हुआ करती है। उस काल के मुख्यतया दो भाग होते है-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी मे वर्ण, गन्य, रस, स्पर्श, संहनन, सस्थान, आयुष्य, शरीर, मुख आदि पदार्थों की क्रमशः अवनति होती है । उत्सर्पिणी में उक्त पदार्थो की क्रमशः उन्नति होती है। पर वह अवनति और उन्नति समूहापेक्षा से है, व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। अवसर्पिणी की चरम सीमा ही उत्सपिंगो का प्रारम्भ है और उत्सर्पिणी का अन्त अवसर्पिणी का जन्म है । क्रमश. यह काल-चक्र चलता रहता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के छह-छह भाग होते है :(१) एकान्त-सुपमा (२) सुपमा (३) सुपम-दुःपमा (४) दुपम-सुपमा (५) दुपमा (६) दुपम-दुपमा ये छह अवसर्पिगी के विभाग है। उत्सर्पिणी के छह विभाग इम व्यतिक्रम से होते है : (१) दुपम-दुःपमा (२) दुपमा (३) दुपम-सुपमा (४) मुपम-दुःपमा (५) मुपमा (६) एकान्त-मुपमा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] जैन परम्परा का इतिहास आज हम अवसर्पिणी के पांचवें पर्व - दु·पमा मे जी रहे है । हमारे युग का जीवन-क्रम एकान्त-सुषमा से शुरू होता है । उस समय भूमि स्निग्ध थी । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोज्ञ थे । मिट्टी का मिठास आज की चीनी से अनन्त गुणा अधिक था । कर्म-भूमि थी किन्तु अभी कर्म-युग का प्रवर्तन नही हुआ था | पदार्थ अति स्निग्ध थे, इसलिए उस जमाने के लोग तीन दिन से थोड़ी-सी वनस्पति खाते और तृप्त हो जाते । खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नही थे । विकार बहुत कम थे, इसलिए उनका जीवन-काल बहुत लम्बा होता था । वे तीन पल्य तक जोते थे । अकाल मृत्यु कभी नही होती थी । वातावरण की अत्यन्त अनुकूलता थी । उनका शरीर तीन कोस ऊँचा होता था । वे स्वभाव से शान्त और सन्तुष्ट होते थे । यह चार कोड सागर का एकान्न सुखमय काल - विभाग बीत गया । तीन कोडाकोड सागर का दूसरा सुखमय भाग शुरू हुआ । इसमें भोजन दो दिन से होने लगा । जीवन-काल दो पल्य का हो गया और शरीर की ऊँचाई दो कोस को रह गई । इनकी कमी का कारण था भूमि और पदार्थों की स्निग्वता की कमी । काल और आगे वढा । तीसरे सुख-दुखमय काल विभाग में और कमी आ गई । एक दिन से भोजन होने लगा । जीवन का काल - मान एक पल्य हो गया और शरीर की ऊँचाई एक कोस की हो गई इस युग की कालमर्यादा थी एक कोडाकोड़ सागर । पदार्थो की स्निग्धता मे बहुत कमी हुईं । सहज नियमन व्यवस्था आई और इसी दौरान मे कुलकर-व्यवस्था को । इसके अन्तिम चरण मे टूटने लगे, तब कृत्रिम जन्म मिला । यह कर्म- युग के शैशव काल की कहानी है । समाज संगठन अभी हुआ नही था । यौगलिक व्यवस्था चल रही थी, एक जोडा ही सब कुछ होता था । न कुल था, न वर्ग और न जाति । समाज और राज्य की बात बहुत दूर थी । जन सख्या कम थी । माता-पिता को मौत से दो या तीन मास पहले एक युगल जन्म लेता, वही दम्पत्ति होता । विवाह सस्था का उदय नही हुआ था । जीवन की आवश्यकताएँ बहुत सीमित थी । न खेती होती थी, न कपडा बनता था और न मकान बनते थे, उनके भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे, शृगार और आमोद-प्रमोद, विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास नही जानता था । न कोई वाहन था और न कोई यात्री । गांव वसे नही थे । न कोई स्वामी था और न कोई सेवक । गासक और शासित भी नही थे । न कोई गोपक या और न कोई शोपित । पति-पत्नी या जन्य-जनक के सिवा सम्बन्ध जैसी कोई वस्तु ही नही थी। धर्म और उसके प्रचारक भी नहीं थे, उस समय के लोग सहज धर्म के अधिकारी और गांत-स्वभाव वाले थे। चुगली, निन्दा, आरोप जैसे मनोभाव जन्मे ही नही थे । हीनता और उत्कर्ष की भावनाए भी उत्पन्न नही हुई थी। लड़ने-झगड़ने की मानसिक नन्थियाँ भी नही बनी थी । वे शस्त्र और शास्त्र दोनो से अनजान थे। ___ अब्रह्मचर्य सीमित था, मारकाट और हत्या नही होती थी । न संग्रह था, न चोरी और न असत्य । वे सदा सहज आनन्द और शान्ति मे लीन रहते थे। काल चक्र का पहला भाग ( अर) वीता । दूसरा और तीसरा भी लगभग बीत गया। __ सहज समृद्धि का क्रमिक ह्रास होने लगा । भूमि का रस चीनी से मनन्तगुण मीठा था, वह कम होने लगा । उसके वर्ण, गन्ध और स्पर्श की श्रेष्ठता भी कम हुई। युगल मनुप्यो के गरीर का परिमाण भी घटता गया । तीन, दो और एक दिन के बाद भोजन करने की परम्परा भी टूटने लगी । कल्प-वृक्षो की शक्ति भी क्षीण हो चली। यह योगलिक व्यवस्था के अन्तिम दिनो की कहानी है। / कुलकर-व्यवस्था । असख्य वो के वाद नए युग का मारम्भ हुआ। योगलिक व्यवस्था धीरेधीरे टूटने लगी। दूसरी कोई व्यवस्था अभी भन्म नही पाई। सक्रान्ति-काल चल रहा था । एक ओर आवश्यकता-पूर्ति के साधन कम हुए तो दूसरी ओर जन-सख्या और जीवन की आवश्यकताए कुछ वढी । इस स्थिति मे आपसी सवर्प और लूट-खसोट होने लगी । परिस्थिति की विवशता ने क्षमा, शान्ति, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास सौम्य आदि सहज गुणो में परिवर्तन ला दिया । अपराधी मनोवृति का बीज अंकुरित होने लगा। ___अपराध और अव्यवस्था ने उन्हे एक नई व्यवस्था के निर्माण की प्रेरणा दी। उसके फलस्वरूप 'कुल' व्यवस्था का विकाश हुआ। लोग 'कुल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे । उन कुलो का मुखिया होता, वह कुलकर कहलाता। उसे दण्ड देने का अधिकार होता। वह सब कुलो की व्यवस्था करता, उनकी सुविधाओ का ध्यान रखता और लूट-खसोट पर नियन्त्रण रखता-यह शासन-तन्त्र का ही आदि रूप था । सात या चौदह कुलकर आए । उनके शासन-काल मे तीन नीतियो का प्रवर्तन हुआ । सबसे पहले "हाकार" नीति का प्रयोग हुआ । आगे चलकर वह असफल हो गई तब "माकार" नीति का प्रयोग चला । उसके असफल होने पर "धिक्कार" नीति चली। उस युग के मनुष्य अति-मात्र ऋजु, मर्यादा-प्रिय और स्वयं शासित थे। खेद-प्रदर्शन, निषेध और तिरस्कार-ये मृत्यु-दण्ड से अधिक होते । __ मनुष्य प्रकृति से पूरा भला ही नही होता और पूरा बुरा ही नही होता । उसमे भलाई और बुराई दोनो के बीज होते है। परिस्थिति का योग पा वे अकुरित हो उठते है। देश, काल, पुरुषार्थ, कर्म और नियति की सह-स्थिति का नाम है परिस्थिति । वह व्यक्ति की स्वभावगत वृत्तियो की उत्तेजना का हेतु बनती है । उससे प्रभावित व्यक्ति बुरा या भला बन जाता है। जीवन की आवश्यकताए कम थी, उसके निर्वाह के साधन सुलभ थे। उस समय मनुष्य को सग्रह करने और दूसरो द्वारा अधिकृत वस्तु को हडपने की बात नहीं सूझी । इनके बीज उसमें थे, पर उन्हें अकुरित होने का अवसर नही मिला। ___ ज्यो ही जीवन की थोड़ी आवश्यकताए बढी, उसके निर्वाह के साधन कुछ दुर्लभ हुए कि लोगो मे सग्रह और अपहरण की भावना उभर आई। जब तक लोग स्वय शासित थ, तब तक बाहर का शासन नही था। ज्यो-ज्यो स्वगतशासन टूटता गया, त्यो-त्यो बाहरी गासन बढ़ता गया-यह कार्य-कारणवाद और एक के चले जाने पर दूसरे के विकसित होने की कहानी है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास विवाह-पद्धति __नाभि अन्तिम कुलकर थे। उनकी पत्नी का नाम था-'महदेवा'। उनके पुत्र का जन्म हुआ। उनका नाम रखा गया 'उसभ' या 'पभ' । इनका शैशव वदलते हुए युग का प्रतीक था। युगल के एक साथ जन्म लेने और मरने की सहज-व्यवस्था भी शिथिल हो गई। उन्ही दिनो एक युगल जन्मा, थोडे समय वाद पुरुप चल वमा । स्त्री अकेली रह गई। इधर ऋपभ युवा हो गए । उनने परम्परा के अतिरिक्त उस कन्या को स्वय व्याहा-यही से विवाह-पद्धति का उदय हुआ । इसके बाद लोग अपनी सहोदरी के सिवा भी दूसरी कन्याओ से विवाह करने लगे। ___ समय ने करवट ली । आवश्यकता-पूति के सावन सुलभ नही रहे। योगलिको मे क्रोध, अभिमान, माया और लोभ बढ़ने लगे। हाकार, माकार और धिक्कारनीतियो का उल्लघन होने लगा । समयं गासक की मांग हुई। कुलकर व्यवस्था कर अन्त हुआ । ऋपभ पहले राजा बने । उन्होने अयोध्या को राजवानी बनाया । गाँवों और नगरो का निर्माण हुआ । लोग अरण्य-वासी से हट भवन-वासी वन गए । ऋषभ की क्रान्तिकारी और जन्मजात प्रतिभा से लोग नए युग के निर्माण को ओर चल पड़े। ऋपभदेव ने उन, भोग, राजन्य और क्षत्रिय-ये चार वर्ग स्थापित किए। आरक्षक वर्ग 'उन' कहलाया। मत्री आदि गामन को चलाने वाले 'भोग', राजा के समस्थिति के लोग राजन्य' और शेप 'क्षत्रिय' कहलाए । खाद्य-समस्या का समाधान कुलकर युग मे लोगों की भोजन-सामग्री थी -कन्द, मूल, पत्र, पुष्य और फल' । वढती हुई जन-सख्या के लिए कन्द आदि पर्याप्त नही रहे और वन-वासी लोग गृह-वासी होने लगे। तब अनाज खाना सीखा। वे पकाना नही जानते थे और न उनके पास पकाने का कोई सावन था। वे कच्चा अनाज खाते थे। समय बदला । कच्चा अनाज दुपाच्य हो गया। लोग ऋपभदेव के पास पहुँचे और अपनी समस्या का उनसे समाधान मांगा। ऋपभदेव ने अनाज को हायों से घिसकर खाने की सलाह दी। लोगो ने वैसा ही किया । कुछ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास समय बाद वह विधि भी असफल होने लगी। ऋषभदेव अग्नि की बात जानते थे। किन्तु वह काल एकान्त स्निग्ध था। वैसे काल में अनि उत्पन्न हो नहीं सकती। एकान्त स्निग्य और एकान्त रूक्ष-दोनो काल अग्नि की उत्पत्ति के योग्य नही होते । समय के चरण आगे बढे । काल स्निग्ध-रूक्ष बना तब वृक्षो को टक्कर से अग्नि उत्पन्न हुई, वह फैली । बन जलने लगे। लोगो ने उस अपूर्व वस्तु को देखा और उसकी सूचना ऋषभदेव को दी। उनने पात्र-निर्माण और पाक-विद्या सिखाई । खाद्य-समस्या का समाधान हो गया । अध्ययन और विकास राजा ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को ७२ कलाए सिखाई । बाहुबली को प्राणी की लक्षण-विद्या का उपदेश दिया । बडी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियो और सुन्दरी को गणित का अध्ययन कराया। धनुर्वेद, अर्थ-शास्त्र, चिकित्सा, क्रीड़ा-विधि आदि आदि का प्रवर्तन कर लोगो को सुव्यवस्थित और सुसस्कृत बना दिया। अमि की उत्पत्ति ने विकास का स्रोत खोल दिया। पात्र, औजार, वस्त्र, चित्र आदि-आदि शिल्प का जन्म हुआ। अन्न-पाक के लिए पात्र-निर्माण आवश्यक हुआ। कृषि, गृह-निर्माण आदि के लिए औजार आवश्यक थे, इसलिए लोहकार-शिल्प का आरम्भ हुआ। वस्त्र-वृक्षो को कमी ने वस्त्र-शिल्प और गृहाकार कल्प-वृक्षो की कमी ने गृह-शिल्प को जन्म दिया। नख, केश आदि काटने के लिए नापित-शिल्ल (क्षौर-कर्म ) का प्रवर्तन हुआ। इन पांचो शिल्लो का प्रवर्तन अग्नि की उत्पत्ति के बाद हुआ । कृषिकार, व्यापारी और रक्षक-वर्ग भी अग्नि की उत्तत्ति के बाद बने । कहा जा सकता है-अग्नि ने कृषि के उपकरण, आयात-निर्यात के साधन और अस्त्र-शस्त्रो को जन्म दे मानव के भाग्य को बदल दिया । पदार्थ बढे, तब परिग्रह मे ममता बढी, सग्रह होने लगा। कौटुम्बिक ममत्व भी बढा । लोकेषणा और धनेषणा के भाव जाग उठे। राज्यतंत्र और दण्डनीति कुलकर व्यवस्था मे तीन दण्ड-नीतियाँ प्रचलित हुई। पहले कुलकर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [७ विमलवाहन के समय मे 'हाकार' नीति का प्रयोग हुआ । उस समय के मनुष्य स्वय अनुशासित और लज्जाशील थे। "हा ! तूने यह क्या किया," ऐसा कहना गुरुतर दण्ड था। दूसरे कुलकर चक्षुष्मान के समय भी यही नीति चली। तीसरे और चौथे-यशस्वी और अभिचन्द्र कुलकर के समय मे छोटे अपराध के लिए 'हाकार' और बड़े अपराध के लिए 'माकार' ( मत करो ) नीति का प्रयोग किया गया। ___ पांचवें, छठे और सातवें-प्रश्रेणि, मरुदेव और नाभि कुलकर के समय मे 'धिक्कार' नीति और चली । छोटे अपराध के लिए धिक्कार' नीति का प्रयोग किया गया । अभी नाभि का नेतृत्व चल ही रहा था। युगलो को जो कल्पवृक्षो से प्रकृति-मिद्ध भोजन मिलता था, वह अपर्याप्त हो गया। जो युगल शान्त और प्रसन्न थे, उनमे क्रोध का उदय होने लगा। आपस मे लडने-झगडने लगे। 'धिक्कार' नीति का उल्लघन होने लगा। जिन युगलो ने क्रोध, लडाई जैसी स्थितियां न कभी देखी और न कभी सुनी- वे इन स्थितियो से धबडा गए । वे मिले और ऋपभकुमार के पास पहुचे और मर्यादा के उल्लघन से उत्पन्न स्थिति का निवेदन किया । ऋषभ ने कहा--"इस स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए राजा की आवश्यकता है।" "राजा कौन होता है ?"---युगलो ने पूछा। ऋषभ ने राजा का कार्य समझाया। शक्ति के केन्द्रीकरण की कल्पना उन्हें दी । युगलो ने कहा-'हम मे आप सर्वाधिक समर्थ है। आप ही हमारे राजा वनें।" ऋपभकुमार वोले-"आप मेरे पिता नाभि के पास जाइये, उनसे राजा की याचना कीजिये । वे आपको राजा देंगे।" वे चले, नाभि को सारी स्थिति से परिचित कराया। नाभि ने ऋषभ को उनका राजा घोपित किया। वे प्रसन्न हो लौट गए। ऋपभ का राज्याभिषेक हुआ। उन्होने राज्य-सचालन के लिए नगर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] जैन परम्परा का इतिहास बसाया । वह बहुत विशाल था और उसका निर्माण देवों ने किया था। उसका नाम रखा विनीता-- अयोध्या। ऋषभ राजा बने। शेष जनता प्रजा बन गई । वे प्रजा का अपनी सन्तान की भॉति पालन करने लगे। असाधु लोगो पर शासन और साधु लोगो की सुरक्षा के लिए उन्होने अपना मन्त्रि-मण्डल बनाया। चोरी, लूट-खसोट न हो, नागरिक जीवन व्यवस्थित रहे इसके लिए उन्होंने आरक्षक-दल स्थापित किया। राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसलिए उन्होने चतुरंग सेना और सेनापतियो की व्यवस्था की । साम, दाम, भेद और दण्ड-नीति का प्रवर्तन किया। परिमाण-थोडे समय के लिए नजरबन्द करना-क्रोधपूर्ण शब्दो मे अपराधी को 'यही बैठ जाओ' का आदेश देना। मण्डल-बन्ध -नजरबन्द करना-नियमित क्षेत्र से बाहर जाने का आदेश देना। चारक-कैद मे डालना। छविच्छेद-हाथ-पैर आदि काटना । ये चार दण्ड भरत के समय मे चले । दूसरी मान्यता के अनुसार इनमे से पहले दो ऋपभ के समय मे चले और अन्तिम दो भरत के समय । ____ आवश्यक नियुक्ति ( गाथा २१७, २१८ ) के अनुसार बन्ध-(बेडी का प्रयोग ) और घात-(डडे का प्रयोग ) ऋषभ के राज्य मे प्रवृत्त हुए तथा मृत्यु-दण्ड भरत के राज्य मे चला। ___औषध को व्याधि का प्रतिकार माना जाता है-वैसे दण्ड अपराध का प्रतिकार माना जाने लगा। इन नीतियो मे राजतन्त्र जमने लगा और अधिकारी चार भागो मे बँट गए। आरक्षक-वर्ग के सदस्य 'उग्न', मन्त्रिपरिषद् के सदस्य ‘भोग', परामर्शदात्री समिति के सदस्य या प्रान्तीय प्रतिनिधि 'राजन्य' और शेष कर्मचारी 'क्षत्रिय' कहलाए । ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी चुना । यह क्रम राज्यतन्त्र का अग बन गया । यह युगो तक विकसित होता रहा। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [e धर्म- तीर्थ - प्रवर्तन कर्त्तव्य बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभदेव राज्य करने लगे । बहुत लम्बे समय तक वे राजा रहे। जीवन के अन्तिम भाग में राज्य त्याग कर वे मुनि वने । मोक्ष-धर्म का प्रवर्तन हुआ । यौगलिक काल में क्षमा, सन्तोष आदि सहज धर्म ही था । हजार वर्ष की साधना के बाद भगवान् ऋषभदेव को कैवल्य-लाभ हुआ | साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका - इन चार तीर्थो की स्थापना की । मुनि-धर्म के पाँच महाव्रत और गृहस्थ धर्म के बारह व्रतो का उपदेश दिया | साधु-साध्वियों का सघ बना, श्रावक-श्राविकाए भी बनी । साम्राज्य - लिप्सा और युद्ध का प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव कर्म-युग के पहले राजा थे । अपने सौ पुत्रो को अलगअलग राज्यो का भार सौप वे मुनि वन गए । सबसे बडा पुत्र भरत था । वह चक्रवर्ती सम्राट् बनना चाहता था । उसने अपने ६६ भाइयो को अपने अधीन करना चाहा । सबके पास दूत भेजे । ६८ भाई मिले । आपस मे परामर्श कर भगवान् ऋषभदेव के पास पहुँचे । सारी स्थिति भगवान् के सामने रखी । द्विविधा की भाषा मे पूछा- भगवन् ! क्या करें ? बड़े भाई से लड़ना नही चाहते और अपनी स्वतन्त्रता को खोना भी नही चाहते । भाई भरत ललचा गया है । आपके दिये हुए राज्यो को वह वापिस लेना चाहता है । हम उससे लड़ें तो भ्रातृ-युद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी । विना लडे राज्य सौप दें तो साम्राज्य का रोग बढ जाएगा । परम पिता ! इस द्विविधा से उबारिए | भगवान् ने कहा- पुत्रो । तुमने ठीक सोचा । लडना भी बुरा है और क्लीव वनना भी बुरा है। राज्य दो परो वाला पक्षी है । उसका मजबूत पर युद्ध है । उसकी उडान मे पहले वेग होता है अन्त में थकान | वेग मे से चिनगारियाँ उछलती है । उडाने वाले लोग उससे जल जाते है । उडने वाला चलता-चलता थक जाता है । शेष रहती है निराशा और अनुताप । पुत्रो । तुम्हारी समझ सही है । युद्ध बुरा है - विजेता के लिए भी और पराजित के लिए भी । पराजित अपनी सत्ता को गँवा कर पछताता है और विजेता कुछ नही पा कर पछताता है । प्रतिशोध की चिता जलाने वाला उसमे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] जैन परम्परा का इतिहास स्वयं न जले-यह. कभी नही होता। राज्य रूपी पक्षी का दूसरा पर दुर्बल है। . वह है कायरता । मैं तुम्हे कायर बनने की सलाह भी कैसे दे सकता हूँ ? पुत्रो । मैं तुम्हे ऐसा राज्य देना चाहता हूँ, जिसके साथ लड़ाई और कायरता की कड़ियाँ जुडी हुई नही है।। भगवान् की आश्वासन भरी वाणी सुन वे सारे के सारे खुशी से झूम उठे। आशा-भरी दृष्टि से एकटक भगवान् की ओर देखने लगे। भगवान् की भावना को वे नही पकड सके । भौतिक जगत् की सत्ता और अधिकारो से परे कोई राज्य हो सकता है—यह उसको कल्पना मे नही समाया। उनकी किसी विचित्र भू-खण्ड को पाने की लालसा तीन हो उठो । भगवान् इसीलिए तो भगवान् थे कि उनके पास कुछ भी नही था। उत्सर्ग की चरम रेखा पर पहुंचने वाले ही भगवान् बनते है । सग्रह के चरम विन्दु पर पहुँच कोई भगवान् वना हो-ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है । भगवान् ने कहा - सयम का क्षेत्र निर्वाध राज्य है। इसे लो। न तुम्हे कोई अधीन करने आयेगा और न वहाँ युद्ध और कायरता का प्रसंग है । पुत्रो ने देखा पिता उन्हें राज्य त्यागने की सलाह दे रहे है । पूर्व कल्पना पर पटाक्षेप हो गया । अकल्पित चित्र सामने आया । आखिर वे भी भगवान् के वेटे थे। भगवान् के मार्ग-दर्शन का सम्मान किया । राज्य को त्याग स्वराज्य की ओर चल पड़े । इस राज्य की अपनी विशेषताए है। इसे पाने वाला सब कुछ पा जाता है। राज्य की मोहकता तब तक रहती है। जब तक व्यक्ति स्वराज्य की सीमा मे नही चला आता । एक सयम के बिना व्यक्ति सव कुछ पाना चाहता है । सयम के आने पर कुछ भी पाए बिना सब कुछ पाने की कामना नष्ट हो जाती है। त्याग शक्तिशाली अस्त्र है इसका कोई। प्रतिद्वन्द्वी नही है। भरत का आक्रामक दिल पसीज गया । वह दौड़ा-दौड़ा आया। अपनी भूल पर पछतावा हुआ। भाइयो से क्षमा मांगी। स्वतन्त्रता पूर्वक अपना-अपना राज्य सम्हालने को कहा। किन्तु वे अब राज्य-लोभी सम्राट् भरत के भाई नही रहे थे । वे अकिञ्चन, जगत् के भाई बन चुके थे। भरत का भ्रातृ-प्रेम अब उन्हें नही ललचा सका। वे उसकी लालची आँखो को देख चुके थे। इसलिए उसकी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा जैन परम्परा का इतिहास गीली आँखो का उन पर कोई असर नही हुआ। भरत हाथ मलते हुए घर लौट गया। साम्राज्यवाद एक मानसिक प्यास है। वह उभरने के वाद सहसा नहीं बुझती । भरत ने एक-एक कर सारे राज्यो को अपने अधीन कर लिया। वाहुबलि को उसने नही छुआ। अट्ठानवें भाइयो के राज्य-त्याग को वह अब भी नही भूला था । अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा। एकछत्र राज्य का सपना पूरा नही हुआ। असयम का जगत ही ऐसा है, जहाँ सव कुछ पाने पर भी व्यक्ति को अकिञ्चनता की अनुभूति होने लगती है। क्षमा " . ___ दूत के मुह से भरत का सन्देश सुन बाहुबलि की भृकुटि तन गई। दवा हुआ रोप उभर आया । 'कांपते ओठो से कहा-दूत ! भरत अब भी भूखा . है ? अपने अठानवे सगे भाइयो का राज्य हडप कर भी तृप्त नही बना। हाय ! यह कैसी हीन मनोदशा है । साम्राज्यवादी के लिए निपेध जैसा कुछ होता ही नही । मेरा वाहु-बल किससे कम है ? क्या मैं दूसरे राज्यो को नही हड़प ' सकता ? किन्तु यह मानवता का अपमान व शक्ति का दुरुपयोग और व्यवस्था का भग है। मैं ऐसा कार्य नही कर सकता। व्यवस्था के प्रवर्तक हमारे पिता है। उनके पुत्रो को उसे तोड़ने में लजा का अनुभव होना चाहिए । गक्ति का प्राधान्य पशु-जगत् का चिह्न है । मानव-जगत् मे विवेक का प्राधान्य होना चाहिए । शक्ति का सिद्धान्त पनपा तो बच्चो और बूढो का क्या बनेगा ? युवक उन्हें चट कर जाएगे। रोगी, दुर्बल और अपग के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं रहेगा। फिर तो यह सारा विश्व रौद्र बन जाएगा। क्रूरता के साथी है, ज्वाला-स्फुलिंग, ताप और सर्वनाग । क्या मेरा भाई अभी-अभी समूचे जगत् को सर्वनाग की ओर ढकेलना चाहता है ? माक्रमण एक उन्माद है । आक्रान्ता उससे वेभान हो दूसरो पर टूट पडता है । भरत ने ऐसा ही किया। मैं उसे चुप्पी साधे देखता रहा। अब उस उन्माद के रोगी का शिकार मैं हूँ। हिंसा से हिंसा की आग नही वुझती-यह मैं जानता हूँ। आक्रमण को मैं अभिशाप मानता हूँ। किन्तु आक्रमणकारी को सहूँ-यह मेरी तितिक्षा से परे है। तितिक्षा मनुष्य के उदात्त चरित्र Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] जैन परम्परा का इतिहास की विशेषता है। किन्तु उसकी भी एक सीमा है। मैंने उसे भी निभाया है। तोड़नेवाला समझता ही नही तो आखिर जोड़ने वाला कब तक जोड़े ? ___ भरत की विशाल सेना 'बली' की सीमा पर पहुँच गई। इधर बाहुबलि अपनी छोटी-सी सेना सजा आक्रमण को विफल करने आ गया। भाई-भाई के बीच युद्ध छिड़ गया। स्वाभिमान और स्वदेश-रक्षा की भावना से भरी, हुई बाहुबलि की छोटी-सी सेना ने सम्राट की विशाल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। सम्राट के सेनानी ने फिर पूरी तैयारी के साथ आक्रमण किया । दुबारा भी मुह की खानी पड़ी। लम्बे समय तक आक्रमण और बचाव की लड़ाइयां होती रहीं। आखिर दोनों भाई सामने आ खड़े हुए। तादात्म्य आँखो पर छा गया। संकोच के घेरे में दोनो ने अपने आपको छिपाना चाहा, किन्तु दोनो विवश थे। एक के सामने साम्राज्य के सम्मान का प्रश्न था, दूसरे के सामने स्वाभिमान का। विनय और वात्सल्य की मर्यादा को जानते हुए भी रण-भूमि में उतर आये। दृष्टि-युद्ध, मुष्ठि-युद्ध आदि पांच प्रकार के युद्ध निर्णीत हुए। उन सब मे सम्राट पराजित हुआ। विजयी हुआ बाहुबलि । भरत को छोटे भाई से पराजित होना बहुत चुभा । वह आवेग को रोक न सका। मर्यादा को तोड बाहुबलि पर चक्र का प्रयोग कर डाला । इस अप्रत्याशित घटना से बाहुबलि का खून उबल गया। प्रेम का स्रोत एक साथ ही सूख गया । बचाव की भावना से विहीन हाथ उठा तो सारे सन्न रह गये। भूमि और आकाश बाहुबलि की विरुदावलियो से गूज उठे। भरत अपने अविचारित प्रयोग से लजित हो सिर झुकाए खडा रहा। सारे लोग भरत की भूल को भुला देने की प्रार्थना मे लग गये। एक साथ लाखों कण्ठो से एक ही स्वर गूंजा-"महान् पिता के पुत्र भी महान् होते है । सम्राट ने अनुचित किया पर छोटे भाई के हाथ से बडे भाई की हत्या और अधिक अनुचित कार्य होगा ? महान् ही क्षमा कर सकता है। क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता। महान् पिता के महान् पुत्र ! हमे क्षमा कीजिए, हमारे सम्राट को क्षमा कीजिए।" इन लाखो कण्ठो की विनम्र स्वर-लहरियो ने बाहुबलि के शौर्य को मार्गान्तरित कर दिया। बाहुबलि ने अपने आपको सम्हाला । महान् पिता की स्मृति ने वेग का Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१३ शमन किया । उठा हुआ हाथ विफल नही लौटता । उसका प्रहार भरत पर नही हुआ। वह अपने सिर पर लगा। सिर के बाल उखाड फैके और अपने पिता के पथ की ओर चल पड़ा। विनय वाहुबलि के पैर आगे नही वढे। वे पिता को शरण मे चले गए पर उनके पास नही गए । अहकार अव भी बच रहा था । पूर्व दीक्षित छोटे भाइयो को नमस्कार करने की बात याद आते ही उनके पैर रुक गए। वे एक वर्ष तक ध्यान मुद्रा में खड़े रहे । विजय और पराजय की रेखाए अनगिनत होती है । असतोष पर विजय पाने वाले वाहुवलि अह से पराजित हो गए। उनका त्याग और क्षमा उन्हें आत्म-दर्शन की ओर ले गए। उनके अह ने उन्हे पीछे ढकेल दिया । बहुत लम्बी ध्यान-मुद्रा के उपरान्त भी वे आगे नही बढ सके । "ये पैर स्तब्ध क्यो हो रहे हैं ? सरिता का प्रवाह रुक क्यो रहा है ? इन चट्टानो को पार किए विना साध्य पूरा होगा ?" ये शब्द बाहुबलि के कानो को बीध हृदय को पार कर गए। वाहुबलि ने आँखें खोली। देखा, ब्राह्मी और सुन्दरी सामने खड़ी है । वहिनो की विनम्र-मुद्रा को देख उनकी आँखें झुक गई । अवस्था से छोटे-बडे की मान्यता एक व्यवहार है। वह सार्वभौम सत्य नही है । ये मेरे पैर गणित के छोटे से प्रश्न मे उलझ गए। छोटे भाइयो को मैं नमस्कार कैसे करूं-इस तुच्छ चिन्तन मे मेरा महान् साध्य विलीन हो गया। अवस्था लौकिक मानदण्ड है । लोकोत्तर जगत् मे छुटपन और बडप्पन के मानदण्ड बदल जाते है । वे भाई मुझसे छोटे नही है । उनका चारित्र विशाल है । मेरे अह ने मुझे और छोटा बना दिया । अब मुझे अविलम्ब भगवान् के पास चलना चाहिए । पैर उठे कि वन्धन टूट पड़े । नम्रता के उत्कर्ष मे समता का प्रवाह बह चला। वे केवली वन गए । सत्य का साक्षात् ही नही हुआ, वे स्वय सत्य बन गए। शिव अव उनका साध्य नही रहा, वे स्वय शिव वन गए । आनन्द अव उनके लिए प्राप्य नही रहा, वे स्वय आनन्द बन गए। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास १४ ] अनासक्त योग भरत अब असहाय जैसा ही हो गया। भाई जैसा शब्द उसके लिए अर्थवान् नही रहा । वह सम्राट बना रहा किन्तु उसका हृदय अब साम्राज्यवादी नही रहा । पदार्थ मिलते रहे पर आसक्ति नही रही । वह उदासीन भाव से राज्य सचालन करने लगा । भगवान् अयोध्या आए । प्रवचन हुआ । एक प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा - "भरत मोक्षगामी है ।" एक सदस्य भगवान् पर बिगड गया और उन पर पुत्र के पक्षपात का आरोप लगाया । भरत ने उसे फांसी की सजा दे दी । वह घबड़ा गया । भरत के पैरों में गिर पडा और अपराध के लिए भरत ने कहा – तैल भरा कटोरा लिए सारे नगर में धूम आओ । बूँद नीचे न डालो तो तुम छूट सकते हो । दूसरा कोई विकल्प नही है । अभियुक्त ने वैसा ही किया। बड़ी सावधानी से नगर में घूम आया और सम्राट के सामने प्रस्तुत हुआ । क्षमा मांगी । तैल की एक सम्राट ने पूछा- - नगर में घूम आये ? जी हाँ । अभियुक्त ने सफलता के भाव से कहा । सम्राट - नगर में कुछ देखा तुमने ? अभियुक्त नही, सम्राट् ! कुछ भी नही देखा । सम्राट -कई नाटक देखे होगे ? अभियुक्त - जी, नही । मौत के सिवाय कुछ भी नही देखा ! सम्राट - कुछ गीत तो सुने होगे ? अभियुक्त - सम्राट की साक्षी से कहता हूँ । मौत की गुनगुनाहट के सिवाय कुछ भी नही सुना । सम्राट -- मौत का इतना डर ? अभियुक्त - -- सम्राट इसे क्या जाने ? यह मृत्यु दण्ड पाने वाला ही समझ सकता है । सम्राट—क्या सम्राट अमर रहेगा ? कभी नही । मौत के मुँह से कोई नही बच सकता । तुम एक जीवन की मौत से डर गए । न तुमने नाटक देखे और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १५ न गीत सुने। में मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूँ। यह साम्राज्य मुझे नही लुभा सकता। __ सम्राट को करुणापूर्ण नाँसो ने अभियुक्त को अभय बना दिया। मृत्युदड उसके लिए केवल निक्षा-प्रद था। सम्राट की अमरत्व-निष्ठा ने उसे मौत से सदा के लिए उबार लिया। श्रामण्य की ओर सम्राट भरत नहाने को थे। स्नान-घर में गए, अगूठी सोली। अंगुली को गोभा घट गई। फिर उने पहना, गोभा बढ़ गई। पर पदार्थ से शोभा बढ़ती है, यह नौन्दर्य निम है-उस चिन्तन मे लगे और लगे महज सौन्दर्य को ढूंढने । भावना का प्रवाह आगे वटा । पर्म-मल को धो डाला। क्षगों मे ही मुनि वने, वीतराग वने और केवली बने। भावना की गुद्धि ने व्यवहार को सीमा तोड दी। न वेप बदला, न राज-प्रानाद से बाहर निकले फिन्तु इनका मानरिक संयम इनसे बाहर निकल गया और वे पिता के पथ पर चले पड़े। ऋषभदेव के पश्चात् काल का चौथा 'दुख-मुखमय' चरण आया। व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड सागर तक रहा। इस अवधि मे कर्म-क्षेत्र का पूर्ण विकास हुआ और धर्म-सम्प्रदाय भी बहुत फले-फूले। जैन धर्म के वीस तीर्थङ्कर और हुए, यह बारा दर्शन प्राग ऐतिहासिक युग का है। इतिहास अनन्त-अतीत की चरग-धूलि को भी नही छू सका है। वह पाँच हजार वर्ष को भी कल्पना को आँख से देख पाता है। सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना वौद्ध साहित्य का जन्म-काल महात्मा बुद्ध के पहले का नही है। जैन साहित्य का विशाल भाग भगवान् महावीर के पूर्व का नही है। पर थोडा भाग भगवान् पावं की परम्परा का भी उसी मे मिश्रित है, यह बहुत सभव है । भगवान् अरिष्टनेमि की परम्परा का साहित्य उपलत्र नही है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] जैन परम्परा का इतिहास उपलब्ध - वेदों का अस्तित्व ५ हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है । साहित्य श्रीकृष्ण के युग का उत्तरवर्ती है । इस साहित्यिक उपलब्धि द्वारा कृष्ण-युग तक का एक रेखा-चित्र खीचा जा सकता है । उससे पूर्व की स्थिति सुदूर अतीत में चली जाती है । छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंग - रस ऋषि थे १२ । ર जैन आगमो के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे 13 । घोर आंगिरस ने श्रीकृष्ण को जो धारणा का उपदेश दिया है, वह विचार जैन- परम्परा से भिन्न नही है । तू अक्षित-अक्षय है, अच्युतअविनाशी है और प्राण- सशित---अतिसूक्ष्मप्राण हैं । इस त्रयो को सुन कर श्रीकृष्ण अन्य विद्याओ के प्रति तृष्णा-हीन हो गए १४ । वेदो में आत्मा की स्थिर मान्यता का प्रतिपादन नही है । जैन दर्शन आत्मवाद की भित्ति पर ही अवस्थित है ५ । संभव है अरिष्टनेमि ही वैदिक साहित्य में आंगिरस के रूप मे उल्लिखित हुए हो अथवा वे अरिष्टनेमि के ही विचारो से प्रभावित कोई दूसरे व्यक्ति हो । कृष्ण और अरिष्टनेमि का पारिवारिक सम्बन्ध भी था । अरिष्टनेमि समुद्रविजय और कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे । समुद्रविजय और वसुदेव सगे भाई थे । कृष्ण ने अरिष्टनेमि के विवाह के लिए प्रयत्न किया ६ 1 अरिष्टनेमि की दीक्षा के समय वे उपस्थित थे । ७ । राजिमती को भी दीक्षा के समय मे उन्होने भावुक शब्दो मे आशीर्वाद दिया १८ । प्रव्रजित हुई २० | कृष्ण के पुत्र कृष्ण के प्रिय अनुज गजसुकुमार ने अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली। कृष्ण की पत्नियां अरिष्टनेमि के पास I अरिष्टनेमि के और अनेक पारिवारिक लोग अरिष्टनेमि के शिष्य बने २ १ और कृष्ण के वार्तालापो, प्रश्नोत्तरी और विविध चर्चाओ के अनेक उल्लेख मिलते है २ 1 3 वेदो में कृष्ण के देव रूप की चर्चा नही है । छान्दोग्य उपनिषद् मे भी कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन है २३ । पौराणिक काल मे कृष्ण का रूप - परिवर्तन कृष्ण के यथार्थ रूप का होता है । वे सर्व- शक्तिमान् देव बन जाते है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१७ वर्णन जैन आगमो मे मिलता है। अरिष्टनेमि और उनकी वाणी से वे प्रभावित थे, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उस समय सौराष्ट्र की आव्यात्मिक चेतना फा आलोक समूचे भारत को आलोकित कर रहा था। Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९-५८ ऐतिहासिक काल तीर्थकर पार्श्वनाथ भगवान् महावीर जन्म और परिवार नाम और गोत्र यौवन और विवाह महाभिनिष्क्रमण साधना और सिद्धि तीर्थ-प्रवर्तन श्रमण-संघ-व्यवस्था निर्वाण उत्तरवर्ती सघ-परंपरा तीन प्रधान परम्पराएँ सम्प्रदाय-भेद (निह्नव विवरण) बहरतवाद . जीव प्रादेशिकवाद - अव्यक्तवाद - 2 सामुच्छेदिकवादद्वी क्रियवाद - त्रैराशिकवाद । अबद्धिकवाद - श्वेताम्बर-दिगम्बर सचेलत्व और अचेलत्व का आग्रह और समन्वय दृष्टि चैत्यवास और सविग्न स्थानकवासी तेरापथ Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्यकर भगवान् पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुप है । उनका तीर्थ प्रवर्तन भगवान् महावीर से २५० वर्ष पहले हुआ । भगवान् महावीर के समय तक उनकी परम्परा अविच्छिन्न थी। भगवान् महावीर के माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । भगवान् महावीर ने समय की मांग को पहचान पच महावत का उपदेश दिया। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य भगवान् महावीर व उनके शिष्यो से मिले, चर्चाएं की ओर अन्ततः पचयाम 'स्वीकार कर भगवान् महावीर के तीर्थ मे सम्मिलित हो गए। धर्मानन्द कौसम्बी ने भगवान् पार्श्व के बारे मे कुछ मान्यताए प्रस्तुत की है : "ज्यादातर पाश्चात्य पण्डितो का मत है कि जैनो के २३ वें तीर्थकर पार्व ऐतिहासिक व्यक्ति थे। उनके चरित्र में भी काल्पनिक बातें है । पर वे पहले तीर्थंकरो के चरित्र मे जो बातें है, उनसे बहुत कम है। पार्य का शरीर ६ हाथ लम्बा था। उनकी आयु १०० वर्ष की थी। सोलह हजार साधु-शिष्य, अडतीस हजार साध्वी-शिष्याएं, एक लाख चौसठ हजार श्रावक तथा तीन लाख उनतालीस हजार श्राविकाए इनके पास थी। इन सव बातो मे जो मुख्य ऐतिहासिक बात है, वह यह है कि चौवीसर्वे तीर्थकर वर्षमान के जन्म के एक सौ अठहत्तर साल पहले पार्श्व तीर्थकर का परिनिर्वाण हुआ। वर्धमान या महावीर तीर्थकर वुद्ध के समकालीन थे, इस बात को सव लोग जानते है । बुद्ध का जन्म वर्षमान के जन्म के कम से कम १५ साल बाद हुआ होगा । इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्ध का जन्म तथा पार्श्व तीर्थकर का परिनिर्वाण इन दोनो में १६३ साल का अन्तर था । मरने के पूर्व लगभग ५० साल तो पार्श्व तीर्थकर उपदेश देते रहे होगे। इस प्रकार वुद्ध-जन्म के करीब दो सौ तैतालीस वर्ष पूर्व पार्श्व मुनि ने उपदेश देने का काम शुरू किया। निन्य श्रमणो का सघ भी पहले-पहल उन्हीने स्थापित किया होगा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] जैन परम्परा का इतिहास ऊपर दिखाया जा चुका है कि परीक्षित का राज्य-काल बुद्ध से तीन शतादियों के पूर्व नही जा सकता । परीक्षित के बाद जनमेजय गद्दी पर आया और उसने कुरु देश में महायज्ञ कर वैदिक धर्म का झण्डा फहराया । इसी समय काशी देश मे पार्श्व एक नई संस्कृति को नीव डाल रहे थे । पार्श्व का जन्म वाराणसी नगर मे अश्वसेन नामक राजा की वामा नामक रानी से हुआ । ऐसी कथा जैन ग्रन्थो में आई है । उस समय राजा ही अधिकारी, जमीदार हुआ करता था । इसलिए ऐसे राजा के यह लड़का होना कोई असम्भव बात नही है । पार्श्व की नई संस्कृति काशी राज्य में अच्छी तरह टिकी रही होगी क्योकि बुद्ध को भी अपने पहले शिष्यो को खोजने के लिए वाराणसी ही जाना पडा था । पार्श्व का धर्म बिल्कुल सीधा-साधा था । हिसा, असत्य, स्तेय तथा परिग्रह -- इन चार बातो के त्याग करने का उपदेश देते थे । इतने प्राचीन काल मे अहिंसा को इतना सम्बद्ध रूप देने का यह पहला हो उदाहरण है । सिनाई पर्वत पर मोजेस को ईश्वर ने जो दश आज्ञाए ( Ten Comm andments ) सुनाई, उनमे हत्या मत करो, इसका भी समावेस था । पर उन आज्ञाओ को सुनकर मोजेस और उनके अनुयायी पैलेस्टाइन मे घुसे और वहाँ खून की नदियाँ बहाई । न जाने कितने लोगो को कत्ल किया और न जाने कितनी युवती स्त्रियो को पकड़ कर आपस में बांट लिया । इन बातो को अहिंसा कहना हो तो फिर हिंसा किसे कहा जाय ? तालर्य यह है कि पार्श्व के पहले पृथ्वी पर सच्ची अहिंसा से भरा हुआ धर्म या तत्त्व ज्ञान था ही नही । पार्श्व मुनि ने एक और भी बात की । उन्होने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह -- इन तीनो नियमों के साथ जकड़ दिया । इस कारण पहले जो अहिसा ऋषि-मुनियों के आचरण तक ही थी और जनता के व्यवहार में जिसका कोई स्थान न था, वह अब इन नियमो के सम्बन्ध से सामाजिक एव व्यावहारिक हो गई । पार मुनि ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए उन्होने सघ बनाए । बौद्ध साहित्य से इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [२३ समय जो सघ विद्यमान थे, उन सवो मे जैन साधु और सानियो का संघ सबसे वडा था। पार्श्व के पहले ब्राह्मणो के बड़े-बडे समूह थे, पर वे सिर्फ यन-याग का प्रचार करने के लिए ही थे । यज्ञ-याग का तिरस्कार कर उमका त्याग करके जगलो मे तपस्या करने वालो के सघ भी थे। तपस्या का एक अग समझ कर ही वे अहिंसा धर्म का पालन करते थे पर समाज मे उसका उपदेश नही देते थे। वे लोगो से बहुत कम मिलते-जुलते थे। बद्ध के समय जो श्रमण थे, उनका वर्णन आगे किया जायगा। यहाँ पर इतना ही दिखाना है कि बुद्ध के पहले यन-याग को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यन-याग से ऊब कर जगलो मे जाने वाले तपस्वी थे। वृद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी न थे-ऐमी वात नहीं है । पर इन दो प्रकार के दोपो को देखने वाले तीसरे प्रकार के भी सन्यासी थे और उन लोगो मे पार्व मुनि के शिप्यो को पहला स्थान देना चाहिए।' जैन परम्परा के अनुसार चातुर्याम धर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान् अजितनाथ और अन्तिम प्रवर्तक भगवान् पार्श्वनाय है। दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेईसवें तीर्थकर तक चातुर्याम धर्म का उपदेश चला। वेवल भगवान् ऋपभदेव और भगवान महावीर ने पच महावत धर्म का उपदेश दिया। निग्नन्य श्रमणो के सघ भगवान् ऋपभदेव से ही रहे है, किन्तु वे वर्तमान इतिहास की परिधि से परे है। इतिहास की दृष्टि से कौमम्बीजी को मप्रवद्धता सम्वन्धी धारणा सच भी है। भगवान् महावीर संसार जुआ है । उसे · खीचने वाले दो वैल है-जन्म और मौत । संसार का दूसरा पाश्र्व है-मुक्ति । वहाँ जन्म और मौत दोनो नही । वह अमृत है। वह अमरत्व की साधना का माध्य है। मनुष्य किमी साध्य की पूर्ति के लिए जन्म नही लेता । जन्म लेना ससार की अनिवार्यता है। जन्म लेने वाले मे योग्यता होती है, सस्कारो का संचय होता है। इसलिए वह अपनी योग्यता के अनुकूल अपना माव्य चुन लेता है । जिसके जैसा विवेक, उसके वैसा ही साध्य Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] जैन परम्परा का इतिहास और वैसी ही साधना-एक तथ्य है। इसका अपवाद कोई नहीं होता। भगवान महावीर भी इसके अपवाद नही थे। जन्म और परिवार दुषमा सुषमा ( चतुर्थअर ) पूरा होने में ७४ वर्ष ११ महीने ७॥ दिन बाकी थे । ग्रीष्म ऋतु थी। चैत्र का महीना था। शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि की बेला थी । उस समय भगवान महावीर का जन्म हुआ था। यह ई० पूर्व ५६६ की बात है । भगवान् की माता त्रिशला क्षत्रियाणी और पिता सिद्धार्थ थे। वे भगवान पार्श्व की परम्परा के श्रमणोपासक थे । भगवान् की जन्म-भूमि क्षत्रिय कुण्डनाम नगर था । वैशाली, वाणिज्यग्नाम, ब्राह्मण-कुण्डनगर, क्षत्रिय-कुण्डग्राम जन्मभूमि के बारे मे तीन मान्यताए है" । १-श्वेताम्बर मान्यता "प्राचीन मान्यतानुसार लखीसराय स्टेशन से नैऋत्य दक्षिण में १८ मील, सिकन्दरा से दक्षिण मे २ मील, नवादा से पूर्व में ३८ मील औत जमुई से पश्चिम में १४ मील दूर नदी के किनारे लछवाड़ गाँव है, जो लिच्छवियों की भूमि थी। यहाँ जैन पाठशाला है और भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर भी । लछवाड - से दक्षिण में तीन मील पर नदी किनारे कुडेघाट है। वहाँ भगवान महावीर के दीक्षा-स्थान पर दो जैन मन्दिर है और भाया तलहटी भी है। वहाँ से एक देवड़ा की, दो किंदुआ की, एक सकस किया की और तीन चिकना की-ऐसी कुल सात पहाडी घाटियाँ है, जिन्हे पार करने पर ३ मील दूर 'जन्म-स्थान' नामक भूमि है । वहां भगवान महावीर स्वामी का मन्दिर है । चिकना के चढाव से पूर्व मे ६ मील जाने पर लोधापानी नामक स्थान आता है। वहाँ शीतल जल का झरना है, पुराना पक्का कुओं है, पुराने खडहर है और टीला भी, जिसमे से पुरानी गजिया ईटें मिलती है । वास्तव में यही भगवान् महावीर का जन्म स्थान' है। जिसका दूसरा नाम 'क्षत्रियकुड' है। किसी भी कारणवस क्यो न हो पर आज वहाँ पर कोई मन्दिर नही है बल्कि जहाँ मन्दिर है, वहाँ २५० वर्ष पहले भी वह था और उसके पूर्व में ३ कोस पर क्षक्षियकुड-स्थान माना जाता था- यह उस समय की तीर्थ-भूमियो के उल्लेख से बराबर जान सकते है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [२५ से वरावर जान सकते है। अर्थात् लोधापानी का स्थान ही असली क्षत्रियकुड की भूमि है।" २-दिगम्बर-मान्यता कई बातो मे दिगम्बर-सघ, श्वेताम्बर-सघ से विलकुल अलग मत रखता है । वैसे ही कई एक तीर्थ-भूमियो के बारे में भी अपना अलग विचार रखता है। दिगम्बर सम्प्रदाय भगवान् महावीर का जन्म-स्थान कुंडपुर मे मानता है पर उसका अर्थ 'कुंडलपुर' ही करते है। राजगृही व नालन्दा के पास आया कुंडलपुर ही उनकी वास्तविक जन्म-भूमि है । श्वेताम्बर सघ इस कुंडलपुर को 'बडगाँव' के नाम से पहचानता है, जिसके दूसरे नाम गुब्बरगाँव (गुरुवर नाम ) तथा कुंडलपुर है। सवत् १६६४ मे यहाँ पर कुल १६ जिनालय थे, किन्तु आज केवल एक श्वेताम्वर जिनालय, धर्मगाला और उसके वीच का श्री गौतम स्वामी का पादुका-मन्दिर है। दिगम्बर मान्यतानुसार नालन्दा स्टेशन से पश्चिम मे २ मील पर आया कुंडलपुर ही भगवान् महावीर का जन्मस्थान क्षत्रियकुण्ड है । ३-पाश्चात्य विद्वानो की मान्यता "पाश्चात्य सगोवक विद्वद्-वर्ग क्षत्रियकुण्ड के विषय में तीसरा ही मत रखता है। उनका कहना है कि वैशाली नगरी, जिसका वर्तमान मे वेसाउपट्टी नाम है अथवा उसका उपनगर ही वास्तविक क्षत्रियकुण्ड है। सर्व प्रथम उपरोक्त मान्यता को डा० हर्मन जैकोबी तथा डा० ए० एफ० आर० होर्नले आदि ने करार दिया तगा पुरातत्त्ववेत्ता पडित श्री कल्याणविजयजी महाराज एव इतिहास-तत्त्व-महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजी ने एक स्वर से अनुमोदन किया। फलत यह मत सशोधित रूप मे अधिक विश्वसनीय बनता जा रहा है।" कोल्लाग-सन्निवेश- उसके पार्श्ववर्ती नगर और गांव थे। त्रिशला देशाली गणराज्य के प्रमुख चेटक की वहन थी। सिद्धार्थ क्षत्रियकुण्ड ग्राम के अधिपति थे। भगवान के बड़े भाई का नाम नन्दिवर्धन था। उनका विवाह चेटक की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] जैन परम्परा का इतिहास पुत्री ज्येष्ठा के साथ हुआ था । भगवान् के काका का नाम सुपार्श्व और बडी बहन का नाम सुदर्शना था । नाम और गोत्र भगवान् जब त्रिशला के गर्भ में आए, तव से सम्पदाएँ बढ़ी, इसलिए माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा। वर्धमान ज्ञात नामक क्षत्रियकुल मे उत्पन्न हुए, इसलिए कुल के आधार पर उनका नाम ज्ञात-पुत्र हुआ । साधना के दीर्घकाल में उन्होने अनेक कष्टो का वीर-वृत्ति से सामना किया। अपने लक्ष्य से कभी भी विचलित नही हुए। इसलिए उनका नाम महावीर हुआ १० । यही नाम सबसे अधिक प्रचलित है। सिद्धार्थ कश्यप-गोत्रीय क्षत्रिय थे। १ । पिता का गोत्र ही पुत्र का गोत्रहोता है । इसलिए महावीर कश्यप-गोत्रीय कहलाए । यौवन और विवाह बाल-क्रीड़ा के बाद अध्ययन का रामय आता है। तीर्थकर गर्भ-काल से ही अवधि-ज्ञानी होते है। महावीर भी अवधि-ज्ञानी थे१२ | वे पढने के लिए गए। अध्यापक जो पढाना चाहता था, वह उन्हे ज्ञात था। आखिर अध्यापक ने कहा- आप स्वय सिद्ध है। आपको पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यौवन आया। महावीर का विवाह हुआ। वे सहज विरत थे। विवाह करने की उनकी इच्छा नही थी। पर माता-पिता के आग्रह से उन्होने विवाह किया। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार महावीर अविवाहित ही रहे। श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार उनका विवाह क्षत्रिय कन्या यशोदा के साथ हुआ१४ । उनके प्रियदर्शना नाम की एक कन्या हुई१५ । उसका विवाह सुदर्शना के पुत्र ( अपने भानजे ) जमालि के साथ किया'६। उनके एक शेषवती ( दूसरा नाम यशस्वती) नाम की दौहित्री-धेवती हुई | वे गृहस्थी में रहे पर उनकी वृत्तियाँ अनासक्त पी। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [२७ महाभिनिष्क्रमण वे जब २८ वर्प के हुए तव उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । उन्होने तत्काल श्रमण बनना चाहा पर नन्दिवर्धन के आग्रह से वैसा हो न सका। उनने महावीर से घर में रहने का आग्रह किया। वे उसे टाल न सके। दो वर्ष तक फिर घर मे रहे। यह जीवन उनका एकान्त-विरक्तिमय वीता। इस समय उन्होने कच्चा जल पीना छोड दिया, रात्रि-भोजन नही किया और ब्रह्मचारी रहे१९ । ३६ वर्ष की अवस्था ने उनका अभिनिष्क्रमण हुआ। वे अमरत्व की सावना के लिए निकल गए। आज से सब पाप-कर्म अकरणीय है-इस प्रतिज्ञा के साथ वे श्रमग वने२० । नान्ति उनके जीवन का साव्य था। क्रान्ति था उसका सहचर परिणाम । उन्होने वारह वर्ष तक शान्त, मौन और दीर्घ तपस्वी जीवन विताया। साधना और सिद्धि जहाँ हित है, अहित है ही नही-ऐसा धर्म किसने कहा ? जहाँ यथार्थवाद है, अर्थवाद है ही नही-ऐसा धर्म किसने कहा ? यह पूछा-श्रमणो ने, ब्राह्मणो ने, गृहस्थो ने और अन्यान्य दार्शनिको ने जम्बू से और जम्बू ने पूछा सुधर्मा से । यह प्रश्न अहित से तपे और अर्थवाद से ज्बे हुए लोगो का था। जम्बू बोले -गुरुदेव ! मेरो जिज्ञासाएं उभरती आ रही है। लोग भगवान् महावीर के धर्म को गहरी श्रद्धा से सुन रहे है। उनके जीवन के बारे मे वडे कुतूहल भरे प्रश्न पूछ रहे है। उनने मुझमे भी कुतूहल भर दिया है। मैं उनके जीवन का दर्शन चाहता हूँ। आपने उनको निकटता से देखा है, सुना है, निश्चय किया है, इसलिए में आपसे उनके ज्ञान, श्रद्धा और शील के बारे मे कुछ सुनना चाहता हूँ। मुधर्मा बोले-जम्बू । जिस धर्म से दूसरे लोगो को और मुझे महावीर के जीवन-दर्शन की प्रेरणा मिली है, उसका महावीर के पौद्गलिक जीवन से लगाव नही है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] जैन परम्परा का इतिहास आध्यात्मिक जगत् मे ज्ञान, दर्शन, और शील की सगति ही जीवन है। भगवान् महावीर अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शनी और खेदज्ञ थे—यह है उनके यशस्वी जीवन का दर्शन। जो दूसरो के खेद को नही जानता, वह अपने खेद को भी नही जानता। जो दूसरो की आत्मा मे विश्वास नहीं करता, वह अपने आपमे भी विश्वास नहीं करता। भगवान् महावीर ने आत्मा को आत्मा से तोला। वे आत्म-तुला के मूर्त-दर्शन थे। उनने खेद सहा, किन्तु किसी को खेद दिया नही। इसलिए वे खेदज्ञ थे। उनकी खेदज्ञता से धर्म का अजस्र प्रवाह बहा । __ भगवान् महावीर का जीवन घटना-बहुल नही, तपस्या-बहुल है। वे दीर्घ तपस्वी थे। उनका जीवन-दर्शन धर्म का दर्शन है। धर्म उनकी वाणी का प्रवाह नही है । वह उनकी साधना से फूटा है। उनने देखा-ऊपर, नीचे और बीच मे सब जगह जीव है। वे चल भी है और अचल भी। वे नित्य भी है और अनित्य भी। आत्मा कभी अनात्मा नही होती, इसलिए वह नित्य है। पर्याय का विवर्त्त चलता रहता है, इसलिए वह अनित्य है। जन्म और मौत उसीके दो पहलू है। दोनो दुख है, दु ख का हेतु विषमता है। विषमता का बीज है-राग और द्वेष। भगवान् ने समता धर्म का निरूपण किया। उसका मूल है-वीतराग-भाव ।। भगवान् ने सबके लिए एक धर्म कहा। वडो के लिए भी और छोटो के लिए भी। भगवान् ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद आदि सभी वादो को जाना और फिर अपना मार्ग चुना२१ । वे स्वय-सम्बुद्ध थे । भगवान् निग्नन्थ बनते ही अपनी जन्म-भूमि से चल पड़े। हेमन्त ऋतु था । भगवान् के पास केवल एक देव-दूष्य वस्त्र था। भगवान् ने नहीं सोचा कि सर्दी मे मैं वह वस्त्र पहनूंगा। वे कष्ट-सहिष्णु थे। तेरह महीनो तक वह वस्त्र भगवान् के पास रहा। फिर उसे छोड भगवान् पूर्ण अचेल हो गए। वे पूर्ण असनही थे। काटने वाले कीड़े भगवान् को चार महीने तक काटते रहे। लहू पीते और मांस खाते रहे। भगवान् अडोल रहे। वे क्षमा-शूर थे। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ २ भवगान् प्रहर- प्रहर तक किसी लक्ष्य पर आँखे टिका ध्यान करते । उस समय गांव के बाल-बच्चे उबर से आ निकलते और भगवान् को देखते ही हल्ला मचाते, चिल्लाते । फिर भी वे स्थिर रहते । वे ध्यान- लीन थे । भगवान् को प्रतिकूल कण्टो की भांति अनुकूल कण्ट भी सहने पडते भगवान् जव कभी जनाकीर्ण वस्ती में ठहरते, उनके सौन्दर्य से ललचा अनेक ललनायें उनका प्रेम चाहती । भगवान् उन्हें सावना की बावा मान उनसे परहेज करते । वे स्त्र-प्रवेगी ( आत्म-लीन ) थे । 1 तावना के लिए एकान्तवास और मोन—ये आवश्यक है । जो पहले अपने को न साधे, वह दूसरो का हित नही साध सकता । स्वय अपूर्ण पूर्णता का मार्ग नहीं दिखा सकता । भगवान् गृहस्थो से मिलना-जुलना छोड़ ध्यान करते, पूछने पर भी नही वोलते । लोग घेरा डालते तो वे दूसरी जगह चले जाते । कई आदमी भगवान् का अभिवादन करते । फिर भी वे उनसे नही बोलते । कई आदमी भगवान् को मारते-पीटते, किन्तु उन्हें भी वे कुछ नही कहते । भगवान् वैसी कठोरचर्या - जो सबके लिए सुलभ नही हे, मे रम रहे थे । भगवान् असह्य कष्टो को सहते । कठोरतम कण्टो की वे परवाह नही करते । व्यवहार-दृष्टि से उनका जीवन नीरम था । वे नृत्य और गीतो मे जरा भी नही ललचाते | दण्ड-युद्ध, मुष्ठि-युद्ध आदि लडाइयाँ देखने को उत्सुक भी नही होते । सहज आनन्द और आत्मिक चेतन्य जागृत नही होता, तब तक बाहरी उपकरणों के द्वारा आमोद पाने की चेष्टा होती है । जिनके चैतन्य का पर्दा खुल जाता है, सहज सुख का स्रोत फूट पडता है - वे नीरस होते ही नही । वे सदा समरन रहने है । बाहरी माचनो के द्वारा अन्तर के नीरस भाव को सरस बनाने का यत्न करनेवाले भले ही उसका मूल्य न आक सकेँ । भगवान् स्त्री-कथा, भक्त कथा, देश कथा और राज कथा में भाग नही लेते | उन्हें मध्यस्थ भाव से टाल देते । ये सारे कष्ट अनुकूल और प्रतिकूल, जो साधना के पूर्ण विराम है, भगवान् को लक्ष्य च्युत नही कर सके । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०) जैन परम्परा का इतिहास भगवान् ने विजातीय तत्त्वो (पुद्गल-आसक्ति ) को न शरण दी और न उनकी शरण ली । वे निरपेक्ष भाव से जीते रहे । निरपेक्षता का आधार वैराग्य-भावना है । रक्त-द्विष्ट आत्मा के साथ अपेक्षाएँ जुडी रहती है। अपेक्षा का अर्थ है --दुर्बलता । व्यक्ति का सबल और दुर्बल होने का मापदण्ड अपेक्षाओं की न्यूनाधिकता है। भगवान् श्रमण बनने से दो वर्ष पहले ही अपेक्षाओ को ठुकराने लगे। सजीव पानी पीना छोड दिया, अपना अकेलापन देखने लग गए, क्रोध, मान, माया और लोभ की ज्वाला को शान्त कर डाला। सम्यग-दर्शन का रूप निखर उठा। पौद्गलिक आस्थाए हिल गई । भगवान् ने मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और चर जीवो का अस्तित्व जाना । उन्हे सजीव मान उनकी हिसा से विलग हो गए | अचर जीव दूसरे जन्म मे चर और चर जीव दूसरे जन्म मे अचर हो सकते है । राग-द्वेष से बधे हुए सब जीव सब प्रकार की योनियो मे जन्म लेते रहते है। यह संसार रग-भूमि है। इसमे जन्म-मौत का अभिनय होता रहता है । भगवान् ने इस विचित्रता का चिन्तन किया और वे वैराग्य की दृढ भूमिका पर पहुँच गए । भगवान ने ससार के उपादान को ढूढ निकाला। उसके अनुसार उपाधि परिग्रह से बधे हुए जीव ही कर्म-बद्ध होते है। कर्म ही ससार-भ्रमग का हेतु है । वे कर्मो के स्वरूप को जान उनसे अलग हो गए। भगवान् ने स्वय अहिसा को जीवन में उतारा। दूसरो को उसका मार्ग-दर्शन दिया । वासना को सर्व कर्म-प्रवाह का मूल नान भगवान् ने स्त्री-सग छोडा । अहिंसा और ब्रह्मचर्य-ये दोनो साधना के आधारभूत तत्त्व है । अहिसा अवैर साधना है । ब्रह्मचर्य जीवन को पवित्रता है। अवैर भाव के बिना आत्म साम्य की अनुभूति और पवित्रता के बिना विकास का मार्ग-दर्शन नहीं हो सकता । इसलिए भगवान् ने उन पर बडी सूक्ष्म दृष्टि से मनन किया। भगवान् ने देखा-बन्ध कर्म से होता है। उनने पाप को ही नहीं, उसके मूल को ही उखाड फेंका। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [३१ भगवान् अपने लिए बनाया हुआ भोजन नही लेते। वे शुद्ध भिक्षा के द्वारा अपना जीवन चलाते । माहार का विवेक करना अहिंसा और ब्रह्मचर्य - इन दोनो की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । जीव-हिसा का हेतुभूत आहार जैसे सदोष होता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य में बाधा डालने वाला आहार भी सदोप है। आहार की मीमासा मे अहिंसा-विशुद्धि के बाद ब्रह्मचर्य की विशुद्धि की ओर ध्यान देना सहज प्राप्त होता है । भगवान् आहार-पानी की मात्रा के जानकार थे। रस-गृद्धि से वे किनारा करते रहे । वे जीननवार मे नही जाते और दुर्भिक्ष भोजन भी नही लेते । उनने सरस भोजन का सकल्प तक नहीं किया। वे सदा अनासक्त और यात्रा-निर्वाह के लिए भोजन करते रहे । भगवान् ने अनाशक्ति के लिए शरीर को परिचर्या को भी त्याग रखा था। वे खाज नही खनते । आँख को भी साफ नही करते । भगवान् सग-त्याग की दृष्टि से गृहस्य के पात्र मे खाना नही खाते और न उनके वस्त्र ही पहनते । भगवान् का इण्टि-सयम अनुत्तर था । वे चलते समय इधर-उधर नही देखते, पीछे नही देखते, तुलाने पर भी नहीं बोलते, सिर्फ मार्ग को देखते हुए चलते । भगवान् प्रकृति-विजेता थे । वे सर्दी मे नगे वदन घूमते । सर्दी से डरे बिना हाथो को फैला कर चलते । भगवान् अप्रतिवन्ध विहारी थे, परिव्राजक थे । बीचवीच मे शिल्प-गाला, सूना घर, झोपडी, प्रपा, दुकान, लोहकारशाला, विश्राम गृह, आराम-गृह, श्मशान, वृक्ष-मूल आदि स्थानो मे ठहरते । इस प्रकार भगवान् वारह वर्ष और साढे छह मास तक कठोर चर्या का पालन करते हुए आत्मसमाधि में लीन रहे । भगवान् सावना-काल में समाहित हो गए। वे अपने-आप मे समा गए । भगवान् दिन-रात यतमान रहते । उनका अन्त करण सतत क्रियागील या आत्मान्वेपी हो गया। भगवान अप्रमत्त वन गए । वे भय और दोपकारक प्रवृत्तियो से हट सतत जागरूक बन गए। ध्यान करने के लिए समावि ( आत्म-लीनता या चित्त-स्वास्थ्य ), यतना और जागरूकता--ये सहज-अपेक्षित है। भगवान् ने आत्मिक वातावरण को ध्यान के अनुकूल बना लिया। वाहरी वातावरण पर विजय पाना व्यक्ति के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] जैन परम्परा का इतिहास सामर्थ्य की बात है, उसे बदलना उसके सामर्थ्य से परे भी हो सकता है । आत्मिक वातावरण बदला जा सकता है। भगवान् ने इस सामर्थ्य का पूरा उपयोग किया। भगवान ने नीद पर भी विजय पाली। वे दिन-रात का अधिक भाग खड़े रह कर ध्यान मे विताते । विश्राम के लिए थोडे समय लेटते, तब भी नीद नही लेते । जब कभी नीद सताने लगती तो भगवान् फिर खडे होकर ध्यान मे लग जाते । कभी-कभी तो सर्दी की रातो मे घडियो तक बाहर रह कर नीद टालने के लिए ध्यान-मन्न हो जाते। भगवान् ने पूरे साधना-काल मे सिर्फ एक मुहूर्त तक नीद ली। शेष सारा समय ध्यान और आत्म-जागरण मे बीता। भगवान् तितिक्षा की परीक्षा-भूमि थे। चड-कोशिक सॉप ने उन्हे काट खाया। और भी सॉप, नेवले आदि सरीसृप जाति के जन्तु उन्हे सताते । पक्षियो ने उन्हे नोचा। भगवान् को मौन और शून्य गृह-वास के कारण अनेक वष्ट झेलने पडे । ग्राम-रक्षक, राजपुरुष और दुष्कर्मा व्यक्तियो का कोप-भाजन बनना पडा । उनने कुछ प्रसगों पर भगवान् को सताया, यातना देने का प्रयत्न किया। भगवान् अबहुवादी थे । वे प्राय मौन रहते थे। आवश्यकता होने पर भी विशेष नहीं बोलते । एकान्तस्थान में उन्हे खड़ा देख लोग पूछते--तुम कौन हो ? तव भगवान् कभी-कभी बोलते। भगवान् के मौन से चिढ कर वे उन्हें सताते । भगवान् क्षमा-धर्म को स्व-धर्म मानते हुए सब कुछ सह लेते । वे अपनी समाधि ( मानसिक सन्तुलन या स्वास्थ्य ) को भी नही खोते । कभी-कभी भगवान् प्रश्नकर्ता को संक्षिप्त सा उत्तर भी देते । मैं भिक्षु हूँ, यह कह कर फिर अपने ध्यान में लीन हो जाते। देवो ने भी भगवान् को अछूता नही छोडा। उनने भी भगवान् को घोर उपसर्ग दिये । भगवान् ने गन्ध, शब्द और स्पर्श सम्बन्धी अनेक कष्ट सहे । सामान्य बात यह है कि कष्ट किसी के लिए भी इष्ट नही होता । स्थिति यह है कि जीवन मे कष्ट आते है। फिर वे प्रिय लगे या न लगें। कुछ व्यक्ति कष्टो को विशुद्धि के लिए वरदान मान उन्हें हूंस-हँस झेल लेते है। कुछ व्यक्ति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [३३ अवीर हो जाते है। अधीर को कष्ट सहन करना पडता है, धीर कष्ट को सहते है। साधना का मार्ग इससे और आगे है । वहाँ कष्ट निमत्रित किये जाते है। साधनाशील उन्हें अपने भवन का दृढ स्तम्भ मानते है । कष्ट आने पर साधना का भवन गिर न पडे, इस दृष्टि से वह पहले ही उसे कण्टो के खभो पर खडा करता है । जो जान-बूझ कर कण्टो को न्यौता दे, उसे उनके आने पर अरति और न आने पर रति नही हो सकती। अरति और रति-ये दोनो साधना की बाधाएँ है। भगवान् महावीर इन दोनों को पचा लेते थे। वे मध्यस्थ थे। मध्यस्थ वही होता है, जो अरति और रति की ओर न झुके । भगवान् तृण-स्पर्श को सहते । तिनको के आसन पर नगे बदन बैठते और लेटते और नगे पैर चलते तब वे चुभते । भगवान् उनकी चुभन से घबरा कर वस्त्र-धारी नही वने। ___ भगवान् ने गीत-स्पर्श सहा। शिगिर मे जव ठण्डी हवाए फुकारें मारती लोग उनके स्पर्शमात्र से काँप उठते, दूसरे साधु पवन-शून्य (निर्वात ) स्थान की खोज मे लग जाते और कपड़ा पहनने की बात सोचने लगा जाते, कुछ तापस धूनी तप सर्दी से बचते, कुछ लोग ठिठुरते हुए किंवाड को बन्द कर विश्राम करते, वैसी कडी और असह्य सर्दी मे भी भगवान् शरीर-निरपेक्ष होकर खुले वरामदो और कभी-कभी खुले द्वार वाले स्थानो में बैठ उसे सहते । भगवान् ने आतापनाएं ली । सूर्य के सम्मुख होकर ताप सहा । वस्त्र न पहनने के कारण मच्छर व क्षुद्र जन्तु काटते । वे उसे समभाव से सह लेते। भगवान् ने साधना की कसौटी चाही । वे वैसे जनपदो में गए, जहाँ के लोग जैन साधुओं से परिचित नही थे २२ । वहाँ भगवान् ने स्थान और आसन सम्वन्धी कष्टो को हसते-हसते सहा । वहाँ के लोग रूक्ष-भोजी थे, इसलिए उनमे क्रोध की मात्रा अधिक थी। उसका फल भगवान् को भी सहना पड़ा। भगवान् वहाँ के लिये पूर्णतया अपरिचित थे, इसलिए कुत्ते भी उन्हें एक ओर से दूसरी ओर सुविधापूर्वक नही जाने देते । बहुत सारे कुत्ते भगवान् को घेर लेते । तब कुछ एक व्यक्ति ऐसे थे, जो उनको हटाते। बहुत से लोग ऐसे थे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] जैन परम्परा का इतिहास जो कुत्तो को भगवान् को काटने के लिए प्रेरित करते । वहाँ जो दूसरे श्रमण थे, वे लाठी रखते, फिर भी कुत्तो के उपद्रव से मुक्त नही थे । भगवान् के पास अपने बचाव का कोई साधन नही था, फिर भी वे शान्तभाव से वहाँ धूमते रहे। भगवान् का संयम अनुत्तर था । वे स्वस्थ दशा में भी अवमौदर्य करते ( कम खाते ), रोग होने पर भी वे चिकित्सा नहीं करते, औपध नही लेते। वे विरेचन, वमन, तैल-मर्दन, स्नान, दतौन आदि नही करते । उनका पथ इन्द्रिय के कांटो से अबाध था। कम खाना और औषध न लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है । भगवान् ने वह स्वास्थ्य के लिए नही किया । वे वही करते जो आत्मा के पक्ष में होता । उनकी सारी कठोरचर्या आत्म-लक्षी-थी। अन्न-जल के बिना दो दिन, पक्ष, मास, छह मास बिताए । उत्क्टक, गोदोहिका आदि आसन किए, ध्यान किया, कपाय को जीता, आसक्ति को जीता, यह सब निरपेक्ष भाव से किया । भगवान् ने मोह को जीता, इसलिए वे 'जिन' कहलाए । भगवान् की अप्रमत्त साधना सफल हुई। ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था । शुक्ल दशमी का दिन था । छाया पूर्व की ओर ढल चुकी थी। पिछले पहर का समय, विजय मुहूर्त और उत्तरा-फाल्गुनी का योग था । उस वेला में भगवान् महावीर जभियग्नाम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे श्याम गाथापति की कृषि-भूमि मे व्यावृत नामक चैत्य के निकट, शाल-वृक्ष के नीचे 'गोदोहिका' आसन में बैठे हुए ईशानकोण की ओर मुह कर सूर्य का आताप ले रहे थे। __दो दिन का निर्जल उपवास था । भगवान् शुक्ल ध्यान में लीन थे । ध्यान __ का उत्कर्ष वढा । खपक श्रेणी ली । भगवान् उत्क्रान्त बन गए। उत्क्रान्ति के कुछ ही क्षणो मे वे आत्म-विकास की आठ, नौ ओर दशवी भूमिका को पार कर गये। बारहवी भूमिका में पहुंचते ही उनके मोह का बन्धन पूर्णा शतः टूट गया। वे वीतराग बन गए । तेरहवी भूमिका का प्रवेश-द्वार खूला । वहाँ ज्ञानावरण, दर्शना वरण और अन्तराय के सम्बन्ध भी पूर्णतः टूट पड़े। भगवान् अब अनन्त ज्ञानी, अनन्त-दर्शनी और अनन्त-वीर्य बन गए। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ३५ " अव वे सर्व लोक के, सर्व जीवो के सर्वभाव जानने-देखने लगे । उनका साधना-काल समाप्त हो चुका । अव वे सिद्धि-काल की मर्यादा मे पहुंच गए २३| तेरहवें वर्ष के सातवें महीने मे केवली बन गए । तीर्थ - प्रवर्त्तन भगवान् ने पहला प्रवचन देव परिपद् मे किया । देव अति विलासी होते है । वे व्रत और सयम स्वीकार नही करते । भगवान् का पहला प्रवचन निष्फल हुआ । と -- भगवान् जभियग्राम नगर से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे । वहाँ सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट् यज्ञ आयोजन कर रखा था । उस अनुष्ठान की पूर्ति के लिए वहाँ इन्द्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आये हुए थे२५ । भगवान् को जानकारी पा उनमे पाण्डित्य का भाव जागा । इन्द्रभूति उठे । भगवान् को पराजित करने लिए वे अपनी शिष्य-सम्पदा के साथ भगवान् के समवसरण में आये । उन्हें कई जीव के बारे मे सन्देह था । भगवान् ने उनके गूढ प्रश्न को स्वय सामने ला रखा । इन्द्रभूति सहम गए । उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ । उनकी अन्तर आत्मा भगवान् के चरणो मे झुक गई | भगवान् ने उनका सन्देह-निवर्तन किया । वे उठे, नमस्कार किया और श्रद्धापूर्वक भगवान् के शिष्य बने । भगवान् ने उन्हें छह जीव- निकाय, पांच महाव्रत और पच्चीस भावनाओ का उपदेश दिया २६ । इन्द्रभूति गौतम गोत्री थे । जैन साहित्य मे इनका सुविश्रुत नाम गौतम है । भगवान् के साथ इनके सम्वाद और प्रश्नोत्तर इसी नाम से उपलब्ध होते है । वे भगवान् के पहले गणधर और ज्येष्ठ शिष्य बने । भगवान् ने उन्हें श्रद्धा का सम्बल तर्क का वल दोनो दिए । जिज्ञासा की जागृति के लिए भगवान् ने कहा "जो सशय को जानता है, वह ससार को जानता है, जो सशय को नहीं जानता, वह ससार को नही जानता ७ ” २ इसी प्रेरणा के फलस्वरूप उन्हे जब-जब सराय हुआ, कुतूहल हुआ, श्रद्धा हुई भगवान् के पास पहुँचे और उनका समाधान लिया । ८ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] जैन परम्परा का इतिहास तर्क के साथ श्रद्धा को संतुलित करते हुए भगवान् ने कहा- गौतम । कई व्यक्ति प्रयाण की वेला मे श्रद्धाशील होते है और अन्त तक श्रद्धाशील ही बने रहते है। कई प्रयाण की वेला में श्रद्धाशील होते है किन्तु पीछे अश्रद्धाशील बन जाते है। कई प्रयाण की बेला में सन्देहशील होते है किन्तु पीछे श्रद्धाशील बन जाते है। जिसकी श्रद्धा असम्यक होती है, उसमे अच्छे या बुरे सभी तत्त्व असम्यक् परिणत होते है। . जिसकी श्रद्धा सम्यक् होती है, उसमें सम्यक् या असम्यक् सभी तत्त्व सम्यक् परिणत होते है२९ । इसलिए गौतम | तू श्रद्धाशील बन । जो श्रद्धाशील है, वही मेधावी है। ___ इन्द्रभूति की घटना सुन दूसरे पडितो का क्रम बध गया। एक-एक कर वे सब आये और भगवान् के शिष्य बन गये। उन सब के एक-एक सन्देह था । भगवान् उनके प्रच्छन्न सन्देह को प्रकाश में लाते गए और वे उसका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए। इस प्रकार पहले प्रवचन मे ही भगवान् की शिष्य सम्पदा समृद्ध हो गई। ____ भगवान् ने इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् शिष्यो को गणधर पद पर नियुक्त किया और अब भगवान् का तीर्थ विस्तार पाने लगा। स्त्रियो ने प्रवज्या ली। साध्वी सघ का नेतृत्व चन्दनबाला. को सौपा । आगे चलकर १४ हजार साधु और ३६ हजार साध्वियों हुई । स्त्रियो को साध्वी होने का अधिकार देना भगवान् महावीर का विशिष्ट मनोबल था। इस समय दूसरे धर्म के आचार्य ऐसा करने में हिचकते थे । आचार्य विनोबा भावे ने इस प्रसग का बड़े मार्मिक ढग से स्पर्श किया है उनके शब्दो में-"महावीर के सम्प्रदाय में-स्त्री-पुरुषो का किसी प्रकार कोई भेद नहीं किया गया है। पुरुषो को जितने अधिकार दिए गए है, वे सब अधिकार बहनो को दिए गए थे। मैं इन मामूली अधिकारो की बात नही करता हूँ, जो इन दिनो चलता है और जिनकी चर्चा आजकल बहुत चलती Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ३७ अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता भी महसूस नही हुई है । उस समय ऐसे होगी । परन्तु मैं तो आध्यात्मिक अधिकारो की बात कर रहा हूँ । पुरुपो को जितने आध्यात्मिक अधिकार मिलते है, उतने ही स्त्रियो को भी अधिकार हो सकते है । इन आध्यात्मिक अधिकारो मे महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नही रखो, जिसके परिणाम स्वरूप उनके शिष्यो मे जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियाँ थी । वह प्रया आज तक जैन धर्म मे चली आई है । आज भी जैन सन्यासिनी होती हे । जैन धर्म मे यह नियम है कि सन्यासी अकेले नही घूम सकते है । दो से कम नहीं, ऐसा सन्यासी और सन्यासिनियो के लिए नियम है । तदनुसार दो-दो वहने हिन्दुस्तान में घूमती हुई देखते है । विहार, मारवाड, गुजरात, कोल्हापुर, कर्नाटक और तमिलनाड की तरफ इस तरह घूमती हुई देखने को मिलती है, यह एक बहुत बडी विशेषता माननी चाहिए । महावीर के पीछे ४० ही साल के बाद गौतम बुद्ध हुए, जिन्होने स्त्रियो को सन्यास देना उचित नही माना । स्त्रियो को सन्यास देने मे धर्म- मर्यादा नही रहेगी, ऐसा अन्दाजा उनको था । लेकिन एक दिन उनका शिष्य आनन्द एक बहन को ले आया और बुद्ध भगवान् के सामने उसे उपस्थित किया और वुद्ध भगवान् से कहा कि "यह वहन आपके उपदेश के लिए सर्वथा पात्र है, ऐसा मैंने देख लिया है | आपका उपदेश अर्थात् सन्यास का उपदेश इसे मिलना चाहिए ।" तो वृद्ध भगवान् ने उसे दीक्षा दी । और बोले कि - " हे आनन्द, तेरे आग्रह और प्रेम के लिए यह काम में कर रहा हूँ । लेकिन इससे अपने सम्प्रदाय के लिए एक वडा खतरा मैंने उठा लिया है ।" ऐसा वाक्य बुद्ध भगवान् ने कहा और वैसा परिणाम वाद मे आया भी । वौद्धो के इतिहास मे बुद्ध को जिस खतरे का अन्देशा था, वह पाया जाता है । यद्यपि बोद्ध धर्म का इतिहास पराक्रमगोली है । उसमे दोप होते हुए भी वह देश के लिए अभिमान रखने के लायक है । लेकिन जो डर बुद्ध को था वह महावीर को नही था, यह देखकर आश्चर्य होता है । महावीर निडर दीख पड़ते हे । इसका मेरे मन पर बहुत असर है । इसीलिए मुझे महावीर की तरफ विशेष आकर्षण है । बुद्ध की महिमा भी बहुत है । सारी दुनिया Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास मे उनकी करुणा की भावना फैल रही है, इसीलिए उनके व्यक्तित्व में किसी प्रकार को न्यूनता होगी, ऐसा मैं नही मानता हूँ। महापुरुषो की भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ होती है, लेकिन कहना पड़ेगा कि गौतम बुद्ध को व्यावहारिक भूमिका छू सकी और महावीर को व्यावहारिक भूमिका छू नही सकी। उन्होने स्त्री-पुरुषो मे तत्त्वतः भेद नही रखा । वे इतने दृढप्रतिज्ञ रहे कि मेरे मन में उनके लिए एक विशेष ही आदर है । इसी मे उनकी महावीरता है। रामकृष्ण परमहंस के सम्प्रदाय में स्त्री सिर्फ एक ही थी और वह थी श्री शारदा देवी, जो रामकृष्ण परमहस की पली थी और नाममात्र की ही पत्नी थी । वैसे तो वह उनकी माता ही हो गई थी और सम्प्रदाय के सभी भाइयो के लिए वह मातृ-स्थान में ही थी । परन्तु उनके सिवा और किसी स्त्री को दीक्षा नही दी गई। ____ महावीर स्वामी के बाद २५०० साल हुए, लेकिन हिम्मत नही हो सकती थी कि बहनो को दीक्षा दे । मैंने सुना कि चार साल पहले रामकृष्ण परमहस मठ मे स्त्रियो को दीक्षा दी जाय - ऐसा तय किया गया। स्त्री और पुरुष का आश्रम अलग रखा जाय, यह अलग बात है लेकिन अब तक स्त्रियो को दीक्षा ही नही मिलती थी, वह अब मिल रही है । इस पर से अंदाज लगता है कि महागीर ने २५०० साल पहले उसे करने में कितना बड़ा पराक्रम किया । ___गृहस्य उपासक और उमासिकाएँ, श्रावक और श्राविकाएँ कहलाए । आनन्द आदि १० प्रमुख श्रावक बने । ये बारह नती थे। इनकी जीवन-चर्या का वर्णन करने वाला एक अग ( उपासक दशा ) है । जयन्ती आदि श्राविकाएँ थी, जिनके प्रौढ़ तत्त्व-ज्ञान को सूचना भगवती से मिलती है 3° । धर्म-आराधना के लिए भगवान का तीर्थ सचमुच तीर्थ बन गया । भगवान् ने तीर्थ चतुष्टय ( साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका ) को स्थापना की, इसलिए वे तीर्थंकर कहलाए। श्रमण-संघ-व्यवस्था भगवान ने श्रमण-सघ की बहुत ही सुदृढ़ व्यवस्था की। अनुशासन की Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [३६ दृष्टि से भगवान् का संघ सर्वोपरि था। पांच महाव्रत और व्रत-ये मूल गुण थे। इनके अतिरिक्त उत्तर गुणो की व्यवस्था की। विनय, अनुशासन और आत्म-विजय पर अधिक बल दिया। व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण-संघ को ११ या ६ भागो मे विभक्त किया । पहले सात गणधर सात गणो के और आठवें, नवे, दगवे, तथा ग्यारहवें क्रमश आठवें और नवें गण के प्रमुख थे। ___ गणो की सारणा-वारणा और शिक्षा दीक्षा के लिए पद निश्चित किए। (१) आचार्य (२) उपान्याय (३) स्थविर (४) प्रवर्तक (५) गणी (६) गणधर (७) गणावच्छेदक। सूत्र के अयं की वाचना देना और गण का सर्वोपरि सचालन का कार्य आचार्य के जिम्मे था। सूत्र की वाचना देना, शिक्षा की वृद्धि करना उपाध्याय के जिम्मे था। श्रमणो को सयम मे स्थिर करना, श्रामण्य से डिगते हुए श्रमणो को पुनः स्थिर करना, उनकी कठिनाइयो का निवारण करना स्थविर के जिम्मे था। आचार्य द्वारा निर्दिष्ट धर्म-प्रवृत्तियो तथा सेवा-कार्य मे श्रमणो को नियुक्त करना प्रवर्तक का कार्य था । श्रमणो के छोटे-छोटे समूहो का नेतृत्व करना गगी का कार्य था। श्रमणो की दिनचर्या का ध्यान रखना-गणघर का कार्य आ। धर्म-शासन भी प्रभावना करना, गण के लिए विहार व उपकरणो की खोज तथा व्यवस्था करने के लिए कुछ साघुओ के माथ सघ के आगे-आगे चलना, गण की सारी व्यवस्था की चिन्ता करत्रा गणावच्छेदक का कार्य था ३४ | इनकी योग्यता के लिए विशेप मानदण्ड स्थिर किए। इनका निर्वाचन नही होता था। ये आचार्य द्वारा नियुक्त किए जाते थे। किन्तु स्थविरो की सहमति होती थी 3५॥ निर्वाण भगवान् तीस वर्ष की अवस्था मे श्रमण वने । साढे वारह वर्ष तक तपस्वी जीवन विताया। तीस वर्ष तक धर्मोपदेश किया। भगवान् ने काशी, कोशल, पचाल, कलिग, कम्बोज, कुरु-जांगल, वाहलीक, गांधार, सिंधु सौवीर आदि देशो मे विहार किया। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] जैन परम्परा का इतिहास भगवान् के चौदह हजार साधु और ३६ हजार साध्वियाँ बनी। नन्दी के अनुसार भगवान् के चौदह हजार साधु प्रकीर्णकार थे ३६, इससे जान पडता है, सर्व साधुओ की सख्या और अधिक हो। १ लाख ५६ हजार श्रावक ३७ और ३ लाख १८ हजार श्राविकाएं थी 3८। यह व्रती धावक श्राविकाओ की सख्या प्रतीत होती है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालो की सख्या इससे अधिक थी, ऐसा सम्भव है। भगवान् के उपदेश का समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ। उनका क्रान्ति-स्वर समाज के जागरण का निमित्त बना। उसका विवरण इसी खण्ड के अन्तिम अध्याय मे मिल सकेगा। वि० पू० ४७० ( ई० पू० ५२७ ) पावापुर मे कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान् का निर्वाण हुआ। उत्तरवर्ती संघ-परम्परा भगवान के निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी-ये दो.. आचार्य वेवली हुए। प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतिवजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र-ये छह आचार्य 'श्रुत-केवली' हुए ३९ (१) महागिरि (२) सुहस्ती () गुणसुन्दर (४) कालकाचार्य (५) स्कन्दिलाचार्य (६) रेवतिमित्र (७) मगु (८) धर्म (९) चन्द्रगुप्त (१०) आर्यवन-ये दस पूर्वधर हुए। तीन प्रधान परम्पराएँ - (१) गणधर-वश । (२) वाचक-वंश-विद्याधर-वश (३) युग-प्रधान आचार्य सुहस्ती तक के आचार्य गणनायक और वाचनाचार्य वोनो होते थे। वे गण की सार-सम्हाल और गण की शैक्षणिक व्यवस्था-इन दोनो के उत्तरदायित्वो को निभाते थे। आचार्य सुहस्ती के बाद ये कार्य विभक्त हो गए। चारित्र की रक्षा करने वाले 'गणाचार्य' और श्रुतज्ञान की रक्षा करने वाले 'वाचनाचार्य' कहलाए। गणाचार्यो की परम्परा ( गणधरवश ) अपने २ गण के गुरू-शिष्य क्रम से चलती है। वाचनाचार्यो और युग-प्रधानो की परम्परा एक ही गण से सम्बन्धित नही है। जिस किसी भी गण या शाखा में Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [४१ एक के बाद दूसरे समर्थ वाचनाचार्य व युग-प्रधान आचार्य हुए है, उनका क्रम जोडा गया है। आचार्य सुहस्ती के बाद भी कुछ आचार्य गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनो हुए है । जो आचार्य विशेप लक्षण-सम्पन्न और अपने युग मे सर्वोपरि प्रभावशाली हुए, उन्हे युग-प्रधान माना गया । वे गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनो मे से हुए है। हिमवंत की स्थविरावलि के अनुसार वाचक-वश या विद्याधर-वश की परम्परा इस प्रकार है४० । (१) आचार्य सुहस्ती (२) आर्य बहुल और वलिसह (३) आचार्य ( उमा ) स्वाति (४) आचार्य श्यामाचार्य (५) आचार्य सांडिल्य या स्कन्दिल (वि० स० ३७६ से ४१४ तक युग-प्रधान) (६) आचार्य समुद्र (७) आचार्य मगुसूरि (८) आचार्य नन्दिलसूरि (E) आचार्य नागहस्तीसूरि (१०) आचार्य रेवतिमित्र (११) आचार्य सिंहसूरि (१२) आचार्य स्कन्दिल ( वि० स० ८२६ वाचनाचार्य ) (१३) आचार्य हिमवन्त क्षमाश्रमण (१४) आचार्य नागार्जुनसूरि (१५) आचार्य भूतदिन्न (१६) आचार्य लोहित्यमूरि (१७) आचार्य दुष्यगणी ( नन्दी सूत्र मे इतने ही नाम है ) (१८) आचार्य देववाचक ( देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ) (१६) आचार्य कालिकाचार्य ( चतुर्थ) (२०) आचार्य सत्यमित्र (अन्तिम पूर्वविद् ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ४२ ] जैन परम्परा का इतिहास दुस्सम-काल-समण-संघत्थव और विचार-श्रेणी के अनुसार 'युग-प्रधान पट्टावली' और समय : (१) आचार्यों के नाम समय ( वीर निर्वाण से) १-गणधर सुधर्मा स्वामी १ से २० ६-आचार्य जम्बू स्वामी २० से ६४ ३ - आचार्य प्रभव स्वामी ६४ से ७५ ४- आचार्य शय्यभवसूरि ७५ से १८ ५---आचार्य यशोभद्रसूरि ६-आचार्य संभूतिविजय १४८ से १५६ ७-आचार्य भद्रबाहु स्वामी १५६ से १७० ८-आचार्य स्थूलभद्र १७० से २१५ -आचार्य महागिरि २१५ से २४५ १०- आचार्य सुहस्तिसूरि २४५ से २६१ ११-आचार्य गुणमुन्दरसूरि २६१ से ३३५ १२-आचार्य श्यामाचार्य ३३५ से ३७६ १३-आचार्य स्कन्दिल ३७६ से ४१४ १४---आचार्य रेवतिमित्र ४१४ से ४५० १५-~-आचार्य धर्मसूरि ४५० से ४६५ १६-आचार्य भद्रगुप्तसूरि ४६५ से ५३३ १७-आचार्य श्री गुप्तसूरि ५३३ से ५४८ १८-आचार्य वज्रस्वामी ५४८ से ५८४१६-आचार्य आर्यरक्षित ५८४ से ५६७ २०-आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ५९७ से ६१७ २१-आचार्य वज्रसेन सूरि ६१७ से ६२० २२-आचार्य नागहस्ती ६२० से ६८६ २३- आचार्य रेवतिमित्र ६८६ से ७४८ २४-आचार्य सिंहमूरि ७४८ से १२६ २५-आचार्य नागार्जुनसूरि ८२६ से १०४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास २६-आचार्य भूतदिन्न सूरि ९०४ से ६८३ २७-आचार्य कालिक सूरि ( चतुर्थ ) ९८३ से १६४ २८-आचार्य सत्यमित्र ६६४ से १००० २६-आचार्य हारिल्ल १००० से १०५५ ३०-आचार्य जिनभद्रगगि-क्षमाश्रमण १०५५ से १११५ ३१--आचार्य ( उमा ) स्वाति सूरि १११५ से ११६० ३२-आचार्य पुष्यमित्र ११६० से १२५० ३३-आचार्य सभूति १२५० से १३०० ३४~-आचार्य माठर सभूति १३०० से १३६० ३५---आचार्य धर्म-ऋपि १३६० से १४०० ३६-आचार्य ज्येष्ठांगगणी १४०० से १४७१ ३७-आचार्य फल्गुमित्र १४७१ से १५२० ३८-आचार्य धर्मघोप १५२० से १५९८ (२) वालभी-युगप्रधान-पट्टावली १-आर्य सुधर्मा स्वामी २-आचार्य जम्बू स्वामी ४४ वर्ष ३–आचार्य प्रभव स्वामो ४=आचार्य शव्यभव २३ वर्ष ५-नाचार्य यशोभद्र ५० वर्प ६-आचार्य सम्भूतिविजय ७-आचार्य भद्रबाहु १४ वर्ष -आचार्य स्थूलभद्र ४६ वर्ष ६-आचार्य महागिरि ३० वर्प १०-आचार्य सुहस्ती ४५ वर्प ११-आचार्य गुणसुन्दर ४४ वर्ष १२-आचार्य कालकाचार्य ४१ वर्ष १३-आचार्य स्कन्दिलाचार्य १४-आचार्य रेवतिमित्र २० वर्ष ११ वर्ष ८ वर्ष ३८ वर्ष ३६ वर्ष Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ४४ ] जैन परम्परा का इतिहास १५--आचार्य मंगु २० वर्ष १६-आचार्य धर्म २४ वर्ष १७-आचार्य भद्रगुप्त ४१ वर्ष १८-आचार्य आर्यवज्र ३६ वर्प १९-आचार्य रक्षित २०-आचार्य पुष्यमित्र २१-आचार्य वज्रसेन २२-आचार्य नागहस्ती २३-आचार्य रेवतिमित्र २४-आचार्य सिंहसूरि ७८ वर्ष २५---आचार्य नागार्जुन ७८ वर्प २६-आचार्य भूतदिन्न ७६ वर्ष २७-आचार्य कालकाचार्य ११ वर्ष कुल ६८१ वर्ष (३) माथुरी-युगप्रधान-पट्टावली १–आर्य सुधर्मा स्वामी १४---आचार्य सांडित्य २--आचार्य जम्बू स्वामी १५-आचार्य समुद्र ३-आचार्य प्रभव स्वामी १६-आचार्य मंगु ४-आचार्य शय्यभव १७-आचार्य आर्यधर्म ५-आचार्य यशोभद्र १८=आचार्य भद्रगुप्त ६-प्राचार्य सम्भूत विजय १६-आचार्य वज्र ७-आचार्य भद्रवाहु २०-आचार्य रक्षित ८-आचार्य स्थूलभद्र २१-आचार्य आनन्दिल E-आचार्य महागिरि २२-आचार्य नागहस्ती १०-आचार्य सुहस्ती २३--आचार्य रेवतिमित्र ११-आचार्य बलिसह २४---आचार्य ब्रह्म-दीपक सिंह १२-आचार्य स्वाति २५-आचार्य स्कन्दिलाचार्य १३-आचार्य श्यामाचार्य २६--आचार्य हिमवत Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [४५ २७-आचार्य नागार्जुन ३०--आचार्य लौहित्य २८-आचार्य गोविन्द ३१-आचार्य दूष्यगणि २६-आचार्य भूतदिन्न ३२-आचार्य देवद्धिगणि सम्प्रदाय भेद (निह्नव विवरण) विचार का इतिहास जितना पुराना है, लगभग उतना ही पुराना विचारभेद का इतिहास हे । विचार व्यक्ति-व्यक्ति की ही उपज होता है, किन्तु सघ मे रुड होने के बाद सघीय कहलाता है। तीर्थकर वाणी जैन-सघ के लिए सर्वोपरि प्रमाण है । वह प्रत्यक्ष दर्शन है, इसलिए उसमे तर्क की कर्कशता नही है। वह तर्क से बाधित भी नही है । वह सूत्र-रूप है। उसकी व्याख्या मे तर्क का लचीलापन आया है। भाष्यकार और टीकाकार प्रत्यक्षदर्शी नही थे। उन्होने सूत्र के आगय को परम्परा से समझा। कही समझ में नहीं आया, हृदयगम नही हुआ तो अपनी युक्ति और जोड़ दी। लम्बे समय मे अनेक सम्प्रदाय बन गए। श्वेताम्बर और दिगम्बर जैसे शासन भेद हुए। भगवान् महावीर के समय मे कुछ श्रमण वस्त्र पहनते, भी कुछ नही पहनते । भगवान् स्वय वस्त्र नही पहनते थे। वस्त्र पहनने से मुक्ति होती ही नही या वस्त्र नही पहनने से ही मुक्ति होती है, ये दोनो बाते गौण है---मुख्य बात है---राग द्वेप से मुक्ति । जैन परम्परा का भेद मूल तत्त्वो की अपेक्षा जारी वातो या गोण प्रश्नो पर अधिक टिका हुआ है। ___ गोगालक जैन-परम्परा से सर्वथा अलग हो गया, इसलिए उसे निह्नव नहीं माना गया। थोडे से मत-भेद को लेकर जो जैन शासन से अलग हुए, उन्हें निह्नव माना गया । बहुरतवाद (१) जमाली पहला निह्नव था । वह क्षत्रिय-पुत्र और भगवान् महावीर का दामाद था । माँ-बाप के अगाध प्यार और अतुल ऐश्वर्ग को ठुकरा वह निर्गन्य वना । भगवान् महावीर ने स्वय उसे प्रव्रजित किया । पाँच सौ व्यक्ति उसके साथ थे। मुनि जमाली अव आगे बढने लगा। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना मे अपने-आप को लगा दिया। सामायिक आदि ग्यारह अग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] जैन परम्परा का इतिहास पढे । विचित्र तप-कर्म - उपवास, बेला, तेला यावत्' अर्द्ध मास और मास की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगा। एक दिन की बात है, ज्ञानी और तपस्वी जमाली भगवान् महावीर के पास आया। वन्दना की, नमस्कार किया और बोला-भगवन् । मैं आपकी अभ्यनुज्ञा पा कर पाँच सौ निग्नन्थो के साथ जनपद विहार करना चाहता हूँ। भगवान् ने जमाली की बात सुनली । उसे आदर नही दिया । मौन रहे । जमालो ने दुबारा और तिबारा अपनी इच्छा को दोहराया। भगवान् पहले की भॉति मौन रहें । जमाली उठा । भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया। बहुशाला नामक चैत्य से निकला। अपने साथी पाँच सौ निग्नन्यो को ले भगवान से अलग विहार करने लगा। श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य मे जमाली ठहरा हुआ था। सयम और तप की साधना चल रही थी। निग्न न्य-शासन की कठोरचर्या और वैराग्यवृद्धि के कारण वह अरस-विरस, अन्त-प्रान्त, रूखा-सूखा, कालातिक्रान्त, प्रमाणातिक्रान्त आहार लेता। उससे जमाली का शरीर रोगातक से घिरा गया। उज्ज्वल - विपुल वेदना होने लगी। कर्कश-कटु दु.ख उदय मे आया। पित्तज्वर से शरीर जलने लगा। घोरतम वेदना से पीड़ित जमाली ने अपने साधुओ से कहा-देवानुप्रिय । बिछौना करो। साधुओ ने विनयावनत हो उसे स्वीकार किया। बिछौना करने लगे। वेदना का वेग बढ रहा था। एक-एक पल भारी हो रहा था। जमाली ने अधीर स्वर से पूछा-मेरा बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो? श्रमणो ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय । आपका बिछौना किया नही, किया जा रहा है। दूसरी बार फिर पूछा-देवानुप्रिय । बिछौना किया या कर रहे हो ? श्रमण निग्नन्थ होले-देवानुप्रिय ! आपका बिछौना किया नही, किया जा रहा है। इस उत्तर ने वेदना से अधीर बने जमाली को चौका दिया। शारीरिक वेदना की टक्कर से सैद्धान्तिक धारणा हिल उठी। विचारो ने मोड़ लिया । जिमाली सोचने लगा--भगवान् चलमान को चलित, उदीर्यमाण को उदरित यावत् नि|र्यमाण को निर्जीर्ण कहते है, वह मिथ्या है। यह सामने दिख रहा है । मैरा बिछौना बिछाया जा रहा है, किन्तु बिछा नही है । इसलिए क्रियमाण अकृत, सस्तीर्णमाण असंस्तृत है Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [४७ किया जा रहा है किन्तु किया नही गया है, विछाया जा रहा है किन्तु बिछा नहीं है—का सिद्धान्त सही है । इसके विपरीत भगवान् का क्रियमाण कृत और संस्तीर्यमाण सस्तृत-करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया, वह विछा लिया गया-यह सिद्धान्त गलत है । चलमान को चलित, यावत् निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण मानना मिथ्या है । चलमान को अचलित यावत् निर्जीयमाण को अनिर्जीर्ण मानना सही है। बहुरतवाद-कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्ण कहना ही यथार्य है । इस सैद्धान्तिक उथल-पुथल ने जमाली की शरीर वेदना को निर्वीर्य बना दिया । उसने अपने साधुओ को बुलाया और अपना सारा मानसिक आन्दोलन कह सुनाया । श्रमणो ने आश्चर्य के साथ सुना। जमाली भगवान् के सिद्धान्त को मिथ्या और अपने परिस्थिति-जन्य अपरिपक्व विचार को सत्य बता रहा है । माथे-माथे का विचार अलग-अलग होता है। कुछेक श्रमको को जमाली का विचार रुचा, मन को भाया, उस पर श्रद्धा जमी। वे जमाली की शरण में रहे । कुछ एक जिन्हे जमाली का विचार नही जचा, उस पर श्रद्धा या प्रतीति नही हुई, वे भगवान् की शरण मे चले गए । थोड़ा समय वीता । जमाली स्वस्थ हुआ । श्रावस्ती से चला । एक गांव से दूसरे गांव विहार करने लगा । भगवान् उन दिनो चम्मा के पूर्णभद्र-चैत्य मे विराज रहे थे । जमाली वहाँ आया। भगवान् के पास बैठकर बोला-देवानुप्रिय ! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञ-दशा में गुरुकुल से अलग होते है (छदमस्थापक्रमण करते है ) । वैसे मैं नही हुआ हूँ। मैं सर्वज्ञ ( अर्हत्, निन, केवली ) होकर आप से अलग हुआ हूँ। जमाली को यह बात सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम स्वामी बोले-जमाली । सज्ञ का ज्ञान-दर्शन शैल-स्तम्भ और स्तूप से रुद्ध नहीं होता। जमाली ! यदि तुम सर्वज्ञ होकर भगवान् से अलग हुए हो तो लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? इन दो प्रश्नो का उत्तर दो । गौतम के प्रश्न सुन वह शकित हो गया। उनका यथार्थ उत्तर नही दे सका। मौन हो गया। भगवान् बोले-'जमाली । मेरे अनेक छद्मस्थ शिष्य भी मेरी भांति प्रश्नो का उत्तर देने में समर्थ है। किन्तु तुम्हारी भांति अपने आपको सर्वज्ञ कहने मे समर्य नही है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] जैन परम्परा का इतिहास जमाली ! यह लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । लोक कभी नहीं था, नही है, नही होगा-ऐसा नही है । किन्तु यह था, है और रहेगा । इसलिए यह शाश्वत है। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी होती है। उत्सर्पिणी के बाद फिर अवसर्पिणी-इस काल-चक्र की दृष्टि से लोक अशाश्वत है। इसी प्रकार जीव , भी शाश्वत और अशाश्वत दोनो है । कालिक सत्ता की दृष्टि से वह शाश्वत है। वह कभी नैरयिक बन जाता है, कभी तिर्यञ्च, कभी मनुष्य और कभी देव । इस रूपान्तर की दृष्टि से वह अशाश्वत है ।” जमाली ने भगवान् की बातें सुनी पर वे अच्छी नही लगी। उन पर श्रद्धा नही हुई । वह उठा, भगवान् से अलग चला गया । मिथ्या-प्ररूपणा करने लगा-झूठी बातें कहने लगा । मिथ्या-अभिनिवेश (एकान्त आग्रह ) से वह आग्रही बन गया । दूसरो को भी आग्नही बनाने का जी भर जाल रचा । बहुतो को झगडाखोर बनाया। इस प्रकार की चर्चा चलती रही। लम्बे समय तक श्रमण वेश मे साधना की । अन्त काल में एक पक्ष की सलेखना की । तीस दिन का अनसन किया । किन्तु मिथ्या-प्ररूपणा या झूठे आग्रह को आलोचना नही की, प्रायश्चित्त नही किया । इसलिए आयु पूरा होने पर वह लान्तककल्प (छठे देव लोक) के नीचे किल्विषिक ( निम्न श्रेणी का ) देव बना । गौतम ने जाना-जमाली मर गया है । वे उठे। भगवान के पास आये, वन्दना-नमस्कार कर बोले- भगवान् । आपका अन्तेवासी कुशिष्य जमाली मर फर कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? भगवान् बोले-गौतम । वह किल्विषिक देव बना है। गौतम-भगवान् । किन कर्मों के कारण किल्विषिक देव-योनि मिलती है ? भगवान्-गौतम ! जो व्यक्ति आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण और सघ के प्रत्यनीक (विद्वषी ) होते है, आचार्य और उपाध्याय का अपयश बखानते है, अवर्ण बोलते है और अकीर्ति गाते है, मिथ्या प्रचार करते है, एकान्त आग्रही होते है, लोगो में पांडित्य के मिथ्याभिमान का भाव भरते है, वे साधुपन की विराधना कर किल्विपिक देव बनते है। (गौतम-भगवान् ! जमाली अणगार अरस-विरम, अन्त-प्रान्त, रूखा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ४e वह अरस-जीवी यावत् तुच्छ जीवी था । उपशान्त सुखा आहार करता था । जीवी, प्रशान्त-जीवी और विविक्त-जीवी था 1 ) भगवान् - हाँ गौतम | वह ऐसा था । 1 गौतम - तो फिर भगवन् । वह किल्विपिक देव क्यों बना ? भगवान् - गौतम । जमाली अणगार आचार्य और उपाध्याय का प्रत्यनीक था । उनका यश वखानता, अवर्ण बोलता और अकीर्ति गाता था । एकान्तआग्ग्रह का प्रचार करता और लोगो को मिथ्याभिमानी बनाता था । इसलिए वह साधुपन का आराधक नहीं बना । जीवन की अन्तिम घड़ियो मे भी उसने मिथ्या स्वान का आलोचन और प्रायश्चित नही किया । यही हेतु हे गौतम ! वह तपस्वी और वैरागी होते हुए भी किल्विपिक देव बना । सलेखना और अनान भी उसे आराधक नहीं बना सके । गौतम - भगवान् । जमाली देवलोक से लौट कर कहाँ उत्पन्न होगा ? भगवान् गौतम । जमाली देव, अनेक बार तियंच, मनुष्य और देव -गति मै जन्म लेगा । ससार-भ्रमण करेगा । दीर्घकाल के बाद साधुपन ले, कर्म खपा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा | जीव प्रादेशिकवाद (२) दूसरे निह्नव का नाम तिप्यगुप्त है । इनके आचार्य वस्तु चतुर्दशपूर्वी I थे । वे तिप्यगुप्त को आत्म-प्रवाद- पूर्व पढा रहे थे । उसमे भगवान् महावीर और गौतम का सम्वाद आया । गौतम ने पूछा - भगवान् । वया जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान् — नही । 1 गौतम - भगवान् | क्या दो, तीन यावत् सख्यात प्रदेश से कम जीव के प्रदेशो को जीव कहा जा सकता है ? भगवान् - नहीं । असस्यात प्रदेशमय चैतन्य पदार्थ को ही जीव कहा जा सकता है । / यह सुन तिष्यगुप्त ने कहा - अन्तिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नही है | इसलिए अन्तिम प्रदेश ही जीव है । गुरु के समझाने पर भी अपना आग्रह नही छोडा । तव उन्हें सघ से पृथक कर दिया। ये जीव- प्रदेश सम्बन्धी आग्रह के कारण जीव- प्रादेशिक कहलाए । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] जैन परम्परा का इतिहास अव्यक्तवाद (३) श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ़ चैत्य मे आचार्य आषाढ विहार कर रहे थे। उनके शिष्यो मे योग-साधना का अभ्यास चल रहा था। आचार्य का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनने सोचा-शिष्यो का अभ्यास अधूरा रह जाएगा। फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गए। शिष्यों को इसकी कोई जानकारी नही थी। योग-साधना का क्रम पूरा हुआ। आचार्य देव रूप में प्रगट हो बोले-श्रमणो ! मैंने असंयत होते हुए भी संयतात्माओ से वन्दना कराई, इसलिए मुझे क्षमा करना। सारी घटना सुना देव अपने स्थान पर चले गए । श्रमणो को सन्देह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव ? निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह अव्यक्त मत कहलाया। आषाढ़ के कारण यह विचार चला। इसलिए इसके आचार्य आषाढ हैऐसा कुछ आचार्य कहते है, पर वास्तव में उसके प्रवर्तक आषाद के शिष्य ही होने चाहिए। सांमुच्छेदिकवाद (४) अश्वमित्र अपने आचार्य कौण्डिल के पास पूर्व-ज्ञान पढ रहे थे। पहले समय के नारक विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के भी विच्छिन्न हो जायेंगे, इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे- यह पर्यायवाद का प्रकरण चल रहा था। उनने एकान्त-समुच्छेद का आग्रह किया ! वे संघ से पृथक कर दिये गए। उनका मत "सामुच्छेदिवाद" कहलाया। द्वै क्रियवाद (५) गग मुनि आचार्य धनगुप्त के शिष्य थे। वे शरद् ऋतु मे अपने आचार्य को वन्दना करने जा रहे थे। मार्ग में उल्लुका नदी थी। उसे पार करते समय सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। मुनि ने सोचा-आगम में कहा है-एक समय मे दो क्रियाओ की अनुभूति नहीं होती। किन्तु मुझे एक साथ दो क्रियाओं की अनुभूति हो रही है। गुरु के पास पहुँचे और अपना अनुभव सुनाया। गुरु ने कहा-वास्तव मे एक समय में एक ही क्रिया की अनुभूति होती है। मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ५१ इसलिए हमे उसकी पृथकता का पता नही चलता । गुरू की बात उन्हे नही जची । वे सघ से अलग होकर "दू क्रियवाद" का प्रचार करने लगे । राशिकवाद (६) छठे निह्नव रोहगुप्त ( षडुलूक ) हुए। वे अन्तरजिका के भूतगृह चैत्य मे ठहरे हुए अपने नाचार्य श्री गुप्त को वन्दना करने जा रहे थे । वहाँ पोट्टशाल परिव्राजक अपनी विद्याओ के प्रदर्शन से लोगो को अचम्भे में डाल रहा था और दूसरे सभी धार्मिको को वाद के लिए चुनौती दे रहा था । आचार्य ने रोहगुप्त को उसकी चुनौती स्वीकार करने का आदेश दिया और मयूरी, नकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही आदि अनेक विद्याए भी सिखाई । रोहगुप्त ने उसकी चुनौती को स्वीकार किया । राज सभा मे चर्चा का प्रारम्भ हुआ । पोट्टशाल ने जीव और अजीव - इन दो राशियो ने जीव, अजीव और निर्जीव - इन तीन राशियो की कर दिया । की स्थापना की । रोहगुप्त स्थापना कर उसे पराजित पोट्टशाल की वृश्चिकी, सर्पी, मूषिकी आदि विद्याए भी विफल करदी | सारा घटनाचक्र निवेदित उसे पराजित कर रोहगुप्त अपने गुरु के पास आये, किया | गुरु ने कहा - राशि दो हैं । तूने तीन राशि की स्थापना की, यह अच्छा नहीं किया | वापस सभा में जा, इसका प्रतिवाद कर । आग्रहवश गुरु की बात स्त्रीकार नही सके । गुह उन्हे 'कुत्रिकापण' मे ले गये । वहाँ जीव मांगा, वह मिल गया, अजीव मांगा, वह भी मिल गया, तीसरी राशि नही मिली । गुरु राजसभा में गए और रोहगुप्त के पराजय की घोषणा की । इस पर भी उनका आग्रह कम नही हुआ । इसलिए उन्हें सघ से अलग कर दिया गया । अबद्धिकवाद (७) सातवें निह्नत्र गोष्ठामाहिल थे । आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी दुर्बलिका पुष्यमित्र हुए। एक दिन वे विन्ध्य नामक मुनि को कर्म-प्रवाद का बन्धाधिकार पढा रहे थे । उसमे कर्म के दो रूपो का वर्णन आया । कोई कर्म गोली दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा के साथ चिपक जाता है- एक रूप हो जाता है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] जैन परम्परा का इतिहास और कोई कर्म सूखी दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा का स्पर्श कर नीचे गिर जाता है-अलग हो जाता है। ___गोष्ठामाहिल ने यह सुना। वे आचार्य से कहने लगे-आत्मा और कर्म यदि एक रूप हो जाए तो फिर वे कभी भी अलग-अलग नही हो सकते । इसलिए यह मानना ही सगत है कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते है, उससे एकीभूत नही होते । वास्तव में वन्ध होता ही नही । आचार्य ने दोनो दशाओ का मर्म बताया पर उनने अपना आग्रह नही छोड़ा । आखिर उन्हें सघ से पृथक कर दिया। ____ जमाली, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल के सिवाय शेप निह्नव आ प्रायश्चित्त ले फिर से जैन-परम्परा में सम्मिलित हो गए। जो सम्मिलित नहीं हुए उनकी भी अव कोई परम्परा प्रचलित नहीं है। __ यंत्र देखिए : - जमाली कालमान कैवल्य के १४ वर्ष पश्चात् कैवल्य के १६ वर्प पश्चात् निर्वाण के ११४ वर्प पश्चात् आचार्य मत-स्थापन उत्पत्ति-स्थान | वहुरतवाद श्रावस्ती तिष्यगुप्त | जीवप्रादेशिक- , ऋषभपुर वाद | ( राजगृह) आपाढ- अव्यक्तवाद श्वेतविका शिप्य अश्वमित्र | सामुच्छेदिक- | मिथिला वाद गगक्रियवाद उल्लुकातीर रोहगुप्त राशिकवाद अन्तरजिका ( पडुलूक) गोष्ठामाहिल | अवद्धिकवाद | दशपुर निर्वाण के २२० वर्ष पञ्चात् (निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् निर्वाण के ५४४ वर्प पश्चात् निर्वाण के ६०६ वर्ष पश्चात् स्थानांग में सात निह्नवो का ही उल्लेख है । जिनभद्र गणी आठवें निह्नव वोटिक का उल्लेख और करते है, जो वस्त्र त्याग कर सघ से पृथक हुए थे ४० । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [५३ श्वेताम्बर-दिगम्बर दिगम्बर- सम्प्रदाय की स्थापना कब हुई ? यह अव भी अनुसन्धान सापेक्ष है । परम्परा से इसकी स्थापना विक्रम को सातवी शताब्दी मे मानी जाती है । श्वेताम्बर नाम कव पडा-यह भी अन्वेषण का विषय है । श्वेताम्बर और दिगम्वर दोनो सापेक्ष शब्द है । इनमे से एक का नाम-करण होने के बाद ही दूसरे के नाम-करण की आवश्यकता हुई है। भगवान् महावीर के सघ मे सचेल और अचेल दोनो प्रकार के श्रमणो का समवाय था । आचारांग १८ मे सचेल और अचेल दोनो प्रकार के श्रमणो के मोह-विजय का वर्णन है। सचेल मुनि के लिये वस्त्रपणा का वर्णन आचारांग २।५ मे है । अचेल मुनि का वर्णन आचारांग श६ मे है । उत्तराध्ययन २।१३ मे अचेल और सचेल दोनो अवस्याओ का उल्लेख है । आगम-काल मे अचेल मुनि जिनकल्पित४३ और सचेल मुनि स्थविरकल्पिक कहलाते थे४४ । __ भगवान् महावीर के महान् व्यक्तित्व के कारण आचार की द्विविधता का जो समन्वित रूप हुआ, वह जम्बू स्वामी तक उसी रूप मे चला । उनके पश्चात् आचार्य परम्परा का भेद मिलता है । श्वेताम्बर पट्टावली के अनुसार जम्बू के पश्चात् शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूत विजय और भद्रवाहु हुए और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार नन्दी, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु हुए । ___ जम्बू के पश्चात् कुछ समय तक दोनो परम्पराएं आचार्यों का भेद स्वीकार करती है और भद्रवाहु के समय फिर दोनो एक बन जाती है । इस भेद और अभेद से सैद्धान्तिक मतभेद का निष्कर्प नही निकाला जा सकता । उस समय सघ एक था, फिर गण और शाखाएं अनेक थी । आचार्य और चतुर्दशपूर्वी भी अनेक थे। किन्तु प्रभव स्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अकुर फूटने लगे हो, ऐसा प्रतीत होता है। गय्यम्भव ने दगवै० में - 'वस्त्र रखना परिग्रह नही है'-इस पर जो बल दिया है और ज्ञातपुत्र महावीर ने सयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र रखने को परिग्रह नही कहा है-इस वाक्य द्वारा भगवान् के अभिमत को साक्ष्य किया Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] जैन परम्परा का इतिहास है४५। उससे आन्तरिक मत-भेद की सूचना मिलती है । कुछ शताब्दियो के पश्चात् शय्यम्भव का 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' वाक्य परिग्रह की परिभाषा बन गया। उमास्त्राति का 'मूर्छा-परिग्रह-सूत्र' इसी का उपजीवी है४६ । जम्बू स्वामी के पश्चात् 'दस वस्तुओं' का लोप माना गया है। उनमे एक जिनकल्पिक अवस्था भी है४७ । यह भी परम्परा-भेद की पुष्टि करता है। भद्रबाहु के समय ( वी० नि० १६० के लगभग ) पाटलिपुत्र मे जो वाचना हुई, उन दोनो परम्पराओ का मत-भेद तीन हो गया। इससे पूर्व श्रुत विषयक एकता थी। किन्तु लम्बे दुष्काल में अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत हो गए। भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अगो का सकलन किया गया। वह सब को पूर्ण मान्य नही हुआ । दोनो का मत-भेद स्पष्ट हो गया। माथुरी वाचना में श्रुत का जो रूप स्थिर हुआ, उसका अचेलव-समर्थको ने पूर्ण बहिष्कार कर दिया । इस प्रकार आचार और श्रुत विषयक मत-भेद तीन-होते-होते वीर-निर्वाण को सातवी शताब्दी मे एक मूल दो भागो में विभक्त हो गया। श्वेताम्बर से दिगम्बर-शाखा निकली, यह भी नही कहा जा सकता और दिगम्बर से श्वेताम्बर शाखा का उद्भव हुआ, यह भी नही कहा जा सकता । एक दूसरा सम्प्रदाय अपने को मूल और दूसरे को अपनी शाखा बताता है। पर सच तो यह है कि साधना को दो शाखाए, समन्वय और सहिष्णुता के विराट् प्रकाण्ड का आश्रय लिए हुए थी, वे उसका निर्वाह नहीं कर सकी, काल-परिपाक से पृथक हो गई । अथवा यो कहा जा सकता है कि एक दिन साधना के दो बीजो ने समन्वय के महातरु को अकुरित किया और एक दिन वही महातरु दो भागो में विभक्त हो गया । किंवदन्ती के अनुसार वीर निर्वाण ६०६ वर्ष के पश्चात् दिगम्बर-सम्प्रदाय का जन्म हुआ, यह श्वेताम्बर मानते है और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण ६०६ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ। सचेलत्व और अचेलत्व का आग्रह और समन्वय दृष्टि जब तक जैन-शासन पर प्रभावशाली व्यक्तित्व का अनुशासन रहा, तब तक सचेलत्व और अचेलत्व का विवाद उग्न नहीं बना। कुन्द-कुन्द ( जिसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है ) के समय यह विवाद तीव्र हो उठा था४८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [५५ वीच-बीच मै इसके समन्वय के प्रयल भी होते रहे है। यापनीय सघ (जिसकी स्थापना वी० नि० को सातवी शताब्दी के लगभग हुई ) श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो परम्पराओ का समन्वित रूप था। इस संघ के मुनि अचेलल आदि को दृष्टि से दिगम्बर-परम्परा का अनुसरण करते थे और मान्यता की दृष्टि से श्वेताम्बर थे। वे स्त्री-मुक्ति को मानते थे और श्वेताम्बर-सम्मत आगम-साहित्य का अध्ययन करते थे। समन्वय की दृष्टि और भी समय-समय पर प्रस्फुटित होती रही है। कहा गया है : कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन, कोई एक और कोई अचेल रहता है। वे परस्पर एक दूसरे की अवज्ञा न करें। क्योकि यह सब जिनाज्ञा-सम्मत है । यह आचार-भेद शारीरिक शक्ति और धृति के उत्कर्प और अपकर्ष के आधार पर होता है। इसलिए सचेल मुनि अचेल मुनियो की अवज्ञा न करें और अचेल मुनि सचेल मुनियों को अपने से हीन न मानें। जो मुनि महाव्रत-धर्म का पालन करते हे और उद्यत-विहारी है, वे सब जिनाज्ञा में है४० । चैत्यवास और संविग्न स्यानांग सूत्र मे भगवान् महावीर के नौ गणो का उल्लेख मिलता है५. । इनके नाम क्रमश इस प्रकार है - १-गोदास-गण २-उत्तर-बलिस्सइ-गण ३-उद्देह-गण ४- चारण-गण ५-उडुपाटिन-गण ६-वेश-पाटिक-गण ७-कामद्धि-गण ८-मानव-गण ६-कोटिक-गण गोदास भद्रवाहु स्वामी के प्रथम शिष्य थे। उनके नाम से गोदास-गण का प्रवर्तन हुआ। उत्तर बलिस्सइ आर्य महागिरि के शिष्य थे। दूसरे गण का . प्रवर्तन इनके द्वारा हुआ। ___ आर्य सुहस्ती के शिष्य स्थविर रोहण से उद्देह-गण, स्थविर श्री गुप्त से चारण-गण, भद्रयश से उडुपाटित-गण, स्थविर कामद्धि से वेशपाटिक-गण और उसका अन्तर कुल कामद्धिगण, स्थविर ऋषिगुप्त से मानव-गण और स्थविर सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध से कोटिक गण प्रवर्तित हुए५१ । आर्य सुहस्ती के समय शिथिलाचार की एक स्फुट रेखा निर्मित हुई थी। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] जैन परम्परा का इतिहास वे स्वयं सम्राट् सम्प्रति के आचार्य बन कुछ सुविधा के उपभोक्ता बने थे। पर आर्य महागिरि के सकेत से शीघ्र ही सम्हल गए थे। माना जाता है कि उनके सम्हल जाने पर भी एक शिथिल परम्परा चल पड़ी। वी० नि० की नवी शताब्दी (८५० ) में चैत्यवास की स्थापना हुई । कुछ शिथिलाचारी मुनि उन-विहार छोड़ कर मदिरो के परिपार्श्व में रहने लगे। वी० नि० की दशवी शताब्दी तक इनका प्रभुत्व नही बढा। देवद्धिगणी के दिवंगत होते ही इनका सम्प्रदाय शक्तिशाली हो गया। विद्या-बल और राज्य-बल दोनो के द्वारा उन्होंने उन-विहारी श्रमणो पर पर्याप्त प्रहार किया। हरिभद्रसूरि ने 'सम्बोध-प्रकरण' मे इनके आचार-विचार का सजीव वर्णन किया है । अभयदेव सूरि देवर्द्धिगणी के पश्चात् जैन-शासन की वास्तविक परम्परा का लोप मानते है५२ । चैत्यवास से पूर्व गण, कुल और शाखाओ का प्राचुर्य होते हुए भी उनमें पारस्परिक विग्रह या अपने गण का अहकार नही था। वे प्राय अविरोधी थे। अनेक गण होना व्यवस्था-सम्मत था। गणो के नाम विभिन्न कारणों से परिवर्तित होते रहते थे। भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा के नाम से गण को सौधर्म गण कहा गया। सामन्त भद्रसूरि ने वन-वास स्वीकार किया, इसलिए उसे वन-वासी गण कहा गया। चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष सविम, विधि-मार्ग या सुविहित मार्ग कहलाया और दूसरा पक्ष चैत्यवासी। स्थानक वासी इन सम्प्रदाय का उद्भव मूर्ति-पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। वि० को सोलहवी शताब्दी मे लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और आचार को कठोरता का पक्ष प्रबल किया। इन्ही लोकाशाह के अनुयायियो में से स्थानकवासी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। यह थोड़े ही समय में शक्तिशाली बन गया । तेरापंथ । स्थानक वासी सम्प्रदाय के आचार्य श्री रुघनाथजी के शिष्य 'संत भीखणजी' Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [५७ (आचार्य भिक्षु ) ने वि० स० १८१७ मे तेरापय का प्रर्वतन किया । आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और सगठन पर बल दिया। एक सूत्रता के लिए उन्होने अनेक मर्यादाओ का निर्माण किया । गिष्य-प्रया को समाप्त कर दिया । थोडे ही समय में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापथ प्रसिद्ध हो गया । आचार्य भिक्षु आगम के अनुगीलन द्वारा कुछ नये तत्त्वों को प्रकाश मे लाए । सामाजिक भूमिका में उस समय वे कुछ अपूर्व से लगे। आध्यात्मिक-दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान है, कुछ तथ्य तो वर्तमान समाज के भी पय-दर्गक वन गए हैं। उन्होने कहा(१) धर्म को जाति, समाज और राज्यगत नीति से मुक्त रसा जाय । (२) माधन-गुद्धि का उतना ही महत्त्व है, जितना कि नाध्य का। (३) हिनक साधनो से अहिंसा का विकास नही किया जा सकता। (४) हृदय-परिवर्तन हुए विना किमो को अहिंसक नही बनाया जा मकता । (५) आवश्यक हिना को अहिंमा नही मानना चाहिए । ( ६ ) धर्म और अधर्म क्रिया-काल में ही होते है, उसके पहले-पीछे नही होते। (७) वडो की सुरक्षा के लिए छोटे जीवो का वध करना अहिमा नही है । उन्होने दान और दया के धार्मिक विश्वासो की आलोचना की और उनकी ऐतिहासिक आध्यात्मिकता को अस्वीकार किया। मिथ-धर्म को अमान्य करते हुए उन्होने आगम की भापा में कहा "मंक्षेप मे क्रिया के दो स्थान है। १-धर्म, २-~अधर्म५३ । धर्म और अधर्म का मिश्र नही होता।" गौतम स्वामी ने पूछा - "भगवन् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते है-एक जीव एक समय मे दो क्रियाएँ करता है । वे दो कियाएं है- सम्यक और मिथ्या । जिस समय सम्यक क्रिया करता है, उस समय मिथ्या क्रिया भी करता है और जिस समय मिथ्या क्रिया करता है, उस समय मम्यक क्रिया भी करता है। सम्यक क्रिया करने के द्वारा मिथत क्रिया करता है Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] जैन परम्परा का इतिहास और मिथ्या क्रिया करने के द्वारा सम्यक् क्रिया करता है - इस प्रकार एक जीव एक समय मे दो क्रियाएँ करता है । यह कैसे है भगवन् ? " भगवान् गौतम | एक जीव एक समय मे दो क्रियाए करता है यह जो कहा जाता है, वह सच नही है - मैं इस प्रकार कहता हूँ, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करता हूँ । एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है - सम्यक् या मिथ्या । जिस समय सम्यक क्रिया करता है, उस समय मिथ्या क्रिया नही करता और जिस समय मिथ्या क्रिया करता है, उस समय सम्यक् क्रिया नही करता । सम्यक् क्रिया करने के द्वारा मिथ्या किना नही करता और मिथ्या क्रिया करने के द्वारा सम्यक् क्रिया नहीं करता है । इस प्रकार एक जीव एक समय मे एक ही क्रिया करता है - सम्यक् या मिथ्या" " । " अन्य तीर्थिक लोग "एक साथ धर्म और अधर्म दोनो क्रियाएँ होती है ऐसा मानते थे । उनका भगवान् महावीर ने इस सूत्र मे प्रतिवाद किया और बताया - " सम्यक् और असम्यक् - शुभ अव्यवनाय वाली और अशुभ अध्यवसाथ वाली ये दोनो क्रियाए एक साथ नही हो सकती । आत्मा क्रिया करने मे सर्वात्मना प्रवृत्त होती हे । इसलिए क्रिया का अध्यवसाय एक साथ द्विरूप नहीं हो सकता । जिस समय निर्जरा होती है, उस समय आसव भी विद्यमान रहता है । पुण्य वव होता है, उस समय पाप भी बचता है । किन्तु वे दोनो प्रवृत्तियां स्वतन्त्र है, इसलिए वह मिश्र नही कहलाता । जिससे कर्म लगता है, उसीसे कर्म नहीं टूटता तथा जिससे पुण्य का वध होता है, उसीसे पाप का बंध नही होता । एक ही प्रवृत्ति से धर्म और अधर्म दोनो हो, पुण्य-पाप दोनो वधे, उसका नाम मिश्र है । धर्म मिश्रनही होता ।" ये विचार आदि काल में बहुत ही अपरिचित से लगे किन्तु अव इनकी गहराई से लोगो का निकट परिचय हुआ है । तेरापथ के आठ आचार्य हो चुके है । वर्तमान नेता आचार्य श्री तुलसी है । अणुव्रत आन्दोलन जो अहिंसा, मंत्री, धर्म-समन्वय और धर्म के सम्प्रदायातीत रूप का ज्वलत प्रतीक है, आचार्य श्री के विचार मन्थन का नवनीत है । आन्दोलन - प्रवर्तक के व्यक्तित्व पर जैन धर्म का समन्वयवाद और असाम्प्र दायिक धार्मिकता की अमिट छाप है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन ५६-१०८ जैन-साहित्य आगम आगमो का रचनाक्रम चौदहपूर्व आगमो की भापा आगमो का प्रामाण्य और अप्रामाण्य आगम-विभाग शब्द-भेद नाम विभक्ति आख्यात विभक्ति घातु-रूप धातु-प्रत्यय तद्धित आगम-वाचनाएँ आगम-विच्छेद का क्रम आगम का मौलिक रूप अनुयोग लेखन और प्रतिक्रिया लेख-सामग्री आगम लिखने का इतिहास प्रतिक्रिया कल्प्य-अकल्प्य-मीमांसा अङ्ग-उपाङ्ग तथा छेद और मूल आगमो का वर्तमान रूप और सख्या आगम का व्याख्यात्मक साहित्य भाष्य और भाष्यकार टीकाएँ और टीकाकार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवर्ती-प्राकृत-साहित्य संस्कृत-साहित्य प्रादेशिक-साहित्य गुजराती-साहित्य राजस्थानी-साहित्य हिन्दी-साहित्य Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ___ जैन-साहित्य आगम और आगमेतर-इन दो भागो मे वटा हुआ है । साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम कहलाता है। सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान ने अपने आपको देखा (आत्म-साक्षात् किया ) और समूचे लोक को देखा । भगवान् ने तीर्थ-चतुष्टय ( साघु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) की स्थापना की । इसलिए वे तीर्थकर कहलाए । भगवान् ने सत् का निरूपण किया तथा वन्च, बन्ध-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतु का स्वरूप बताया | भगवान् की वाणी आगम बन गई। उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणवरो ने उसे सूत्र-रूप में गू था । आगम के दो विभाग हो गए। सूत्रागम और अर्थागम । भगवान् के प्रकीर्ण उपदेश को अर्थागम और उसके आधार पर की गई सूत्र-रचना को सूत्रागम कहा गया । वे आचार्यों के लिए निधि बन गए । इस लिए उनका नाम गणिपिटक हुआ । उस गुम्फन के मौलिक बारह भाग हुए । इसलिए उसका दूसरा नाम हुआ द्वादशांगी। बारह अग ये है-(१) आचार (२) सूत्रकृत (३) स्थान (४) समवाय (५) भगवती (६) ज्ञातृ-धर्मकथा (७) उपासक दशा (८) अन्त कृद्दशा, (९) अनुत्तरोपपातिक-दशा (१०) प्रश्न-व्याकरण (११) विपाक (१२) दृष्टिवाद । स्यविरो ने इसका पल्लवन किया। आगम-सूत्रो की सख्या हजारो तक पहुंच गई। भगवान् के १४ हजार शिष्य प्रकरणकार (ग्रन्थकार) थे । उस समय लिखने की परम्परा नही थी । सारा वाडमय स्मृति पर आधारित था। आगमो का रचना-क्रम दृष्टिवाद के पांच विभाग है : (१) परिकर्म (२) सूत्र (३) पूर्वानुयोग (४) पूर्वगत (५) चूलिका । चतुर्थ विभाग-पूर्वगत मे चोदह पूर्वो का समावेश होता है। इनका परिमाण बहुत ही विशाल है । ये श्रुत या शब्द-ज्ञान के समस्त विषयो के अक्षय-कोप होते है । इनकी रचना के बारे मे दो विचार धाराएँ है-एक के अनुसार भगवान महावीर के पूर्व से ज्ञानराशि का यह भाग चला आ रहा था। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] जैन परम्परा का इतिहास इसलिए उत्तरवर्ती साहित्य-रचना के समय इसे पूर्व कहा गया । दूसरी विचारणा के अनुसार द्वादशांगी के पूर्व ये चौदह शास्त्र रचे गए, इसलिए इन्हें पूर्व कहा गया । पूर्वो में सारा श्रुत समा जाता है । किन्तु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ नहीं सकते। उनके लिए द्वादशांगी की रचना की गई। आगम-साहित्य में अध्ययन-परम्परा के तीन क्रम मिलते है । कुछ श्रमण चतुर्दश पूर्वी होते थे, कुछ द्वादशांगी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अगो को पढते थे। चतुर्दश पूर्वी श्रमणो का अधिक महत्त्व रहा है । उन्हे श्रुत-केवली कहा गया है। नाम विषय पद-परिमाण एक करोड १-उत्पाद २-अग्नायणीय द्रव्य और पर्यायो की उत्पत्ति द्रव्य, पदार्थ और जीवो का परिमाण सकर्म और अकर्म जीवो के वीर्य का वर्णन छियानवे लाख ३-वीर्य-प्रवाद सत्तर लाख साठ लाख ४--अस्तिनास्ति प्रवाद ५- ज्ञान-प्रवाद ६-~सत्य-प्रवाद ७-आत्म-प्रवाद 4-कर्म-प्रवाद पदार्थ की सत्ता और असत्ताका निरूपण ज्ञान का स्वरूप और प्रकार सत्य का निरूपण आत्मा और जीव का निरूपण कर्म का स्वरूप और प्रकार एक कम एक करोड एक करोड़ छह छब्बीस करोड एक करोड़ अस्सी लाख चौरासी लाख एक करोड दस ६-प्रत्याख्यान-प्रवाद व्रत-आचार, विधि-निपेव १०-विद्यानुप्रवाद सिद्धियों और उनके साधनो का निरूपण ११-अवन्ध्य ( कल्याण ) शुभाशुभ फल की अवश्य भाविता का निरूपण लाख छब्बीस करोड Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [६३ १२-प्राणायुप्रवाद इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, आयुष्य एक करोड़ और प्राण का निरूपण छपन लाख १३- क्रियाविशाल शुभाशुभ क्रियाओ का निरूपण नौ करोड १४–लोकविन्दुसार __ लोक विन्दुमार लधि का स्वरूप ___ और विस्तार साढे वारह करोड़ उत्पाद पूर्व मे दस वस्तु और चार चूलिकावस्तु है। अग्नायणीय पूर्व में चौदह वस्तु और वारह चूलिकावस्तु है । वीर्यप्रवाद पूर्व में आठ वस्तु और आठ चूलिकावस्तु है । अस्ति-नास्ति-प्रवाद पूर्व में अठारह वस्तु और दस चूलिकावस्तु है । ज्ञान-प्रवाद पूर्व मे वारह वस्तु है । सत्य प्रवाद पूर्व मे दो वस्तु है । आत्मप्रवाद पूर्व मे सोलह वस्तु है । कर्म-प्रवाद पूर्व मे तीस वस्तु है । प्रत्याख्यान पूर्व में बीस । विद्यानुप्रवाद पूर्व मे पन्द्रह । अवन्व्य पूर्व मे बारह । प्राणायु पूर्व मे तेरह । क्रियाविशाल पूर्व मे तीन । लोक विन्दुसार पूर्व मे पच्चीस । चौथे से आगे के पूर्वो मे चूलिकावस्तु नही है । ___इनकी भाषा सस्कृत मानी जाती है। इनका विषय गहन और भापा सहज सुवोध नही थी। इसलिए अल्पमति लोगो के लिए द्वादशांगी रची गई। कहा भी है - 'वालस्त्रीमन्दमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाडिक्षणाम् । अनुग्रहार्थ तत्त्वजे , सिद्धातपः प्राकृते कृतः ॥ आचारांग का स्थान पहला है। वह योजना की दृप्टि से है। रचना की दृष्टि से पूर्व का स्थान पहला है । आगमों की भाषा जैन आगमो की भाषा अर्ध-मागधी है। आगम-साहित्य के अनुसार तीर्थकर अर्ध-मागधी में उपदेश देते है । इसे उस समय की दिव्य भापा और इसका प्रयोग करने वाले को भापार्य कहा है । यह प्राकृत का ही एक रूप है । यह मगध के एक भाग मे बोली जाती है, इसलिए अर्ध-मागधी कहलाती है । इसमे मागधी और दूसरी भाषाओ-अठारह देशी भाषाओ के लक्षण मिश्रित है। इसलिए यह अर्थ-मागधी कहलाती है।' । भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] जैन परम्परा का इतिहास इसलिए जैन-साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दो की बहुलता है। मागधी और देश्य शब्दो का मिश्रण अर्ध-मागधी कहलाता है। यह जिनदास महत्तर की व्याख्या है, जो सम्भवत सब से अधिक प्राचीन है। इसे आर्य भी कहा जाता है।२ । आचार्य हेमचन्द्र ने इसे आप कहा-उनका मूल आगम का ऋषि-भाषित शब्द है'। आगमों का प्रामाण्य और अप्रामाण्य केवली, अवधि-ज्ञानी, मन पर्यव-ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर और दशपूर्वधर की रचना को आगम कहा जाता है । आगम मे प्रमुख स्थान द्वादशांगी या गणि-पिटक का है। वह स्वत प्रमाण है। शेष आगम परत. प्रमाण हैद्वादशांगी के अविरुद्ध है, वे प्रमाण है, शेप अप्रमाण । आगम-विभाग आगम-साहित्य प्रणेता की दृष्टि से दो भागो मे विभक्त होता है। (१) अग-प्रविष्ट (२) अनग-प्रविष्ट । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरो ने जो साहित्य रचा, वह अग-प्रविष्ट कहलाता है। स्थविरो ने जो साहित्य रचा, वह अनग-प्रनिष्ट कहलाता है। बारह अगों के अतिरिक्त सारा आगम-साहित्य अनग-प्रविष्ट है । गणधरो के प्रश्न पर भगवान् ने त्रिदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो आगम-साहित्य रचा गया, वह अंग-प्रविष्ट और भगवान् के मुक्त व्याकरण के आधार पर स्थविरो ने जो रचा, वह अनग-प्रविष्ट है। द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थकरो के समक्ष नियत होता है। अनगप्रविष्ट नियत नही होता ४ | अभी जो एकादश अग उपशब्ध है वे सुधर्मा गणधर की वाचना के है। इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते है ।। अनंग-प्रविष्ट आगम-साहित्य की दृष्टि से दो भागो में बटता है। कुछेक आगम स्थविरो के द्वारा रचित है और कुछेक नियंढ । जो आगम द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत किये गए, वे नियूंढ कहलाते है । दशवकालिक, आचारांग का दूसरा श्रुत-स्कन्ध, निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प, दशाश्रुत-स्कन्ध-ये नियूंढ आगम है। दशवकालिक का निर्दूहन अपने पुत्र मनक की आराधना के लिए Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ६५ आर्य शय्यम्भव ने किया १५ | शेप आगमो के निर्यूहक श्रुत- केवली भद्रबाहु है । प्रज्ञापना के कर्त्ता श्यामार्य, अनुयोग द्वार के आर्य-रक्षित और नन्दी के देवगण क्षमाश्रमण माने जाते है । भाषा को दृष्टि से आगमो को दो युगो मे विभक्त किया जा सकता है । ई० पू० ४०० से ई० १०० तक का पहला युग है । इसमे रचित अंगो की भाषा अर्व मागधी है । दूसरा युग ई० १०० से ई० ५०० तक का है । इसमे रचित या निर्यूढ आगमों को भापा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है ११ अर्द्धमागधी और जैन महाराष्ट्री प्राकृत मे जो अन्तर है, उसका सक्षिप्त रूप यह है :-- शब्द -भेद १ - अर्ध मागधी मे ऐसे प्रचुर शब्द है, जिनका प्रयोग महाराष्ट्री में प्राय उपलब्ध नही होता, यथा— अज्झत्थिय, अज्भोवण्ण, अणुवीति, आधवणा, आधवेत्तग, आणापाणू, आवीकम्म, कण्हुइ, केमहालय, दुरूढ, पंचत्थिमिल्ल, पउकुव्व, पुरत्यिमिल्ल, पोरेवच्च, महतिमहा लिया, वक्क, विउस इत्यादि । २-- ऐसे शब्दो की सख्या भी बहुत बडी है, जिनके रूप अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है । उनके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है अर्धमागधी अभियागम आउटण आहरण उप्पि किया कीस, केस केवच्चिर गेहि चियत्त छच्च महाराष्ट्री अभाअम आउचण उआहरण उवरिं, अवरिं किरिया केरिस किअच्चिर गिद्धि चइअ छक्क जाया णिगण, णिगिण ( नम) निगिणिण (नागण्य ) तच्च (तृतीय) तच्च (तथ्य ) गच्छा दुवाल सग दोच्य नितिय निएय पडुप्पन्न जत्ता नग्ग णग्गत्तण तइअ तच्छ चिइच्छा वारसग दुइअ णिच्च णिअअ पन्चुप्पण्ण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छाकम्म वाआ सहा ६६] जैन परम्परा का इतिहास पच्छेकम्म वग्गू पाय ( पाल) पत्त वाहणा ( उपानह) उवाणा पुठो (पृथक ) पुहं, पिह सहेज्ज पुरेकम्म पुराकम्म सीआण, सुसाण मसाण पुचि पुन्वं सुमिण सिमिण माय ( माल) अत्त, मेत्त सुहम, सुहुम सह माहण बम्हण सोहि सुद्धि मिलक्खु, मेच्छ मिलिच्छ ओर दुबालस, बारस, तेरस, अउण्बीसइ, बत्तीम, पणत्तीस, इगयाल, तेयालीस, पणयाल, अठयाल, एगट्ठि, वावट्ठि, तेवट्ठि, छात्रवि, अढसट्ठि, अउगत्तरि, बावत्तरि, पण्णत्तरि, सत्तहत्तरि, तेयासी, छलसीइ, बाणउइ प्रभृति संख्या-शब्दो के रूप अर्धमागधी मे मिलते है, महाराष्ट्री मे वैसे नही। नाम-विभक्ति १-अर्धमागधी मे पुल्लिंग अकारान्त शब्द के प्रथमा के एक वचन मे प्राय सर्वत्र 'ए' और क्वचित्'ओ' होता है, किन्तु महाराष्ट्री मे 'ओ' ही होता है । २-सप्तमी का एक वचन 'वि' होता है जब महाराष्ट्री मे 'म्मि' । ३-चतुर्थी के एक वचन में 'आए' या 'आते' होता है, जैसे देवाए, सवणयाए, गमणाए, अट्ठाए, अहिताते, असुभाते, अखभाते (ठा० पत्र ३५८ ) इत्यादि, महाराष्ट्री मे यह नहीं है। ४- अनेक शब्दो के तृतीया के एक वचन मे सा' होता है, यया-मगसा, वयमा, कायसा, जोगसा, वलसा, चक्खुमा, महाराष्ट्री मे इनके स्थान मे क्रमश मणेग, वएण, काएण, जोगेण वलेण, चक्खुणा। ५- 'कम्म' और 'धम्म' शब्द के तृतीया के एक वचन में पाली की तरह 'कम्मुणा' और 'धम्मुणा' होता है, जबकि महाराष्ट्री मे 'कम्मे ग' और 'धम्मेण' । ६-अर्धमागधी मे 'तत्' शब्द के पचमी के बहुवचन मे 'तेब्भो' रूप भी देखा जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [६७ ७–'युष्मत' शब्द का षष्ठी का एकवचन संस्कृत की तरह 'तव' और 'अस्मत्' का षष्ठी का बहुवचन 'अस्माक' अर्धमागधी में पाया जाता है, जो महाराष्ट्री मे नही है। आख्यात-विभक्ति १–अर्धमागधी मे भूतकाल के बहुवचन मे 'इसु' प्रत्यय है, जैसे - पुच्छिसु, गच्छियु, आमासिम इत्यादि । महाराष्ट्री में यह प्रयोग लुप्त हो गया है। धातु-रूप १-अर्धमागवी मे आइक्खइ, कुचइ, भुवि, होक्खती, वूया, अब्बवी, होत्या, हुत्या, पट्टारेत्या, आधं, दुरूहइ, विगिंचए, तिवायए, अकासी, तिउट्टई, तिउट्टिज्जा, पडिसघयाति, सारयती, धेच्छिइ, समुच्छिहिंति, आहसु प्रभृति प्रभूत प्रयोगो मे धातु की प्रकृति, प्रत्यय अथवा-ये दोनो जिस प्रकार में पाये जाते है, महाराष्ट्री मे वे भिन्न-भिन्न प्रकार के देखे जाते है। धातु-प्रत्यय १-अर्वमागधी मे 'वा' प्रत्यय के रूप अनेक तरह के होते है:(क) टटु जैसे-कट्ट, सदहटु, अवहट्ट इत्यादि । (ख) इत्ता, एत्ता, इत्ताण और एत्ताण: यथा-चइत्ता, विडट्टिता, पासित्ता, करेत्ता, पासित्ताण, करेत्ताण इत्यादि । (ग) इत्तु यया-दुरुहित्तु, जाणित्तु, वधित्तु, प्रभृति । (घ) च्चाः जैसे किच्चा, णञ्चा, सोच्वा, भोच्चा, चेच्या आदि । (ड) इयाः यया--परिजाणिया, दुरूहिया आदि। (च) इनके अतिरिक्त विडक्कम्म, निसम्म, समिच्च, सखाए अणुवीति, लद्ध, लद्ध ण, दिस्सा आदि प्रयोगो मे 'त्वा' के रूप भिन्न-भिन्न तरह के पाये जाते है। २'तुम्' प्रत्यय के स्थान मे इत्तए या इत्तते प्रायः देखने मे आता है। जैसे—करित्तए, गच्छितए, सभुजित्तए, उवासमित्तते ( विपा० १३), विहरित्तए आदि । ३-ऋकारान्त धातु के 'त' प्रत्यय के स्थान मे 'ड' होता है, जैसे-कड, मड, अभिहड, वावड, सवुड, वियुड, वित्थड प्रभृति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TOURT ६८1 जैन परम्परा का इतिहास तद्धित १-'तर' प्रत्यय का तराय रूा होता है, यथा अणि?तराए, अप्पतराए, बहुतराए, कंततराए इत्यादि । २-आउसो, आउसंतो, गोमी, बुसिम, भगवतो, पुरत्थिम, पचत्थिम, ओयंसी, दोसिणो, पोरेवच्च आदि प्रयोगो में 'मतुप' और अन्य तद्धित' प्रत्ययो के जैसे रूप जैन अर्धमागधो मे देखे जाते है, महाराष्ट्री में वे भिन्न तरह के होते है। महाराष्ट्री से जैन अर्धमागधी में इनके अतिरिक्त और भी अनेक सूक्ष्म भेद है, जिनका उल्लेख विस्तार-भय से यहाँ नही किया गया है। आगम वाचनाएं वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी मे (१६० वर्ष पश्चात् ) पाटलीपुत्र में १२ वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ १८ उस समय श्रमण-संघ छिन्न-भिन्न सा हो गया। बहुत सारे बहुश्रुत मुनि अनशन कर स्वर्ग-वासी हो गए। आगम-ज्ञान की शृङ्खला टूट सो गई। दुर्भिक्ष मिटा तब सघ मिला । श्रमणो ने ग्यारह अंग सकलित किए। बारहवें अग के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी के सिवाय कोई नही रहा । वे नेपाल मै महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना पर उन्होने बारहवें अग की वाचना देना स्वीकार कर लिया। पन्द्रह सौ साधु गए। उनमे पाँच सौ विद्यार्थी थे ओर हजार साधु उनकी परिचर्या में नियुक्त थे। प्रत्येक विद्यार्थी-साधु के दो-दो साधु परिचारक थे। अध्ययन प्रारम्भ हुआ । लगभग विद्यार्थी-साधु थक गए । एकमात्र स्थूलभद्र बच रहे। उन्हें दस पूर्व की वाचना दी गई । बहिनो को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होने सिंह का रूप बना लिया। भद्रबाहु ने इसे जान लिया । वाचना बन्द करदी। फिर बहुत आग्रह करने पर चार पूर्व दिये पर उनका अर्थ नही बताया। स्थूलभद्र पाठ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत-केवली थे। अयं की दृष्टि से अन्तिम श्रुत-केवली भद्रबाहु ही थे । स्थूलभद्र के बाद दश पूर्व का ज्ञान ही शेष रहा । वज्रस्वामी अन्तिम दश-पूर्वधर हुए। वज्रस्वामी के उत्तराधिकारी आर्य-रक्षित हुए। वे नौ पूर्व पूर्ण और दशवें पूर्व के २४ यविक जानते थे। आर्य-रक्षित के शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने नौ पूर्वो का अध्ययन किया किन्तु अनभ्यास के कारण वे नवे पूर्व को भूल गए। विस्मृति का यह क्रम आगे बढता गया। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास c : - L. ६६ आगम-सकलन का दूसरा प्रयल वीर-निर्वाण ८२७ और ८४० के बीच हुआ । आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व मे आगम लिखे गए। यह कार्य मथुरा मे हुआ । इसलिए इसे मायुरी-वाचना कहा जाता है। इसी समय वल्लभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व मे आगम सकलित हुए । उसे वल्लभी-वाचना या नागार्जुन वाचना कहा जाता है। वीर-निर्वाण को १० वी शताब्दी-माथुरी-वाचना के अनुयायियो के अनुसार वीर-निर्वाण के ६८० वर्ष पश्चात् तया वल्लभी-वाचना के अनुयायियो के अनुसार वीर-निर्वाण के ६१३ वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणी ने वल्लभी मे फिर से आगमो का व्यवस्थित लेखन किया। इसके पश्चात् फिर कोई सर्वमान्य वाचना नही हुई । वीर की दसवी शताब्दी के पश्चात् पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई । आगम-विच्छेद का क्रम भद्रबाहु का स्वर्गवास वीर-निर्वाण के १७० वर्प पश्चात् हुआ । आर्थीदृष्टि से अन्तिम चार पूर्वो का विच्छेद इसी समय हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार यह वीर-निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् हुआ। गान्दी दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व स्थूलभद्र की मृत्यु के समय वीर-निर्वाण के २१६ वर्प पश्चात् विच्छिन्न हुए । इनके बाद दशपूर्वो की परम्परा आर्यव्रत तक चली। उनका- स्वर्गवास वीर-निर्वाण के ५७१ ( विक्रम संवत् १०१ ) वर्ष पश्चात् हुआ । उसी समय दगवां पूर्व विच्छिन्न हुआ। नवां पूर्व दुर्वलिका पुष्यमित्र की मृत्यु के साय-वीर निर्वाण ६०४ वर्ष ( वि० सवत् १३४ ) मे लुप्त हुआ। पूर्वज्ञान का विच्छेद वीर-निर्वाण (वि० सवत् ५३०) के हजार वर्ष पश्चात् हुआ। दिगम्वर मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण के ६२ वर्ष तक केवल ज्ञान रहा । अन्तिम केवली जम्बूस्वामी हुए। उनके पश्चात् १०० वर्ष तक चोदह पूर्वो का जान रहा । अन्तिम चतुर्दश पूर्वी भद्रवाहु हुए। उनके पश्चात् १५३ वर्ष तक दशपूर्व रहे । धर्मसेन अन्तिम दशपूर्वी थे। उनके पश्चात् ग्यारह अगो की - - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] जैन परम्परा का इतिहास परम्परा २२० वर्ष तक चली। उनके अन्तिम अध्येता ध्रुवसेन हुए । उनके पश्चात् एक अग आचारांग का अध्ययन ११८ वर्ष तक चला। इसके अन्तिम अधिकारी लोहार्य हुए । वीर-निर्वाण ६८३ (वि० सवत् २१३ ) के पश्चात् आगम-साहित्य सर्वथा लुप्त हो गया । केवल ज्ञान के लोप की मान्यता में दोनो सम्प्रदाय एक मत है ' चार पूर्वो का लोप भद्रबाहु के पश्चात् हुआ, इसमे ऐक्य है । केवल कालदृष्टि से आठ वर्ष का अन्तर है । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उनका लोप वीर-निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् हुआ और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् । यहाँ तक दोनो परम्पराएँ आस-पास चलनी है । इसके पश्चात् उनमे दूरी बढती चली जाती है । दशवें पूर्व के लोप की मान्यता मे दोनो मे काल का बडा अन्तर है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दशपूर्वी वीर-निर्वाण से ५४८ वर्ष तक हुए और दिगम्बर परम्परा के अनुसार २४५ वर्ष तक। श्वेताम्बर एक पूर्व को परम्परा को देवर्द्धिगणि तक ले जाते और आगमो के कुछ मौलिक भाग को अब तक सुरक्षित मानते है । दिगम्बर वीर-निर्वाण ६८३ वर्प पश्चात आगमो का पूर्ण लोप स्वीकार करते है। आगम का मौलिक रूप दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण के ६८३ के पश्चात--आगमो का मौलिक स्वरून लुप्त हो गया। श्वेताम्बर मान्यता है कि आगम साहित्य का मौलिक स्वरूप बड़े परिणाम में लुप्त हो गया किन्तु पूर्ण नही, अब भी वह शेष है । अगो और उपांगों की जो तीन बार सकलना हुई, उसमे मौलिक रूप अवश्य ही बदला है । उत्तरवर्ती घटनाओ और विचारगाओ का समावेश भी हुआ । स्थानांग में सात निह्नवो और नव गणो का उल्लेख सष्ट प्रमाग है । प्रश्न-व्याकरण का जो विषय-वर्णन है, वह वर्तमान रूप में उपलब्ध नही है । इस स्थिति के उपरान्त भी अगो का अधिकांश भाग मौलिक है । भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से वह प्राचीन है । आचारांग का प्रथम श्रुत रचना-शैली की दृष्टि से शेप सव अगो से भिन्न है। आज के भाषाशास्त्री उसे ढाई हजार वर्ष प्राचीन वतलाते है । सूत्र कृतांग, स्थानांग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [७१ और भगवती भी प्राचीन हे । इसमे कोई सन्देह नही, आगम का मूल आज भी सुरक्षित है। अनुयोग अनुयोग का अर्थ है-सूत्र और अर्थ का उचित सम्बन्ध, वे चार हैं (१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग (४) द्रव्यानुयोग । आर्य-वज तक अनुयोग के विभाग नही थे । प्रत्येक सूत्र मे चारो अनुयोगो का प्रतिपादन किया जाता था । आर्य-रक्षित ने इस पद्धति में परिवर्तन किया । इसके निमित्त उनके शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र वने । आर्य-रक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे दुर्वलिका-पुप्य, फल्गुरक्षित, विन्थ्य और गोष्ठामाहिल । विन्व्य इनमे मेघावी था। उसने आर्य-रक्षित से प्रार्थना की -"प्रभो । मुझे महपाठ में अध्ययननामग्नी बहुत बिलम्ब से मिलती है । इसलिए गीन मिले, ऐसी व्यवस्था कीजिए।" आर्य-रक्षित ने उसे आलापक देने का भार दुर्वलिका पुण्य को सौपा। कुछ दिन तक वे उसे वाचना देते रहे । फिर एक दिन दुर्वलिका पुष्य ने आर्य-रक्षित से निवेदन किया-गुरुदेव ! इसे वाचना दूंगा तो मेरा नवां पूर्व विस्मृत हो जाएगा । अव जो आर्यवर का आदेश हो वही करूं । आर्य-रक्षित ने सोचादुबलिका पुप्य की यह गति है । अब प्रज्ञा-हानि हो रही है। प्रत्येक सूत्र में चारो अनुयोगो को धारण करने की क्षमता रखने वाले अव अधिक समय तक नही रह नकेंगे । चिन्तन के पश्चात् उन्होने आगमो को-चार अनुयोगो के रूप मे विभक्त कर दिया। आगमों का पहला संस्करण भद्रवाहु के समय मे हुआ था और दूसरा मंस्करण आर्य-रक्षित ने ( वीर-निर्वाण ५८४-५६७ मे ) किया । इस सस्करण मे व्याख्या की दुल्हता मिट गई। चारो अनुयोगो मे आगमों का विभाग इस प्रकार किया - (१) चरण-करण-अनुयोग -कालिक सूत्र (२) धर्मकथानुयोग - उत्तराध्ययन आदि ऋपि-भापित (३) गणितानुयोग ( कालानुयोग ) -सूर्य प्रज्ञति आदि (४) द्रव्यानुयोग - दृप्टिवाद२१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] जैन परम्परा का इतिहास दिगम्बर-परम्परा मे ये चार अनुयोग कुछ रूपान्तर से मिलते है । उनके नाम क्रमशः ये है: (१) प्रथमानुयोग (२) करणानुयोग (३) चरणादुयोग (४) द्रव्यानुयोग२२। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार चार अनुयोगो का विषय क्रमश: इस प्रकार है (१) आचार (२) चरित, दृष्टान्त, कथा आदि (३) गणित, काल (४) द्रव्य, तत्त्व दिगम्बर-मान्यता के अनुसार चार अनुयोगो का विषय क्रमशः इस प्रकार है: (१) महापुरुषों के जीवन-चरित्र (२) लोकलोक विभक्ति, काल, गणित (३) आचार (४) द्रव्य, तत्त्व । दिगम्बर आगमो को लुप्त मानते है, इसीलिए वे प्रथमानुयोग में महापुराण और पुराण, करणानुयोग में त्रिलोक-प्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार, चरणानुयोग में मूलाचार और द्रव्यानुयोग मे प्रवचनसार, गोम्मटसार मादि को समाविष्ट करते है। लेखन और प्रतिक्रिया जैन-साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारम्भ प्राग-ऐतिहासिक है । प्रज्ञापना में १८ लिपियों का उल्लेख मिलता है २ । भगवान् ऋषभनाथ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियां सिखाई-ऐसा उल्लेख विशेषाश्यक भाष्यवृत्ति, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि में मिलता है २४ । जैन सूत्र वर्णित ७२ कलाओ में लेख-कला का पहला स्थान है२५ । भगवान् ऋषभनाथ ने ७२ कलाओ का उपदेश किया तथा असि, मसि और कृषि-न्ये तीन प्रकार के व्यापार चलाए२६ । इनमें आये हुए लेख-फला और मषि शब्द लिखने की परम्परा को कर्म-युग के आरम्भ तक ले जाते है । नन्दी सूत्र में तीन प्रकार का अक्षर-श्रुत बतलाया है। इसमें पहला Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [७३ संज्ञाक्षर है । इसका अर्थ होता है-अक्षर की आकृति-सस्थान लिपि । लेख-सामग्री प्राग-ऐतिहासिक काल में लिखने की सामग्नी कैसी थी, यह निश्चय पूर्वक नही कहा जा सकता२७ । राजप्रश्नीय सूत्र मे पुस्तक रत्न का वर्णन करते हुए कम्बिका (कामी ), मोरा, गांठ, लिप्यासन ( मषिपात्र ) छदन, (ढक्कन) सांकली, मपि और लेखनी-इन लेख सामग्नी के उपकरणो की चर्चा की गई है । प्रज्ञापना में 'पोत्यारा' शब्द आता है२८ । जिसका अर्थ होता है-लिपिकारपुस्तक-विज्ञान-आर्य-इसे शिल्पार्य में गिना गया है तथा इसी सूत्र में बताया गया है कि अर्ध-मागधी भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले भापार्य होते है । भगवती सूत्र के आरम्भ मे ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसकी पृष्ठभूमि मे भी लिखने का इतिहास है । भाव-लिपि के पूर्व वैसे ही द्रव्यलिपि रहती है, जैसे भाव-श्रुत के पूर्व द्रव्य-श्रुत होता है । द्रव्य-श्रुत धूयमाण शब्द और पाठ्यमान शब्द दोनो प्रकार का होता है । इससे सिद्ध है कि द्रव्य-लिपि द्रव्य-श्रुत से अतिरिक्त नही, उसी का एक अश है। स्थानांग मे पाँच प्रकार की पुस्तकें वतलाई है३० -(१) गण्डी (२) कच्छवी (३) मुष्टि (४) सपुट फलक (५) सृपाटिका । हरिभद्र सूरि ने भी दशवकालिक टीका मे प्राचीन आचार्यो की मान्यता का उल्लेख करते हुए इन्ही पुस्तको का उल्लेख किया है। निशीथ चूर्णी में भी इनका उल्लेख है । अनुयोग द्वार का पोत्यकम्म (पुस्तक. कर्म) शब्द भी लिपि की प्राचीनता का एक प्रबल प्रमाण है । टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताड-पत्र अथवा सपुटक-पत्र सचय किया है और कर्म का अर्थ उसमे वर्तिका आदि से लिखना । इसी सूत्र मे आये हुए पोत्यकार (पुस्तककार ) शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने वाला' किया है । जीवाभिगम (३ प्रति ४ अधि० ) के पोत्यार (पुस्तककार ) शब्द का भी यही अर्थ होता है । भगवान् महावीर की पाठशाला में पढ़ने लिखने की घटना भी तात्कालिक लेखन-प्रथा का एक प्रमाण है । वीर-निर्माण की दूसरी शताब्दी में आक्रान्ता सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआस ने लिखा है 33.-'भारतवासी लोग कागज बनाते थे३४ ।' ईसवी के दूसरे शतक मे ताड़ पत्र और चौथे मे भोज-पत्र लिखने Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] जैन परम्परा का इतिहास के व्यवहार में लाए जाते थे ३५ । वर्तमान में उपलब्ध लिखित ग्रन्थों में ई० स० पांचवीं मे लिखे हुए पत्र मिलते हैं ३६ । तथ्यों के आधार पर हम जान सकते हैं कि भारत में लिखने की प्रथा प्राचीनतम है । किन्तु समय-समय पर इसके लिए किन-किन साधनों का उपयोग होता था, इसका दो हजार वर्ष पुराना रूप जानना अति कठिन है । मोटे तौर पर हमें यह मानना होगा कि भारतीय वाङ्मय का भाग्य लम्बे समय तक कण्ठस्थ - परम्परा में ही सुरक्षित रहा है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओ के शिष्य उत्तराधिकार के रूप में अपने-अपने आचार्यों द्वारा विधान का अक्षय कोष पाते थे । आगम लिखने का इतिहास जैन दृष्टि के अनुसार श्रुत-आगम की विशाल ज्ञान राशि १४ पूर्व में संचित है । वे कभी लिखे नही गए। किन्तु अमुक-अमुक परिणाम स्याही से उनके लिखे जा सकने की कल्पना अवश्य हुई है - द्वादशवर्षीय दुष्काल के बाद मथुरा में -- आर्य - स्कन्दिल की अध्यक्षता में साधु- संघ एकत्रित हुआ । आगमों को संकलित कर लिखा गया और आर्य स्कन्दिल ने साधुओ को अनुयोग की वाचना दी। इस लिए उनकी वाचना माथुरी वाचना कहलाई । इनका समय वीर निर्माण ८२७ से ८४० तक माना जाता है । मथुरा वाचना के ठीक समय पर वल्लभी में नागार्जुन सूरि ने श्रमण संघ को एकत्र कर आगमों को संकलित किया । नागाजुन और अन्य श्रमणों को जो आगम और प्रकरण याद थे, वे लिखे गए । सकलित आगमों की वाचना दी गई, यह 'नागार्जुनीय' वाचना कहलाती है । कारण कि इसमें नागार्जुन की प्रमुखता थी । वीर निर्माण ६५० वर्ष में देवद्विगणि क्षमाश्रमण ने फिर आगमो को पुस्तकारूड किया और सघ के समक्ष उसका वाचना किया | यह कार्य बलभी में सम्पन्न हुआ । पूर्वोक्त दोनो वाचताओं के समक्ष लिखे गए आगमों के अतिरिक्त अन्य प्रकरण-ग्रन्थ भी लिखे गए। दोनो वाचनाओ के सिद्धान्त का समन्वय किया गया और जो महत्वपूर्ण भेद थे उन्हे 'पीठान्तर' आदि वाक्यावली के साथ आगम, टीका, चूर्णि मे सगृहीत किया गया ३८ । 3 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहासे । ७५ प्रतिक्रिया आगमो के लिपि-बद्ध होने के उपरान्त भी एक विचारधारा ऐसी रही कि साधु पुस्तक लिख नही सकते और अपने साथ रख भी नही सकते । पुस्तक लिखने और रखने में दोष बताते हुए लिखा है। १-अक्षर लिखने मे कुन्थु आदि त्रस जीवो की हिसा होती है, इसलिए पुस्तक लिखना सयम विराधना का हेतु है३' । २-पुस्तको को नामान्तर ले जाते हुए कधे छिल जाते है, व्रण हो जाते है। ३-उनके छेदो की ठीक तरह 'पडिलेहना' नही हो सकती। ४-मार्ग में भार बढ़ जाता है । ५-वे कुन्यु आदि जीवो के आश्रय होने के कारण अधिकरण है अयवा चोर आदि से चुराये जाने पर अधिकरण हो जाते है । ६-तीर्थकरो ने पुस्तक नामक उपधि रखने की आज्ञा नही दी है । ७-उनके पास मे होते हुए सूत्र-गुणन में प्रमाद होता है-आदि-आदि । साधु जितनी बार पुस्तको को बांधते है, खोलते है और अक्षर लिखते है उन्हें उतने ही चतुर्लघुको का दण्ड आता है और भाज्ञा आदि दोष लगते है४० । आचार्य भिक्षु के समय भी ऐसी विचारधारा थी । उन्होने इसका खण्डन भी किया है। कल्प्य-अकल्ल्य-मीमांसा आगम सूत्रो मे साधु को न तो लिखने की स्पष्ट शब्दो मे आज्ञा ही है और न निषेव भी किया है। लिपि की अनेक स्थानो मे चर्चा होने पर साधु लिखते थे, इसकी कोई चर्चा नही मिलती। साधु के लिए स्वाध्याय और ध्यान का विधान किया है। उसके साथ लिखने का विधान नहीं मिलता। ध्यान कोष्ठोपगत, स्वाव्याय और सद्ध्यान रक्त आदि पदो की भांति-'लेख रक्त' आदि शब्द नही मिलते४२ । साधु की उपघि-सख्या मे भी लेखन सामग्नी के किसी उपकरण का उल्लेख नही मिलता । ये सब पुराकाल मे 'जैन साधु नही लिखते थे'इसके पोषक है । ऐसा एक मन्तव्य है। फिर भी उनको लिखने का कल्प नही था -ऐसा उनके आधार पर नहीं कहा जा सकता । इनमें एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है । वह है उपवि को सख्या । कई आचार्यों का १४ उपधि से अधिक उपधि न रखने का आग्रह था। आचार्य भिक्षु ने इसके प्रतिकार में यह बताया Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६.] जैन परम्परा का इतिहास 3 वह हमारे आचार्यो की कि साधु इनके अतिरिक्त उपकरण रख सकता है । प्रश्न व्याकरण में साधु के लिए लगातार १६ उपधि गिनाये है४४ । अन्य सूत्रों की साक्षी से उपधि का सकलन किया जाय तो उनकी सख्या ३० तक पहुँच जाती है । साध्वी के लिए ४ उपधि और स्थवीर के लिए ११ उपधि और अधिक बतलाए गए है ४५ । अब प्रश्न यह होता है कि उपकरणों की इस सख्या से अतिरिक्त उपकरण जो रखे जाते है, वे कैसे ? इसके उत्तर मे कहना होगा कि स्थापना है | सूत्र से विरुद्ध न समझ कर उन्होने वैसी आज्ञा दी है । जैसा कि आचार्य भिक्षु ने ६ कहा है ४ | केवल लिखने के लिए सम्भवत २०-२५ या उससे भी अधिक उपकरणों की जरूरत होती है। सूत्रो में इनके रखने की साफ शब्दों में आज्ञा तो दूर चर्चा तक नही है । इसी आधार पर कइयो ने पुस्तक - पन्नो तथा लेख - सामग्री रखने का विरोध किया । इस पर आचार्य भिक्षु ने कहा कि सूत्रो मे शुद्ध साधुओ के लिए लिखना चला बताया गया है४७ | इसलिए पन्नें तथा लेख सामग्री रखने में कोई दोष नही है । क्योंकि जो लिखेंगे, उन्हें पत्र और लेखनी भी रखने होगे । स्याही भी और स्थायी - पात्र भी ४८ । आचार्य भिक्षु ने साधु को लिखना कल्पता है और जब लिखने का कल्प है तब उसके लिए सामग्री भी रखनी होगी, ऐसा स्थिर विचार प्रस्तुत हो नही किया अपितु प्रमाणों से समर्थित - भी किया है । इसके समर्थन में चार शास्त्रीय प्रमाण दिए है ४९ । इनमें निशीथ की प्रशस्ति गाथा को छोड़ कर शेष तीनो प्रमाण लिखने की प्राचीनता के साधक है - इसमे कोई सन्देह नही । बहुविध अवग्रह वाली मति-सम्पदा से साधुओ के लिखने की पद्धति की स्पष्ट जानकारी मिलती है । निशीथ को प्रशस्ति गाथा का लिखित ( लिहिय ) शब्द महतर विशाख गणि की लिपि का सूचक माना जाय तो यह भी लिखने का एक पुष्ट प्रमाण माना जा सकता है । किन्तु यदि इस लिखित दद को अन्य अर्थ में लिया जाय तो हमें मानना होगा कि मूल पाठ मे लिखने की बात नही मिलती । इसलिए हमे इसे आचार्यो के द्वारा की हुई सयौक्तिक स्थापना ही मानना होगा । पूर्ववर्ती आचार्यों ने शास्त्रो का विच्छेद न हो, इस दृष्टि से आगे चल कर पुस्तक रखने का विधान किया, यह भी उनकी जीत - व्यवहार- परम्परा है५० । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [७७ अंग-उपांग तथा छेद और मूल - दिगम्वर-साहित्य मे आगमो के दो ही विभाग मिलते है—अंग-प्रविष्ट और अग-बाह्य । श्वेताम्वर-परम्परा मे भी मूल-विभाग यही रहा। स्थानांग, नन्दी आदि मे यही मिलता है। आगम-विच्छेद काल मे पूर्वो और अगो के नि!हण और शेषांप रहे, उन्हे पृथक् सज्ञाएं मिली। निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प और दशाश्रुत-स्कन्ध को छेद-सूत्र कहा गया । आगम-पुरुष की कल्पना हुई, तब अंग-प्रविष्ट को उसके अंग स्थानीय और वारह सूत्रो का उपांग-स्थानीय माना गया। पुरुष के जैसे दो पैर, दो जंघाएं, दो ऊरु, दो गात्रार्घ, दो वाहु, ग्रीवा और शिर-ये बारह अग होते है, वैसे ही आचार आदि श्रुत-पुरुप के बारह अग है। इसलिए ये अग-प्रविष्ट कहलाते है५१ । कान, नाक, आँख, जघा, हाय और पैर-ये उपांग है। श्रुत-पुरुप के भी औपपातिक आदि बारह उपांग है । वारह अगों और उनके उपांगो की व्याख्या इस प्रकार है :-- उपांग औपपातिक सूत्र राजप्रश्नीय जीवाभिगम प्रज्ञापना भगवती सूर्य-प्रज्ञप्ति मातृवर्म कथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति उपासकदशा चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृद्-दशा कल्पिका अनुत्तरीपपातिक दशा कल्पावतसिका प्रश्न-व्याकरण पुष्पिका पुष्प-चूलिका दृष्टिवाद वृष्णि-दशा" अग आचार स्थान समवाय विपाक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७] जैन परम्परा का इतिहास उपांग का प्रयोग उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्ध-भाष्य में किया है५३ । अंग स्वतः और उपांग परतः प्रमाण है, इसलिए अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से यह प्रयोग समुचित है। छेद का प्रयोग उनके भाष्यों में मिलता है। मूल का प्रयोग सभवतः सबसे अधिक अर्वाचीन है। दशवैकालिक, नन्दी, उत्तराध्ययन और अनुयोगद्वारये चार मूल माने जाते है। कई आचार्य महानिशीथ और जीतकल्प को मिला छेद-सूत्र छह मानते है। कई जीतकल्प के स्थान में पंचकल्प को छेदसूत्र मानते है। मूल-सूत्रो को सख्या में भी एक मत नही है। कई आचार्य आवश्यक और ओघ-नियुक्ति को भी मूल-सूत्र मान इनकी संख्या छह बतलाते है। कई ओधनियुक्ति के स्थान में पिण्ड-नियुक्ति को मूल-सूत्र मानते है । कई आचार्य नन्दी और अनुयोगद्धार को मूल-सूत्र नही मानते। उनके अनुसार ये चूलिका-सूत्र है। इस प्रकार अग-बाह्य श्रुत की समय-समय पर विभिन्न रूपों मे योजना हुई है । आगमों का वर्तमान रूप और संख्या द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के पश्चात् देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्रमणसंघ मिला । बहुत सारे बहु-श्रुत मुनि काल कर चुके थे। साधुओ को सख्या भी कम हो गई थी। श्रुत की अवस्था चिन्तनीय थी। दुर्भिक्ष जनित कठिनाइयों से प्रासुक भिक्षाजीवी साधुभो की स्थिति बड़ी विचारणीय थी। श्रुत की विस्मृति हो गई। देवर्द्धिगणि ने अवशिष्ट सघ को वलभी मे एकत्रित किया। उन्हे जो श्रुत कण्ठस्थ था, वह उनसे सुना। आगमों के आलापक छिन्न-भिन्न न्यूनाधिक मिले। उन्होंने अपनी मति से उनका संकलन किया, संपादन किया और पुस्तकाद किया। आगमो का वर्तमान संस्करण देवद्धिगणि का है। अंगो के कर्ता गणधर हैं। अग बाह्य-श्रुत के कर्ता स्थविर है । उन सबका सकलन और सम्पादन करने वाले देवद्धिगणि है । इसलिए वे आगमों के वर्तमान-रूप के कर्ता भी माने जाते हैं ५४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६ जैन परम्परा का इतिहास नंदो सूत्र में आगमों की सूची इस प्रकार है : आगम अग प्रविष्ट अग बाहिर (अनंग प्रविष्ट) आवश्यक आवश्यक-व्यतिरिक्त आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, विवाहप्राप्ति, ज्ञातृधर्मकया, उपासकदशा, अन्तकृदृशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक, दृष्टिवाद । सामायक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान - कालिक उत्कालिक उत्तराध्ययन, दशाश्रुत-स्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋपिभापित, जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति, दीप सागर प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रनप्ति, क्षुल्लिका विमान प्रविभक्ति, महल्लिका विमान. प्रविभक्ति, अगचूलिका, वगचूलिका, विवाहचूलिका, अरुणोवपात, वरुणोवपात, गरुलोवपात, घरणोवपात, वेसमणोवपात, वेलघरोवपात, देविंदोवपात, उत्यानश्रुत, समुत्थान श्रुत, नागपरियापनिका, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पवतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, आशीविषभावना, दृष्टिविषभावना चारण-भावना, महास्वप्न-भावना, तेजोनिनिसर्ग । दशवकालिक, कल्पिकाकल्पिक, चुल्लकल्प श्रुत, महाकल्प श्रुत, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन परम्परा का इतिहास औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महाप्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार, देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रावेध्यक, सूर्यप्रज्ञप्ति, पौरुषी मंडल, मंडल प्रवेश, विद्या-चरण-विनिश्चर्य, गणि-विद्या, ध्यान-विभक्ति, मरणविभक्ति, आत्म-विशोधि, वीतराग-श्रुत, सलेखना-श्रुत, विहार-कल्प, चरणविधि, आतुर-प्रत्याख्यान, महा-प्रत्याख्यान । ( न० ४६ ) इनमें से कुछ आगम उपलब्ध नही है। जो उपलब्ध है, उनमें मूर्ति-पूजक सम्प्रदाय कुछ नियुक्तियो को मिला ४५ या ८४ आगमों को प्रमाण मानता है । ४५ आगमों की सूची (१) आचारांग (२१) पुष्पिका (२) सूत्रकृतांग (२२) पुष्प-चूलिका (३) स्थानांग (२३) वृष्णि-दशा (४) समवायांग (२४) आवश्यक (५) व्याख्या प्रज्ञप्ति (२५) दशवकालिक (६) ज्ञातृ धर्म कथा (२६) उत्तराध्ययन (७) उपासकदशा (२७) पिण्ड-नियुक्ति (८) अन्तकृद्दशा अथवा ओघ-नियुक्ति (६) अनुत्तरौपपातिक (२८) नन्दी (१०) प्रश्न-व्याकरण (२९) अनुयोगद्वार (११) विपाक (३०) निशीथ (१२) औपपातिक (३१) महा-निशोथ (१३) राजप्रश्नीय (३२) वृहत्कल्प (१४) जीवाजीवामिगम (३३) व्यवहार (१५) प्रज्ञापना (३४) दशाश्रुत-स्कध (१६) सूर्य-प्रज्ञप्ति (३५) पचकल्प ( विच्छिल ) (१७) चन्द्र-प्रज्ञप्ति (३६) आतुर-प्रत्याख्यान (१८) जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (३७) भक्तपरिज्ञा (१९) कल्पिका (३८) तन्दुल-वैचारिक २०) कल्पावतसिका (३९) चन्द्र-वेध्यक Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) देवेन्द्रस्तव ( ४१ ) गणि- विद्या (४२) महा - प्रत्याख्यान ८४ आगमों की सूची जैन परम्परा का इतिहास १ से ४५ - पूर्वोक्त ४६ - कल्प-सूत्र ( पर्यूषणकल्प, जिन-चरित, स्थविरावलि, समाचारी ) दोनो जीत - कल्प ४७- - यतिजीत - कल्प (सोमप्रभ सूरि ) ४८ - श्रद्धाजीत - कल्प ( धर्मघोषसूरि ) ४६ - पाक्षिक-सूत्र { ५० -- क्षमापना - सूत्र ५१ - वंदितु ५२ -- ऋषि-भाषित ५३ ---अजीव - कल्प ५४ - गच्छाचार ५५- मरण- समाधि ५६ - सिद्ध- प्राभृत ५७ - तीर्थोद्गार (४३) चतुःशरण (४४) वीरस्तव ' (४५) संस्तारक ५८--आराधना-पताका ५६ - द्वीपसागर प्रज्ञप्ति ६० - ज्योतिप करण्डक ६१ - अंग - विद्या ६२ - - तिथि प्रकीर्णक ६३ - पिण्ड - विशुद्धि ६४ - सारावलि ६५ - पर्यन्ताराधना ६६ - जीव विभक्ति ६७ - कवच - प्रकरण ६८ --- योनि-प्राभृत आवश्यक सूत्र के अग हैं । ६६ - अगचूलिया ७० - वग्गचूलिया ७१ - वृद्ध चतु शरण ७२ -- जम्बू- पयन्ना ७१ – आवश्यक-निर्युक्ति ७४ - दशवेकालिक - निर्युक्ति ७५ --- उत्तराध्ययन-निर्युक्ति ७६---आचारांग - निर्युक्ति ७७ - सूत्रकृतांग - निर्युक्ति - सूर्य-प्रज्ञप्ति ७८ ७६ -- बृहत्कल्प -निर्युक्ति - व्यवहार -05 ८१ -- दशाश्रुतस्कघ - निर्युक्ति ८२ -- ऋपिभाषित- निर्युक्ति ८३ --- ससक्त निर्युक्ति ८४ ( अनुपलब्ध ) विशेष आवश्यक भाष्य ८१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन परम्परा का इतिहास स्थानकवासी और तेरापन्थ के अनुसार मान्य आगम ३२ है। वे ये है: । आगम १-दशव कालिक १-निशीथ २-व्यवहार ३-वृहत्कल्प ४-दशाश्रुत २-उत्तरा ध्ययन ३-अनुयोग स्कन्ध अंग उपांग १-माचारांग १-औपपातिक २-सूत्रकृतांग २-राजप्रभीय ३-स्थानांग ३-जीवाभिगम ४-समवायांग ४-प्रज्ञापना ५-भगवती ५-जम्बूद्वीप६-ज्ञातृधर्मकथा प्राप्ति ७-उपासकदशा ६-चन्द्र-प्रज्ञप्ति -अन्तकृद्दशा ७-सूर्य-प्रज्ञप्ति 8-अनुत्तरोप- ८-निरयावलिका पातिक -कल्पवतंसिका १०-प्रभ-व्याकरण १०-पुष्पिका ११-विपाक ११-पुष्पिचूलिका १२-वृष्णिदशा ४-नन्दी १-आवश्यक आगमका व्याख्यात्मक आगम के व्याख्यात्मक साहित्य का प्रारम्भ नियुक्ति से होता है और वह 'स्तबक" व जोडो-तक चलता है । द्वितीय भद्रबाहु ने ११ नियुक्तियां लिखी :१-आवश्यक-नियुक्ति ७-वृहत्कल्प-नियुक्ति २–दशवकालिक-नियुक्ति -व्यवहार-नियुक्ति ३-उत्तराध्ययन-नियुक्ति ६-पिण्ड-नियुक्ति ४-आचारांग-नियुक्ति १०-ओघ-नियुक्ति ५--सूत्रकृतांग-नियुक्ति ११-ऋषिभाषित-निर्युक्ति ६- दशाश्रुतस्कंध-निर्मुक्ति Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ इनका समय विक्रम की पाँचवी, छठी शताब्दी है । वृहत्कल्प की नियुक्ति भाष्य- मिश्रित अवस्था मे मिलती है, व्यवहार -निर्युक्ति भी भाष्य मे मिली - भाष्य और भाष्यकार - जैन १ - दशर्वकालिक - भाष्य -व्यवहार-भाष्य ३ - बृहत्कल्प - भाष्य १ - आवश्यक १ - दशवैकालिक निर्युक्ति और भाष्य पद्यात्मक है, वे प्राकृत भाषा मे लिखे गए है । चूर्णियाँ और चूर्णिकार ३ नन्दी ४- अनुयोगद्वार ५- उत्तराध्ययन ६ – आचारांग ७ सूत्रकृतांग - निशीथ चूर्णियाँ गद्यात्मक है | इनकी भाषा प्राकृत या संस्कृत मिश्रित प्राकृत है । निम्न आगम ग्रन्यो पर चूर्णियां मिलती हैं : १० - दशाश्रुत- स्कघ ११ - बृहत् कल्प १२ - जीवाभिगम 5 परम्परा का इतिहास -} ४- - निशीथ भाष्य ५ - विशेषावश्यक भाष्य -- जिनभद्र क्षमाश्रमण ( सातवी शताब्दी ) ६- पचकल्प-भाष्य- - धर्मसेन गणी , ( छठी शताब्दी ) १३ - भगवती १४ - महा-निशीथ १५ - जीतकल्प १६ -- पचकल्प १७ - ओघ निर्युक्ति -यवहार प्रथम आठ चूर्णियो के कर्ता जिनदास महत्तर है । इनका जीवनकाल विक्रम को मानवी शताब्दी है । जीतकल्प-चूर्गी के कर्त्ता सिद्धसेन सूरि हैं । उनका जीवनकाल विक्रम की १२ वी शताब्दी है । वृहत्कल्प चूर्णी प्रलम्ब सूरि की कृति है । शेप चूर्णिकारों के विषय मे अभी जानकारी नही मिल रही है । दवैकालिक की एक चूर्णि और है । उसके कर्त्ता है— गस्त्य सिंह मुनि | उ नका समय अभी भलीभांति निर्णीत नही हुआ 1 - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] जैन परम्परा का इतिहास टीकाएं और टीकाकार - आगमों, के ..पहले संस्कृत-टीकाकार हरिभद्र सूरि है। उन्होंने आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर टीकाएं लिखी। विक्रम की तीसरी शताब्दी मे,उमास्वाति ने जैन-परम्परा में जो संस्कृतवाङ्मय, का द्वार खोला, वह अब विस्तृत होने लगा। शीलांक सूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांक पर टीकाएं लिखी। शेष नव अंगो के टीकाकार है-अभयदेव सूरि । अनुयोगद्वार पर मलधारी हेमचन्द्र की टीका है। नन्दी, प्रज्ञापना, व्यवहार, चन्द्र-प्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, आवश्यक, वृहत्कल्प, राजप्रश्नीय आदि के टीकाकार मलयगिरि हैं। आगम-साहित्य की समृद्धि के साथ-साथ न्याय-शास्त्र के साहित्य का भी, विकास हुआ । वैदिक और बौद्ध न्याय-शास्त्रियो ने अपने-अपने तत्त्वों को तर्क की कसौटी पर कस कर जनता के सम्मुख, रखने का यल किया । तब जैन न्याय . शास्त्री भी इस ओर मुड़े। विक्रम.. की पांचवी शताब्दी में न्याय का जो नया स्रोत चला, वह बारहवी शताब्दी में बहुत व्यापक हो चला ! अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में न्याय-शास्त्रियों की गति कुछ शिथिल हो गई। आगम के व्याख्याकारों की परम्परा आगे भी चली । विक्रम की १६ वी सदी मे श्रीमद् भिक्षु स्वामी और जयाचार्य आगम के यशस्वी व्याख्याता हुए । श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने आगम के सैकड़ों दुरूह स्थलो पर प्रकीर्ण व्याख्याएं लिखी हैं । जयाचार्य ने आचारांग प्रथम श्रुत-स्कन्ध, ज्ञाता, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन ( २७ अध्ययन) और भगवती सूत्र पर पद्यात्मक व्याख्या लिखी । आचारांग (द्वितीय श्रुत-स्कध ) का वार्तिक और आगम-स्पर्शी अनेक प्रकरण रचे । इस प्रकार जैन-साहित्य आगम, आगम-व्याख्या और न्याय-शास्त्र से बहुत ही समृद्ध है । इनके आधार पर ही हम जैन दर्शन के हृदय को छूने का यत्न करेंगे। परवर्ती-प्राकृत साहित्य आगम-लोप के पश्चात् दिगम्बर-परम्परा में जो साहित्य रचा गया, उसमे सर्वोपरि महत्त्व षट-खण्डागस और कषाय-प्रामृत का है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [६५ पूर्वो और अगो के बचे-खुचे अंशो के लुप्त होने का प्रसंग आया । तब आचार्य धरसेन (विक्रम दूसरी शताब्दी ) ने भूतवलि और पुष्यदन्त नाम दो साधुओ को श्रुताभ्यास कराया । इन दोनों ने षट्खण्डागम की रचना की । लगभग इसी समय मे आचार्य गुणधर हुए । उन्होने कपाय-प्राभृत रचा । ये पूर्वो के गेशांप है। इसलिए इन्हें पूर्वो से उद्धृत माना जाता है । इन पर प्राचीन कई टीकाए लिखी गई है, वे उपलब्ध नहीं है। जो टीका वर्तमान मे उपलब्ध है, वह आचार्य वीरसेन की है । इन्होने विक्रम संवत् ८७३ मे षटखण्डागम की ७२ हजार श्लोक-प्रमाण घवला टीका लिखी। कषाय-पाहुड पर २० हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखी । वह पूर्ण न हो सकी, बीच मे ही उनका स्वर्गवास हो गया । उसे उन्ही के शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया । उसकी पूर्ति विक्रम सम्वत् ८६४ मे हुई । उसका शेष भाग ४० हजार श्लोक-प्रमाण और लिखा गया। दोनो को मिला इसका प्रमाण ६० हजार श्लोक होता है। इसका नाम जय-धवला है। यह प्राकृत और सस्कृत के सक्रान्ति काल की रचना है । इसीलिए इसमे दोनों भाषाओ का मिश्रण है । पट-खण्ड का अन्तिम भाग महा-बध है । इसके रचयिता आचार्य भूतवलि है । यह ४१ हजार श्लोक-प्रमाण है । इन तीनों ग्रन्थो मे कर्म का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है। विक्रम की दूसरी शती मे आचार्य कुन्दकुन्द हुए। इन्होने अध्यात्मवाद का एक नया स्रोत प्रवाहित किया । इनका झुकाव निश्चयनय की ओर अधिक था । प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकाय-ये इनकी प्रमुख रचनाए है। इनमे आत्मानुभूति की वाणी आज भी उनके अन्तर-दर्शन की साक्षी है । विक्रम दशवी शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द चक्रवर्ती हुए । उन्होने गोम्मट- - सार और लब्धिसार-क्षपणासार-इन दो ग्रन्थो की रचना की। ये बहुत ही-- महत्त्वपूर्ण माने जाते है । ये प्राकृत-शौरसेनी भाषा की रचनाएँ है। श्वेताम्वर-आचार्यो ने मध्ययुग में जैन-महाराष्ट्री मे लिखा । विक्रम की तीसरी शती मे शिवशर्म सूरि ने कम्मपपडी, उमास्वाति ने जम्बूद्वीप समास , Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन परम्परा का इतिहास लिखा । विक्रम की छठी शताब्दी में सघदास क्षमाश्रमण ने वासुदेव हिन्दी नामक एक कथा अन्य लिखा, इसका दूसरा खण्ड धर्मसेनगणी ने लिखा५५ । इसमे वसुदेव के पर्यटन के साथ-साथ अनेक लोक-कथाओ, चरित्रो, विविध वस्त्रो, उत्सवो और विनोद-साधनो का वर्णन किया है । जर्मन विद्वान् आल्सफोर्ड ने इसे वृहत्कथा के समक्ष माना है५६ । विक्रम की सातवी शताब्दी मे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हुए। विशेषावश्यक भाष्य इनकी प्रसिद्ध कृति है । यह जैनागमो की चर्चाओ का एक महान् कोष है । जीतकल्प, विशेषणवती , वृहत्-संग्रहणी और वृहत्-क्षेत्र-समास भी इनके महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। - हरिभद्र सूरि विक्रम की आठवी शती के विद्वान् आचार्य है । "समराइच्च कहा" इनका प्रसिद्ध कथा-ग्रन्थ है। सस्कृत-युग में भी प्राकृत-भाषा में रचना का क्रम चलता रहा है। मध्य काल में निमित्त, गणित, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, मन्त्रविद्या, स्वप्न-विद्या, शिल्प-शास्त्र, व्याकरण, छन्द, कोष आदि अनेक विषयक ग्रन्थ लिखे गए है५७ । संस्कृत साहित्य विशिष्ट व्यक्तियो के अनुभव, उनकी संग्रहात्मक निधि, साहित्य और उसकी आधार भाषा-ये तीनो चीजें दुनियां के सामने तत्त्व रखा करती है । सूरज, हवा और आकाश की तरह ये तीनो चीजें सबके लिए समान है । यह एक ऐसी भूमिका है, जहाँ पर साम्प्रदायिक, सामाजिक और जातीय या इसी प्रकार के दूसरे-दूसरे सब भेद मिट जाते है । ___ संस्कृत-साहित्य के समृद्धि के लिए किसने प्रयास किया या किसने न कियायह विचार कोई महत्व नही रखता । वाडमय-सरिता सदा अभेद को भूमि मे बहती है। फिर भी जैन, बौद्ध और वैदिक की त्रिपथ-गामिनी विचार धाराएं है वे त्रिपथगा (गगा) की तरह लम्बे अर्से तक वही है। प्राचीन वैदिकाचार्यों ने अपने सारभूत अनुभवों को वैदिक संस्कृत में रखा। जैनो ने अर्धमागधी भाषा और बौद्धो ने पाली भाषा के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किए । इसके बाद मे इन तीनों धर्मों के उत्तरवर्ती आचार्यों ने जो साहित्य Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ८७ बनाया, वह लौकिक ( वर्तमान में प्रचलित ) संस्कृत को पल्लवित करने वाला ही है । लौकिक संस्कृत में लिखने के सम्बन्ध मे किसने पहल की और कौन पीछे से लिखने लगा, यह प्रश्न हो सकता है किन्तु ग्रन्य किसने कम रचे और किसने अधिक रचे - यह कहना जरा कठिन है । सक्कय पाय चेव, पसत्य इसि भासिय ५० संस्कृत और प्राकृत --- ये दोनो श्रेष्ठ भाषाएं है और ऋषियों की भाषाए है । इस तरह आगम-प्रणेताओ ने संस्कृत और प्राकृत की समकक्षता स्वीकार करके सस्कृत का अध्ययन करने के लिए जैनो का मार्ग प्रशस्त वना दिया | संस्कृत भाषा तार्किको के तीखे तर्क- बाणो के लिए तूणीर बन चुकी । इसलिए इस भाषा का अध्ययन न करने वालो के लिए अपने विचारो की सुरक्षा खतरे में थी । अत सभी दार्शनिक संस्कृत भाषा को अपनाने के लिए तेजी से पहल करने लगे । जैनाचार्य भी इस दौड़ मे पीछे नही रहे । वे समय की गति को पहचान ने वाले थे, इसलिए उनकी प्रतिभा इस ओर चमकी और स्वयं इस ओर मुड़े । उन्होने पहले ही कदम मे प्राकृत भाषा की तरह संस्कृत भाषा पर भी अधिकार जमा लिया । जिस तरह से वैदिक लोग वेदो को और बौद्ध त्रिपिटक को स्वत प्रमाण मानते है, उसी प्रकार जैनो के लिए गणिपिटक ( द्वादशांगी ) स्वत प्रमाण है । गणिपिटक के अग में जो चौदह पूर्व थे, वे सस्कृत भाषा मे ही रचे गए — परम्परा से ऐसी अनुभूती चल रही है । किन्तु उन पूर्वो के विच्छिन्न हो जाने के कारण उनकी संस्कृत का क्या रूप था, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नही है । जैन साहित्य अभी जो उपलब्ध हो रहा है, वह विक्रम सम्वत् से पहले का नही है । इतिहासकार यह मानते है कि विक्रम की तीसरी शताब्दी मे उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र ( मोक्ष - शास्त्र ) की रचना की। जैन परम्परा मे संस्कृत कल्पवृक्ष का यह पहला फूल था । उमास्वाति ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यग् - चरित्र जिन्हें जैन दर्शन मोक्ष मार्ग के रूप में मानता है, को सूत्रों मे सुव्यवस्थित किया | जैनेतर विद्वानों के लिए जन-दर्शन का परिचय पाने के Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] जैन परम्परा का इतिहास लिए यह ग्रन्थ आज भी प्रमुख साधन है । उमास्वाति ने और भी अनेक ग्रन्थो की रचना की, जिनमे 'प्रशमरति' एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । उसमें प्रशम और प्रशम से पैदा होने वाले आनन्द का सुन्दर निरूपण और प्रासङ्गिक बहुत से तथ्यो का समावेश है, जैसे काल, क्षेत्र, मात्रा, सांत्म्य, द्रव्य-गुरु-लाघवं स्वबलम् ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य भुङ्कते कि भेषजस्तस्य ॥ उमास्वाति की प्रतिभा तत्त्वो का संग्रह करने में बडी कुशल थी । तत्त्वार्थसूत्र में वह बहुत चमकी है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है --'उपोमास्वाति संगृहीतार ५६...' इतिहासकार मानते है कि सिद्धसेन दिवाकर चौथी और पांचवीं शताब्दी के बीच में हुए, वे महान् तार्किक, कवि और साहित्यकार थे। उन्होंने बत्तीस बत्तीसियों ( द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका ) की रचना की । वे रचना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । उनमे भावो की गहनता और तार्किक प्रतिभा का चमत्कार है । इनके विषय में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के ये विचार है क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्थी ? अशिक्षितालापकला क्व चैपा ? तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः, स्खलद्गति स्तस्य शिशुर्न शोच्यः । ६० 'अनुसिद्धसेन कवयः, सिद्धसेन चोटी के कवि थे ६१ । उन्होने अनेकान्त दृष्टि की व्यवस्था को और अनेक दृष्टियो का सुन्दर ढग से समन्वय किया । आगमो में जो अनेकान्त के बीज बिखरे हुए पडे थे, उनको पल्लवित करने मे सिद्धसेन और समन्तभद्र-ये दोनों आचार्य स्मरणीय है। भारतीय न्याय-शास्त्र पर इन दोनों आचार्यों का वरद हाथ रहा, यह तो अति स्पष्ट है। सिद्धसेन ने भगवान् महावीर की स्तुति करते हुए साथ मे विरोधी दृष्टिकोणों का भी समन्वय किया--- क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते ' वचः स्वभावनियता प्रजा. समयतत्रवृत्ताः क्वचित् ? Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [८९ स्वय कृतभुज. क्वचित परकृतोपभोगाः पुन नर्वा विशद-वाद ! दोष-मलिनोऽस्यहो विस्मय.६ । परमात्मा में अपने को विलीन करते हुए सिद्धसेन कहते है न शब्दो, न रूप रसो नापि · गन्धो, न वा स्पर्शलेशो न वर्णो न लिङ्गम् । न पूर्वापरत्वं न यस्यास्ति सज्ञा, स एक परात्मा गतिमे जितेन्द्र-६३॥ जैन-न्याय की परिभाषाओ का पहला रूप न्यायावतार में ही मिलता है । आचार्य समन्तभद्र के विपय में दो मत है-~कुछ एक इतिहासकार इनका अस्तित्व सातबी शताब्दी में मानते है और कुछ एक चौथी शताब्दी मे ६४ ॥ उनकी रचनाए देवागम-स्त्रोत, युक्त्यनुशासन, स्वयभू-स्त्रोत आदि है । आधुनिक युग का जो सव से अधिक प्रिय शब्द 'सर्वोदय' है, उसका प्रयोग आचार्य समन्तभद्र ने वडे चामत्कारिक ढग से किया है सर्वान्तवत् तद् गुणमुख्यकल्प, सर्वान्तशून्यञ्च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त, सर्वोदय तीर्थमिद तवैव ६॥ विक्रम की तीसरी शताब्दी मे जैन परम्परा में जो सस्कृत-साहित्य किशोरावस्था मे था, वह पांचवीं से अठारहवी शताब्दी तक तरुणावस्था में रहा। अठारहवी शताब्दी मे उपाध्याय यशोविजयजी हुए, जो एक विशिष्ट श्रुतधर विद्वान् थे । जिन्होने सस्कृत-साहित्य को खूब समृद्ध बनाया । उनके कुछ एक तथ्य भविष्य की बात को स्पष्ट करने वाले या क्रान्त-दर्शन के प्रमाण है। आत्मप्रवृत्तावति जागरूक , परप्रवृत्ती बधिरान्धमूकः । सदा चिदानन्दपदोपभोगी, लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी ६६॥ महात्मा गांधीजी को जो भेट स्वरूप तीन वन्दर मिले थे, उनमें जो आरोपित कल्पनाए है, वे इस श्लोक के 'वधिरान्धमूक' शब्द में स्पष्ट संकेतित है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] जैन परम्परा का इतिहास उपाध्याय यशोविजयजी ने केवल दर्शन-क्षेत्र में ही समन्वय नही किया बल्कि योग के विषय में भी बहुत बडा समन्वय प्रस्तुत किया। पातञ्जल योगसूत्र का तुलनात्मक विवरण, योगदीपिका, योगविंशिका की टीका आदि अनेक ग्रन्थ उसके प्रमाण है। इन्होने नव्य-न्याय की शैली मे अधिकार पूर्वक जैन-न्याय के ग्रन्थ तैयार किए । बनारस में विद्वानो से सम्पर्क स्थापित करके जैन-न्याय की प्रतिष्ठा बहुत बढाई । ये 'लघुहरिभद्र' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। हरिभद्र सूरि का समय विक्रम की आठवी शताब्दी माना जाता है । इन्होने १४४४ प्रकरणों की रचना की ऐसा सुप्रसिद्ध है ६७ । इनमे से जो प्रकरण प्राप्त है, वे इनके प्रखर पाण्डित्य को बताने वाले है। अनेकान्त-जयपताका आदि आकर (बड़े ) ग्रन्थ दार्शनिक जगत् के गौरव को पराकाष्ठा तक पहुंचा देते है । यशोविजय ने योग के जिस मार्ग को विशुद्ध बनाया उसके आदि बीज हरिभद्र सूरि ही थे। योग-दृष्टि-समुच्चय, योग-विन्दु, योग-विंशिका आदि समन्वयात्मक ग्रन्थ योग के रास्ते मे नये कदम थे । दिडनाग-रचित न्याय-प्रवेश की टीका लिख कर इन्होने जैनो को बौद्ध-न्याय का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। समन्वय की दृष्टि से इन्होंने नई दिशा दिखाई। लोकतत्त्व-निर्णय की कुछ एक सूक्तियाँ दृष्टि में ताजगी भर देती है जैसे पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य. परिग्रहः ॥ दार्शनिक-मूर्धन्य अकलंक, उद्योतन सूरि जिनसेन, सिद्धषि आदि-आदि अनेक दूसरे-दूसरे बड़े प्रतिभाशाली साहित्यकार हुए। समस्त साहित्यकारो के नाम बताना और उनके ग्रन्थो की गणना करना जरा कठिन है । यह स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने प्रचलित समस्त विषयों में अपनी लेखनी उठाई । अनेक ग्रन्थ ऐसे वृहत्काय बनाए, जिनका श्लोक-परिमाण ५० हजार से भी अधिक है । सिद्धर्षि की बनाई हुई 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' कथा-साहित्य का एक उदाहरणीय ग्रन्थ है । कुवलयमाला, तिलक मञ्जरी, यशस्तिलक-चम्पू आदि अनेक गद्यात्मक ग्रन्थ भाषा की दृष्टि से बडे महत्त्वपूर्ण है। चरित्रात्मक काव्य भी बहुत बड़ी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [६१ सत्या मे लिखे गए । जो सस्कृत नही जानते है, उनका भी सस्कृत के प्रति जो आकर्षग है उसका एकमात्र यही कारण है कि उसमे महापुरुषो के जीवन-चरित्र सकलित किये गए है। ___नीति-शास्त्र और अर्थ-शास्त्र के जो ग्रन्थ लिखे गए, उनकी भापा ने भी लोगो को अपनी ओर अधिक आकृष्ट किया। सस्कृत-साहित्य की रसभरी सूक्तियां और अपनी स्वतन्त्र विशेषताए रखने वाले सिद्धान्त जन-जन की जवान पर आज भी अपना स्थान बनाये हुए है। आचार्य हेमचन्द्र ने अर्हन्तीति नामक जो एक सक्षित ग्रन्य बनाया है, उसमे कुछ एक ऐसे तत्त्व है जो युद्ध के नगे ने अपने विवेक को खो बैठे है, उनके भी विवेक को जगाने वाले है । उदाहरण के तौर पर एक श्लोक पढिए सन्दिग्यो विजयो युद्ध, ऽसन्दिग्यः पुरुपक्षयः । सत्स्वन्येविलुपायेपु, भूपो युद्ध विवर्जयेत् ८ ॥ व्याकरण भापा का आधार होता है । गुजरात और वगाल मे पाणिनिव्याकरण का प्रचलन बहुत थोडा था । वहाँ पर कालापक और कातन्त्र व्याकरण को मुखता थी। किन्तु ये दोनो व्याकरण सर्वाङ्गपूर्ण और सांगोपांग नही थे। आचार्य हेमचन्द्र ने सांगोपांग 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' नामक व्याकरण की रचना को । उनका गौरव बड़े श्रद्धा भरे गन्दो मे गाया गया है- • किं स्तुमः शब्दपायोघेहेमचन्द्रयतेमतिम् । एकेनापि हि येनेहक, कृत शब्दानुशासनम् ॥ व्याकरण के पाँच अग है ! सूत्र, गणपाठ सहित वृत्ति, धातुपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन । इन सब अगो की स्वय अकेले हेमचन्द्र ने रचना करके सर्वथा स्वतन्त्र व्याकरण बनाया । जैनो के दूसरे भी चार व्याकरण हैं-विद्यानन्द, मुण्टि, जैनेन्द्र और गाकटायन । अठारहवी शताब्दी के वाद संस्कृत का प्रवाह सर्वथा रुक गया हो, यह बात नहीं । वीसवी सदी मै तेरापंथ सम्प्रदाय के मुनि श्री चौथमलजी ने 'भिक्षु गन्दानुशासन' नामक महाव्याकरण की रचना की। आचार्य लावण्य सूरि ने Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२1 जैन परम्परा का इतिहास धातु-रत्नाकर के सकलन में बहुत बड़ा प्रयत्न किया। इस सदी में दूसरे भी बहुत से प्रयत्न सस्कृत-साहित्य की रचना के लिए हुए । जैनो ने केवल साहित्य-प्रणयन के द्वारा ही सस्कृत के गौरव को नही बढाया किन्तु साहित्य को सुन्दर अक्षरो में लिपिबद्ध करके पुस्तक भण्डारो में उसकी सुरक्षा करते हुए सस्कृत की धारा को अविच्छिन्न रूप से चालू रखा । बहुत से बौद्ध और वेदिक-शास्त्रो की प्रतिलिपियाँ आज भी जैन-भण्डारो में सुरक्षित है। ___ जैनाचार्यो ने बहुत से जैनेतर-ग्रन्थो की टीकाएबना कर अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का सुन्दर परिचय दिया । भानुचन्द्र और सिद्धचन्द्र की बनाई हुई जो कादम्बरी की टीका है, उसे पडितो ने मुख्य रूप से मान्य किया है । जैनाचार्यो ने रघुवश, कुमारसम्भव, नैषध आदि अनेक काव्यो की टीकाए बनाई है । सारस्वत, कातन्त्र आदि व्याकरण, न्याय-शास्त्र तथा और भी दूसरे विषयो को लेकर इस तरह अपनी लेखनी चलाई कि साहित्य सभी की समान सम्पत्ति हैयह कहावत चरितार्थ हो गई। ___ कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र का समय सस्कृत के ह्रास की ओर झुकने वाला समय था । आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत और अपभ्रश के समर्थक थे। फिर भी उन्होने सस्कृत-साहित्य को खूब समृद्ध बनाया । फलतः उसके रुके हुए प्रवाह को अन्तिम श्वास गिनने का मौका न मिल सका। आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्वाचार्यों की आलोचनाएं की और उनकी विशेषताओ का आदर भी किया । 'सूक्ष्मदर्शिना धर्म-कीर्तिना' आदि को जेनेतर आचार्यों के विषय मे इनके उद्गार निकले है, वे इनकी उदार-वृत्ति के परिचायक है। समस्त जन विद्वानो के प्रौढतम तों, नये-नये उन्मेपवाले विचारो, चिरकाल के मन्यन से तैयार की हुई नवनीत जैसी सुकुमार रचनाओ, हिमालय जैसे उज्जवल अनुभवो और सदाचार का निरूपण सस्कृत भाषा में हुआ है। मध्ययुग जनाचार्यो ने अलौकिक सस्कृत-भाषा को जनसाधारण को भाषा करने का जो प्रयत्न किया है, सम्भवत उसका मूल्यांकन ठीक नही हो पाया। आगमो की वृत्तियो और टीकाओं में संस्कृत-भाषा को व्यापक बनाने के लिए मध्ययुग के इन आचार्यों ने प्रान्तीय शब्दो का बहुत सग्रह किया । उत्तरवर्ती Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ जैन परम्परा का इतिहास सस्कृत-लेखक भी उसी पद्धति का अनुसरण करते तो आज सस्कृत को मृत-भाषा की उपाधि न मिलती । यह सम्भव नहीं कि कोई भी भाषा जन-सम्पर्क से दूर रह कर चिरजीवी वन सके । कोरे साहित्यिक रूप मे रहने वाली भापा ज्यादा टिक नही सकती। ___ अनेक व्यक्तियो ने सस्कृत को उपेक्षा की नजर से देखा किन्तु समय-समय पर उन्हें भी इसको अपेक्षा रखनी पड़ी है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि सस्कृत में लोगो के श्रद्धा-स्पद धार्मिक विचारो का सग्रह और बहुत से स्तुत्यात्मक ग्रन्य है। आचार्य हेमचन्द्र ने परमार्हत राजा कुमारपाल के प्रात स्मरण के लिए वीतरागस्तव बनाया । उसका पाठ करते हुए भावुक व्यक्ति भक्ति-सरिता में गोते खाने लग जाते है। तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकऽस्म्यस्मि किङ्कर । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ नात पर ब्रवे० ॥ इस श्लोक मे भाचार्य हेमचन्द्र वीतराग के चरणो मे आत्म-समर्पण करके भार-मुक्त होना चाहते है । और कही पर यह कह बैठते है कि कल्याणसिद्ध य साधीयान्, कलिरेव कपोपल । विनाग्नि गन्ध-महिमा काकतुण्डस्य नैधते.१ ॥ वीतराग मे भक्ति-विभोर बन कर आचार्य हेमचन्द्र कलिकाल के कण्टो को भी भूल जाते है। काव्य के क्षेत्र मे भी जैनाचार्य पीछे नहीं रहे । त्रिपष्टिशलाका पुरुपचरित्र, शान्तिनाथ चरित्र, पद्मानन्द महाकाव्य और भरत-बाहुबलि आदि काव्य काव्यजगत् मे शीर्पस्थानीय है । उनकी टीकाएं न होने के कारण आज भी उनका प्रचार पर्याप्त नही है । वहुत मारे काव्य आज भी अप्रकाशित है, इसलिए लोग उनकी विशेषताओ से अपरिचित है। अष्टलक्षार्थी काव्य मे 'राजानो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरो के आठ लाख अर्थ किये गये है। इससे आचार्य ने दो तथ्य हमारे सामने रखे है-एक तो यह कि वर्णो मे अनन्त पर्याप्त है। दूसरा तथ्य यह कि सस्कृत मे एक ऐसा लचीलापन है कि जिससे वह अनेक विवर्ती (परिवर्तनो) को सह सकता है । सप्त-सन्धान काव्य मे बुद्धि की विलक्षणता है। वह मानस को आश्चर्य-विभोर किये देती है। प्रत्येक श्लोक में सात व्यक्तियो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४) जैन परम्परा का इतिहास का जीवन-चरित्र पढा जाता है। उन्होने शब्द-लालित्य के साथ भाव-लालित्य का भी पूरा ध्यान रखा है। दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्तियो के बीच दरार डालने की विशाल शक्ति होती है। उसकी विशालता के सामने कवि को बड़े बड़े समुद्र और पहाड़ भी छोटे से दीखने लगते है। भवतात् तटिनीश्वरोन्तरा विषमोऽस्तु क्षितिभृचयोन्तरा।। सरिदस्तु जलाधिकान्तरा पिशुनो मास्तु किलान्तरावयो ७२ ॥ अपने बड़े भाई सम्राट भरत को मारने के लिए पराक्रम-मूर्ति बाहुबलि की मुष्टि ज्योहि उठती है, त्योही देववाणी से वह शान्त हो जाती है। कवि इस स्थिति को ऐसे सुन्दर ढग से रखता है कि पाठक शमरस-विभोर बन जाते है । अयिबाहुबले कलहायवल, भवतो भवदायतिचारु किमु प्रजिघांसुरसित्वमपि स्वगुरु, यदि तद्गुरुशासनकृतक इह ॥ ६६ ॥ नृप । सहर-संहर कोपमिम तव येन पथा चरितश्वपिता सर तां सरणि हि पितुः पदवी, न जहत्यनद्यास्तनयाः क्वचन ॥ ७१ ॥ धरिणी हरिणीनयना नयते, बशतां यदि भूप । भवन्तमलम् विधुरो विधिरेप तदा भविता, गुरुमाननरूप इहा क्षयत ॥ ७२ ॥ तव मुष्टिमिमां सहते भुवि को, हरिहेतिमिवाधिकघातवतीम् । भरता चरित चरित मनसा, स्मर मा स्मर केलिमिव श्रमण ॥ ७३ ॥ अयि साधय साधय साधुपद भज शान्तरसं तरमा सरसम् । ऋषभध्वज वंशनभस्तरणे । तरणाय मन. किल धावतु ते ॥ ७४ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास इति यावदिमा गगनाङ्गणतो, मरुतां विचरन्ति गिर शिरसः । अपनेतुमिमांश्चिकुरा नकरोद्, वलमात्मकरेण स तावदयम् ॥७५॥ अप्रकाशित महाकाव्य की गरिमा से लोग अवगत हो इस दृष्टि से उसके कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत किये गए है । मुझे आशका है कि विषय अधिक लम्बा न हो जाय । फिर भी काव्यरस का आस्वाद छोडना जरा कठिन होता है। खैर, काव्य-पराग का थोडा-सा आस्वाद और चख लें । [ ey अहह अपि । ४ 11 चुल्लिगृहेपू वधूकर प्रथितभस्म महावसना गुरुतरामपि जानति यामिनी, हुतभुजोपि हिमै स्मदुत्ता इव कवि यहाँ पर रात्रि जागरण का वर्णन करता हुआ सर्दी की विभीपिका पैदा करता है । कवि विश्व की और अचेतन पदार्थो का निकटता से अनुभव करता है। उनमे वह किसी की भी उपेक्षा नही करता । मरुस्थल के मुख्य वाहन ऊँट तो भूले भी कैसे जा सक्ते है | उनके बारे मे वह बड़े मजेदार ढंग से कहता है पाठको के दिलो मे भी गोद मे रमने वाले चेतन भरे यथा रोहति भूरि रावा, निरस्यमाने रवणास्तथासन् । सदैव सर्वाङ्ग वहिर्मुखानां हिताहितज्ञानपरांगमुखत्वम्७५ ।। यहाँ हमने अतीत के साहित्य पर एक सरसरी नजर डाली है या यो कहिए कि 'स्थाली पुलाक' के न्यायानुसार हमने कुछ एक स्थलो की परीक्षा की है । सिर्फ सुन्दर अतीत की रट लगाने से भविष्य उज्ज्वल वना नही करता । इसलिए ताजी दृष्टिवालों को वर्तमान देखना चाहिए । जिस युग मैं यह आवाज बुलन्द हो रही है कि संस्कृत मृत भाषा है, उस युग में भी जैन उसे सजीव बना रहे है | आज भी नये काव्य, टीकाए प्रकरण और दूसरे ग्रन्थ बनाए जा रहे है | अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी इस विषय मे बहुत वडा प्रयत्न कर रहे है। आचार्य श्री के अनेक शिष्य आशुकवि है । बहुत-सी माध्वियां वडी तत्परता से सस्कृत के अध्ययन में सलग्न है । सभी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε६ ] जैन परम्परा का इतिहास क्षेत्रों में यदि इस तरह का व्यापक प्रचार हो तो आशा की जाती है कि मृत कही जाने वाली संस्कृत भाषा अमृत बन जाय । शान्त रस के आस्वाद के साथ अब मैं इस विषय को पूरा कर रहा हूँ । गोति-काव्य की मधुर-लहरियाँ सुनने से सिर्फ कानो को ही तृप्त नही करती बल्कि देखने से आँखो मे भी अनूठा उल्लास भर देती है । शत्रुजनाः सुखिन समे, मत्सरमपहाय, सन्तु गन्तु मनसोत्यमी, शिवसौख्यगृहाय । सकृदपि यदि समतालवं हृदयेन लिहन्ति विदित सारतत इह रति, स्वत एव वहन्ति ७६ ॥ प्रादेशिक साहित्य दिगम्बर आचार्यो का प्रमुख विहार क्षेत्र दक्षिण रहा । दक्षिण की भाषाओ में उन्होने विपुल साहित्य रचा । कन्नड भाषा में जैन कवि पोन्न का शान्तिपुराण, पप का आदिपुराण और पम्पभारत आज भी बेजोड़ माना जाता है । रत्न का गदा-युद्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । ईसा की दसवी शती से १६ वी शती तक जैन महर्षियों ने काव्य, व्याकरण, शब्द कोष, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयो पर अपने ग्रन्थ लिखे और कर्णाटक- संस्कृति को पर्याप्त समृद्ध बनाया । दक्षिण भारत की पांच द्राविडभाषाओं में से कन्नड़ एक प्रमुख भाषा है । उसमे जैन साहित्य और साहित्यकार आज भी अमर है७७ । तामिल भी दक्षिण की प्रसिद्ध भाषा है । इसका जैनसाहित्य भी बहुत समृद्ध है । इसके पाँच महाकाव्यो मे से तीन महाकाव्य चिन्तामणि, सिलप्पडिकारम् और वलेतापति - जैन कवियो द्वारा रचित है । नन्नो तामिल का विश्रुत व्याकरण है । कुरल और नालदियार जैसे महान् ग्रन्थ भी जैन महर्षियो की कृति है । गुजराती साहित्य उत्तर भारत श्वेताम्बर आचार्यों का भाषाओ मे दिगम्बर-साहित्य प्रचुर है । वह कम है । आचार्य हेमचन्द्र के समय से विहार क्षेत्र रहा। उत्तर भारत की पर श्वेताम्बर - साहित्य की अपेक्षा गुजरात जैन साहित्य और संस्कृति से प्रभावित रहा है । आनन्दघनजी, यशोविजयजी आदि अनेक योगियो व Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास ९७ महर्पियो ने इस भाषा मे लिखा। विशेष जानकारी के लिए 'जैन गुर्जर कविओ' देखिए । राजस्थानी साहित्य राजस्थानी मे जन-साहित्य विशाल हे। इस सहस्राब्दी मे राजस्थान जैनमुनियो का प्रमुख विहार-स्थल रहा है। यति, सविन, स्थानकवासी और तेरापन्य सभी ने राजस्थानी मे लिखा है। रास और चरित्रो की संख्या प्रचुर है। पूज्य जयमलजी का प्रदेशी राजा का चरित बहुत ही रोचक है। कवि समय सुन्दरजी की रचनाओ का संग्रह अगरचन्दजी नाहटा ने अभी प्रकागित किया है। फुटकल ढालो का संकलन किया जाए तो इतिहास को कई नई झांकियां मिल सकती है। राजस्थानी भापाओ का मोत प्राकृत और अपभ्र श है। काल-परिवर्तन के साथ-साथ दूसरी भापाओ का भी सम्मिश्रण हुआ है। राजस्थानी साहित्य तीन शैलियो मे लिखा गया है-(१) जैन शैली (२) चारणी शैली (३) लोकिक शैली। जैन शैली के लेखक जैन-साधु और यति अथवा उनसे सम्बन्ध रखने वाले लोग है। इस शैली में प्राचीनता की झलक मिलती है। अनेक प्राचीन शब्द और मुहावरे इसमे आगे तक चले आये है। जैनो का सम्बन्ध गुजरात के साथ विशेप रहा है। अत: जैन शैली मे गुजराती का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता हे । चारणी गली के लेखक प्रधानतया चारण और गौण रूप मे अन्यान्य लोग है (जैनो, ब्राह्मणो, राजपूतो, भाटो आदि ने भी इस शैली में रचना की है। इसमे भी प्राचीनता की पुट मिलती हे पर वह जैन शैली से भिन्न प्रकार को है, यद्यपि जैनों को अपनश रचनाओ मे भी, विशेप कर युद्ध-वर्णन मै, उसका मूल देखा जा सकता है। 'डिंगल वस्तुत: अपभ्रंश शैलो का ही विकसित रूप है ७१ तेरापन्य के आचार्य भिक्षु ने राजस्थानी-साहित्य में एक नया स्रोत वहाया । अध्यात्म, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, धार्मिक-समीक्षा, रूपक, लोक-कथा और अपनी अनुभूतियो से उसे व्यापकता की ओर ले चले। उन्होने गद्य भी वहुत लिखा । उनकी सारी रचनाओ का प्रमाण ३८ हजार श्लोक के लगभग है। मारवाडी के ठेठ गन्दो मे लिखना और मनोवैज्ञानिक विश्लेपण करना Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.] जैन परम्परा का इतिहास उनकी अपनी विशेषता है। उनकी वाणी का स्रोत क्रान्ति और शान्ति दोनो धाराओ में बहा है। ब्रह्मचारी को मित-भोजी होना चाहिए। अमित-भोजी की शारीरिक और मानसिक दुर्दशा का उन्होने सजीव चित्र खीचा है : अति आहार थी दुख हुवे, गले रूप बल गात । परमाद निद्रा आलस हुवै, बले अनेक रोग होय जात ॥ अति आहार थी विषय बध, धणोइज फाटै पेट । धान अमाऊ ऊरतां, हांडी फाट नेट ७९ ॥ फाटै पेट अत्यन्त रे, बन्ध हुदै नाडियां । बले श्वास लेवे, अबखो थको ए॥ बलै होवे अजीरण रोग रे। मुख बासै बुरो, पेट झाले आफरो ए ॥ ते उठे उकाला पेट रे, चाल कलमली। बले छूटै मुख थूकनी ए॥ डील फिर चक्डोल रे, पित घूमे घणा । चाले मुजल बले मुलकणी ए॥ आवै मीठी घणी डकार रे। बले आवै गुचलका, जद आहार भाग उलटो पडै ए ॥ हांडी फाटै नेट रे, अधिको अरियां । तो पेट न फाटै किण बिधै ए ॥ ब्रह्मचारी इम जाण रे, अधिको नही जीमिए । उणोदरी में ए गुण घणा ए८०॥ नव पदार्थ, विनीत-अविनीत, व्रतान्नत, अनुकम्पा, शील री नवबाड़ आदि, उनको प्रमुख रचनाएं है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमजयाचार्य महाकवि थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण गद्य-पद्य लिखे। उनकी लेखनी में प्रतिभा का चमत्कार था। वे साहित्य और अध्यात्म के क्षेत्र में अनिरुद्ध गति से चले। उनकी सफलता का स्वतः प्रमाण उनकी अमर कृतियाँ है। उनका तत्त्व-ज्ञान प्रौढ़ था। श्रद्धा, तर्क और व्युलति की Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [६६ त्रिवेणी मे आज भी उनका हृदय बोल रहा है । जिन-वाणी पर उनकी अटूट श्रद्धा थी । विचार-भेद की दुनियां के लिए वे तार्किक थे। साहित्य, संगीत, कला, सस्कृति-ये उनके व्युत्पत्ति-क्षेत्र थे । उनका सर्वतोन्मुखी व्यक्तित्व उनके युगपुरुप होने की साक्षी भर रहा है । कुशल टीकाकार जयाचार्य ने जैन-आगमों पर अनेक टीकाए लिखी । उनकी भाषा मारवाड़ी है-गुजराती का कुछ मिश्रण है । वे पद्य-बद्ध है । संगीत को स्वर लहरी से थिरकती गीतिकाओ में जैन तत्त्व-मीमांसा चपलता से तैर रही है। उनमे अनेक समस्याओं का समाधान और विशद आलोचना-आत्मलोचनाएं है। सबसे बड़ी टीका भगवती सूत्र की है, उसका ग्रन्थमान करीव ८० हजार श्लोक है । सही अर्थ में वे थे कुशल टीकाकार । वातिककार और स्तवककार आचारांग-द्वितीय श्रुतस्कघ के जटिल विपयो पर उन्होने वार्तिका लिखा । उसमें विविध उलझन भरे पाठो को विशद चर्चा के साथ सुलझाया है । और विसवाद-स्थानीय स्थलो को बड़े पुष्ट प्रमाणों से संवादित किया है। यो तो उस समूचे शास्त्र का टब्बा भी उन्होने लिखा । एक तुलनात्मक दृष्टि अभय देव८२, शोलोकाचार्य:३, शांत्याचार्य४, हरिभद्र८५, मलधारी हेमचन्द्र८६, और मलयगिरि८७,-जैन-आगमों के प्रसिद्ध संस्कृत-टोकाकार हुए हैं। इनकी टीकाओ मे आगमिक टीकामओ की अपेक्षा दार्शनिक चर्चाओ का वाहुल्य है। इनके पहले आगमो की टोकाए प्राकृत में लिखी गई । वे नियुक्ति०८, भाष्य और चूर्णि. के नाम से प्रसिद्ध है । इनमे आगमिक चर्चाओ के अतिरिक्त जैन दर्शन की तर्क सगत व्याख्याए भी मिलती है। जैन तत्त्वो की तार्किक व्याख्या करने में विशेष्यावश्यक भाष्यकार जिनभद्र ने अनूठा कौशल दिखाया है । नियुक्ति और भाष्य पद-बद्ध है और चूर्णियां गद्यमय । चूणिर्यो मे मुख्यतया भाष्य का विपय सक्षेत्र मे लिखा गया है । जैन आचार्य लोक भाषा के पोपक रहे है । इसलिए जैन-साहित्य भाषा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] जैन परम्परा का इतिहास की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । उत्तर भारत और दक्षिण भारत की विविध भाषाए आज भी जैन-धर्म की व्यापकता की गाथा गा रही है। पायचन्दसूरि और धर्म सिह १ नुनि ने गुजराती में टब्बा लिखे २ । विस्तृत टीकाओ में रस पान जिनके लिए सुगम नही था, उनके लिए ये बड़े उपयोगी बने । दूसरे, ज्योज्यो संस्कृत का प्रसार कम हो रहा था, त्यो-त्यो लोग विषय से दूर होते जा रहे थे। इनकी रचना उस कमी की पूर्ति करने में सफल सिद्ध हुई । हजारो जैन मुनि इन्ही के सहारे सिद्धान्त के निष्णात वने । जयाचार्य २० वी सदी के महान् टीकाकार है । उनकी टीकाएं सैद्धान्तिक चर्चाओं से भरी पूरी है। शास्त्रीय विषय का आलोड़न-प्रत्यालौड़न मे वे इतने गहरे उतरे जितना कि एक सफल टीकाकार को उतरना चाहिए । दार्शनिक व्याख्याए लम्बी नही चली है । सैद्धान्तिक विधि-निषेध और विसवादो पर उनकी लेखनी तव तक नही की, जब तक जिज्ञासा का धागा नही टूटा । एक बात को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत करने मे उन्हें अपूर्व कौशल मिला है । सिद्धान्त समालोचना की दृष्टि से उनकी टीकाए वेजोड़ है-~-यह कहा जा सकता है और एक समीक्षक की दृष्टि से कहा जा सकता है । प्रबन्धकार आपने करीव १६ प्रबन्ध लिखे । उनमे कई छोटे है और कई बडे । भाषा सहज और सरस है । सभी रसो के वर्णन के बाद शान्त-रस की धारा बहाना उनकी अपनी विशेषता है । जगह-जगह पर जैन-सस्कृति और तत्त्व-ज्ञान को स्फुट छाया है। इनके अध्ययन से पाठक को जीवन का लक्ष्य समझने में बड़ी सफलता मिलती है । कवि की भावुकता और संगीत की मधुर स्वर-लहरी से जगमगाते ये प्रबन्ध जीवन की सरसता ओर लक्ष्य प्राप्ति के परम उपाय है। अध्यात्मोपदेष्टा उनकी लेखनी की नोक अध्यात्म के क्षेत्र मे बड़ी तीखी रही है । आराधना मोहजीत, फुटकर ढालें - ये ऐसी रचनाएं है, जिनमें अचेतन को चेतनावान् बनाने की क्षमता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०१ जैन परम्परा का इतिहास विविध रचनाएं-चर्चा का नया स्रोत भ्रम विध्वंसन, जिनाज्ञा मुखमडन, कुमति विहडन, सदेह विपोपधि आदि चार्चिक अन्य, श्रद्धा की चौपाई, फुटकर ढालें आदि सस्कृति के उद्बोधक नन्थ, उनको कुशाग्नीयता के सजग प्रहरी है। आगम समन्वय के स्रष्टा । आचार्य भिक्षु की विविध रचनाओ का जैन-आगमो से समन्वय किया, यह आपको मौलिक सूझ है । आपने इन कृत्तियों का नाम रखा 'सिद्धान्त सार' । आचार्य भिक्षु की विचार-धारा जैन सूत्रो से प्रमाणित है, यह स्वतः नितर आया है । इसके पहले आगम से दर्शन करने की प्रणाली का उद्गम हुआ प्रतीत नही होता। जयाचार्य इसके स्रष्टा है। स्तुतिकार __ जयाचार्य का हृदय जितना तात्त्विक था, उतना ही श्रद्धालु । उन्होने तीर्थकर, आचार्य और साधुओ की स्तुति करने मे कुछ उठा नही रखा। वे गुण के साथ गुणी का आदर करना जानते थे। उनकी प्रसिद्ध रचना 'चौवीसी' भक्ति-रस को सजल सरिता है। सिद्धसेन, समन्तभद्र, हेमचन्द्र और आनन्दघन जैसे तपस्वी लेखको की दार्गनिक स्तुतियों के साथ जयाचार्य ने एक नई कडी जोड़ी। उनकी स्तुति-रचना मे आत्म-जागरण का उद्वोध है। साधक के लिए दर्शन और आत्मोद्वीव-ये दोनो आवश्यक है । आत्मोद्वोध के विना दर्शन मे आग्रह का भाव बढ जाता है । इसलिए दार्शनिक की ख्याति पाने से पहले अध्यात्म की गिक्षा पाना जरूरी है। जीवनी-लेखक भारत के प्राच्य साहित्य में जीवनियाँ लिखने की प्रथा रही है। उसमें अतिरंजन अधिक मिलता है। अपनी कथा अपने हाथो लिखना ठीक नही समझा जाता था। इसलिए जिन किन्ही की लिखी गई, वे प्रायः दूसरो के द्वारा लिखी गई। दूसरे व्यक्ति विशेष श्रद्धा या अन्य किशी स्वार्थ से प्रेरित हो लिखते, इसलिए इनकी कृति मे यथार्थवाद की अपेक्षा अर्थ-वाद अधिक रहता । जयाचार्य इसके अपवाद रहे है । उन्होने बीसियो छोटी-मोटी जीवनियाँ लिखी। सवमे यथार्थ-दृष्टि का पूरा-पूरा धान रखा। वस्तु स्थिति को स्पष्ट Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] जैन परम्परा का इतिहास करने के सिवाय वे आगे नही बढे । जीवनी के लेखको में जयाचार्य का एक विशिष्ट स्थान है। भिक्षुजश रसायन, हेम नवरसो आदि आपकी लिखी हुई प्रख्यात जीवनियाँ है। इतिहासकार तेरापथ के इतिहास को सुरक्षित रखने का श्रेय जयाचार्य को ही है । उन्होने आचार्य भिक्षु को विशेष घटनाओं का संकलन कर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया। साधु-साध्वियो की 'ख्यात' का सग्रह करवाया। इस दिशा में और भी अनेक कार्य किए। मर्यादा पुरुषोत्तम जयाचार्य की शासन-शैली एक कुशल राजनीतिज्ञ की सी थी। वे अनुशासन और संगठन के महान् निर्देशक थे। उन्होने संघ को सुव्यवस्थित रखने के लिए छोटे-बड़े अनेक मर्यादा-ग्रन्य लिखे । आचार्य भिक्षु रचित मर्यादाओं की पद्य-बद्ध रचनाए की । आचार्य भिक्षुकृत "लिखनो की जोड़' एक अपूर्व रचना है। गद्य-लेखक प्राचीन लोक-साहित्य में गद्य बहुत कम लिखा गया। प्रत्येक रचना पद्यो में ही की जाती। जयाचार्य बहुत बड़े गद्य-लेखक हुए है। उन्होने 'आचार्य भिक्षुके दृष्टान्त' इतनी सुन्दरता से लिखे है, जो अपनी प्रियता के लिए प्रसिद्ध है। महान्-शिक्षक जीवन-निर्माण के लिए शिक्षा नितान्त आवश्यक तत्त्व है । शिक्षा का अर्थ तत्त्व की जानकारी नही। उसका अर्थ है जीवन के विश्लेषण से प्राप्त होनेवाली जीवन-निर्माण की विद्या। जयाचार्य ने एक मनोवैज्ञानिक की भाँति अपने संघ के सदस्यो की मानसिक वृत्तियो का अध्ययन किया। गहरे मनन और चिन्तन के बाद उस पर लिखा। यद्यपि इस विषय पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नही लिखा, कई फुटकर ढालें लिखी, किन्तु उनमें मानव की मनोवृत्तियो का जिस सजीवता के साथ विश्लेषण हुआ है वह अपने ढग का निराला है। जीवन को बनाने के लिए, मनकी वृत्तियो को सुधारने के लिए, जो सुझाये है, वे अचूक है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१०३ आचार्य श्री तुलसी की राजस्थानी मे अनेक रचनाए है। उनमे कालू यशोविलास प्रमुख कृति है । उसमे अपने गुरुदेव कालगणी के जीवन का सांगोपांग वर्णन है। उसका एक प्रसंग यह है : मेवाड के लोग श्रीकालुगणी को अपने देश पधारने की प्रार्थना करने आये है। उनके हृदय मे बडी तडफ है। उनकी अन्तर-भावना का मेवाड़ की मेदिनी मे आरोप कर आपने बडा सुन्दर चित्रण किया है : 'पतित-उधार पधारिए, सगे सवल लहि थाट । भेदपाट नी मेदिनी, जोवे खडि-खड़ि बाट ॥ सघन शिलोच्चयनै मिषे, ऊचा करि-करि हाथ । चंचल दल शिखरी मिषे, दे झाला जगनाथ ॥ नयणां विरह तुमारडे, झरै निझरणा जास । भ्रमराराव भ्रमे करी, लह लांवा निःश्वास ॥ कोकिल कूजित व्याज थी, तिराज उडावै काग । अरघट खट खटका करी, दिल खटक दिखावै जाग ॥ मैं अचला अचला रही, किम पहुचै मम सन्देश । इम झुर झुर मनु झूरणा, सकोच्यो तनु सुविशेष"९३॥ इसमे केवल कवि-हृदय का सारस्य ही उद्वेलित नही हुआ है, किन्तु इसे पढते-पढते मेवाड के हरे-भरे जगल, गगनचुम्बी पर्वतमाला, निर्भर, भवरे, कोयल, घड़ियाल और स्तोकभूभाग का साक्षात् हो जाता है। मेवाड़ की ऊंची भूमि मे खड़ी रहने का, गिरिशृङ्खला मे हाथ ऊंचा करने का, वृक्षो के पवन-चालित दलो मे आह्वान करने का, मधुकर के गुञ्जारव मे दीर्घोष्ण निश्वास का, कोकिल-कूजन मे काक उडाने का आरोपण करना आपकी कवि-प्रतिभा की मौलिक सूझ है। रहट की घडियो में दिल की टीस के साथ-साथ रात्रिजागरण की कल्पना से वेदना मे मार्मिकता आ जाती है। उसका चरम रूप अन्तर्जगत् मे न रह सकने के कारण वहिर्जगत् में आ साकार बन जाता है। उसे कवि-कल्पना सुनाने की अपेक्षा दिखाने में अधिक सजीव हुई है। अन्तर्व्यथा से पीडित मेवाड की मेदिनी का कृश शरीर वहाँ की भौगोलिक स्थिति का सजीव चित्र है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] जैन परम्परा का इतिहास मघवा गणी के स्वर्ग-वास के समय कालुगणी के मनोभावो का आकलन करते हुए आपने गुरु-शिष्य के मधुर सम्बन्ध एव विरह-वेदना को जो सजीव वर्णन किया है, वह कवि की लेखनी का अद्भुत चमत्कार है : "नेहडला री क्यारी म्हारी, मूकी निराधार । इसडी कां कोधी म्हारा, हिवड़े रा हार ॥ चितडो लाग्यो रे, मनड़ो लाग्यो रे । खिण खिण समरू', गुरु थांरो उपगार रे॥ किम बिसराये म्हारा, जीवन - आधार । विमल विचार चारू, अब्बल आचार रे॥ कमल ज्यूँ अमल, हृदय अविकार । आज सुदि कदि नही, लोपी तुज कार रे ॥ बह्यो बलि बलि तुम, मीट विचार । तो रे क्यां पधाख्या, मोये मूको इह वार रे ॥ स्व स्वामी रु शिष्य-गुरु, सम्बन्ध विसार ९४ । पिण सांची जन-श्रुति, जगत् मझ र रे॥ एक पक्खी प्रीत नही, पडै कदि पार । पिऊ पिऊ करत, पर्पयो पुकार रे॥ पिण नही मुदिर नै, फिकर लिगार १५॥ जैन-कथा-साहित्य में एक प्रसग आता है। गजसुकुमार, जो श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे, भगवान् अरिष्टनेमि के पास दीक्षित बन उसी रात को ध्यान करने के लिए श्मशान चले जाते हैं। वहाँ उनका श्वसुर सोमिल आता है। उन्हें साधु-मुद्रा मे देख उसके क्रोध का पार नही रहता। वह जलते अंगारे ला मुनि के शिर पर रख देता है। मुनि का शिर खिचडी की भॉति कलकला उठता है। उस दशा में वे अध्यात्म की उच्च भूमिका में पहुँच 'चेतन-तनभिन्नता' तथा 'सम शत्रौ च मित्रे च' की जिस भावना मे आरूढ़ होते है, उसका साकार रूप आपकी एक कृति में मिलता है। उसे देखते-देखते द्रष्टा स्वयं आत्म-विभोर बन जाता है। अध्यात्म की ऊत्ताल ऊर्मियाँ उसे तन्मय किए देती है : Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५ जैन परम्परा का इतिहास "जब घरे शीश पर खीरे, ध्यावे यों धृति धर धीरे । है कौन वरिष्ठ भुवन मे जो मुझको आकर पीरे ॥ मैं अपनो रूप पिछार्ने, हो उदय ज्ञानमय भानू । वास्तव मे वस्तु पराई, क्यों अपनी करके मानू ॥ मैंने जो सकट पाये, सब मात्र इन्ही के कारण । अव तो सब जजीरे, ध्यावे यो धृति धर धीरे ॥ कवके ये बन्धन मेरे, अवलो नही गये बिखेरे । जब से मैंने अपनाये, तब से डाले दृढ डेरे ॥ सम्बन्ध कहा मेरे से, कहा भैंस गाय के लागे। है निज गुण असली हीरे, घ्यावे यो धृति घर धीरे॥ में चेतन चिन्मय चारू, ये जड़ता के अधिकारू । मैं अक्षय अज अविनाशी, ये गलन-मिलन विशरारू ॥ क्यो प्रेम इन्ही से ठायो, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] जैन परम्परा का इतिहास दुर्गति की दलना अब भी हो रहूँ पायो । प्रतीरे, घ्यावे यो धृति घर धीरे ॥ यह मिल्यो सखा हितकारी, उत्तएँ अघ की भारी । नहिं द्वेप-भाव दिल लाऊँ, कैवल्य पलक मे पाऊँ ॥ जाऊँ, पहुँचाऊँ । प्राचीरे, प्रक्षय हो भव घ्यावे यो धृत घर घीरे ॥ सच्चिदानन्द बन लोकान स्थान नहिं मरू नकबही जन्मू, कहिं परून जग झंझट में । फिर जरूँ न आग-लपट मे, र पड ून प्रलय झपट में ॥ दुनियां के दारुण दुख में, धधकत शोकानल धुक नहिं धुकू सहाय में । सभी रे, घ्यावे यो धृति घर घीरे ॥ - मे, नहिं वहूँ सलिल स्रोतो नहि रहूँ भन्न पोतो में, नहिं जहूँ रूप नहि लहूँ कप्ट नहिं छिदू घार मैं म्हारो, मतो में ॥ तलवारां, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०७ जैन परम्परा का इतिहास नहिं भिर्दू भल्ल भलकारा, चहे आये शत्रु सभीरे, ध्यावे यो धृति धर धीरे।" इसमे आत्म-स्वरूप, मोक्ष, ससार-भ्रमण और जड़-तत्त्व की सहज-सरल व्याख्या मिलती है । वह ठेठ दिल के अन्तरतल मे पैठ जाती है। दार्शनिक की नीरस भाषा को कवि किस प्रकार रस-परिपूर्ण बना देता है, उसका यह एक अनुपम उदाहरण है । हिन्दी-साहित्य हिन्दी का आदि स्रोत अपभ्र श है । विक्रम की दसवी शताब्दी से जैन विद्वान् इस ओर झुके । तेरहवी शती मे आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन में इसका भी व्याकरण लिखा। उसमे उदाहरणस्थलो मे अनेक उत्कृष्ट कोटि के दोहे उद्धृत किए है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो परम्परागो के मनीषी इसी भाषा में पुराण, महापुराण, स्तोत्र आदि लिखते ही चले गए । महाकवि स्वयम्भू ने पद्मचरित लिखा। राहुलजी के अनुसार तुलसी रामायण उसमे बहुत प्रभावित रहा है। राहुलजी ने स्वयम्भ को विश्व का महा कवि माना है । चतुर्मुखदेव, कवि रइधु, महाकवि पुष्पदन्त के पुराण अपभ्रंश मे है। योगीन्द्र का योगासर और परमात्म प्रकाश सतसाहित्य के प्रतीक ग्रन्थ हैं। हिन्दी के नए-नए रूपो में जैन-साहित्य अपना योग देता रहा। पिछली चार-पाँच शताब्दियो मे वह योग उल्लास-वर्धक नही रहा। इस शताब्दी मे फिर जैन-समाज इस ओर जागरूक है- ऐसा प्रतीत हो रहा है। Page #118 --------------------------------------------------------------------------  Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार १०६-१३४ जैन धर्म पर समाज का प्रभाव धर्म और समाज बिहार का क्रान्ति घोष तत्त्वचर्चा का प्रवाह बिम्बसार-श्रेणिक चेटक राजर्षि सलेखना विस्तार और सक्षेप जैन संस्कृति और कला कला चित्रकला लिपिकला यापत्यकला Page #120 --------------------------------------------------------------------------  Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास १११ ] धर्म और समाज धर्म असामाजिक-वैयक्तिक तत्त्व है। किन्तु धर्म की आराधना करने वालो का समुदाय बनता है, इसलिए व्यवहार मे धर्म भी सामाजिक बन जाता है। सभी तीर्थकरो की भापा में धर्म का मौलिक रूप एक रहा है। धर्म का साध्य मुक्ति है, उसका सावन द्विरूप नही हो सकता। उसमे मात्रा-भेद हो सकता है, किन्तु स्वरूा भेद नही हो सकता। मुक्ति का अर्थ है-- बाह्य का पूर्ण त्याग-सूक्ष्म गरीर का भी त्याग । इसीलिए मुमुक्षु-वर्ग ने वाह्य के अस्वीकार पक्ष को पुष्ट किया । यही तत्व भिन्न भिन्न युगो मे निर्ग्रन्य-प्रवचन, जिन-वाणी और जन-धर्म की सजा पाता रहा है। भारतीय मानस पर त्याग और तपस्या का प्रतिविम्ब है, उसका मूल जन-धर्म ही है । ___ अहिंसा और सत्य की साधना को समाज-व्यापी बनाने का श्रेय भगवान् । पार्श्व को है । भगवान् पार्श्व अहिंसक परम्परा के उन्नयन द्वारा बहुत लोकप्रिय हो गए थे। इसकी जानकारी हमे "पुरिसादाणीय"-पुरुपादानीय विशेषण के द्वारा मिलती है। भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के लिए इस विशेषण का सम्मानपूर्वक प्रयोग करते थे । यह पहले बताया जा चुका है-आगम की भाषा मे सभी तीर्थकरो ने ऐसा ही प्रयत्न किया। प्रो० तान-युनशान के अनुसार अहिंसा का प्रचार वैज्ञानिक तथा स्पष्ट रूप से जैन तीर्थकरो द्वारा और विशेषकर २४ तीर्थंकरो द्वारा किया गया है, जिनमे अन्तिम महावीर-वर्धमान थे। विहार का क्रान्ति-घोष __ भगवान् महावीर ने उसी शाश्वत सत्य का उपदेश दिया, जिसका उनसे पूर्ववर्ती तीर्थकर दे चुके थे । किन्तु महावीर के समय की परिस्थितियो ने उनकी वाणी को ओजपूर्ण बनाने का अवसर दिया। हिंसा का प्रयोजन पक्ष सदा होता है-कभी मन्द कभी तीन । उस समय हिंसा सैद्धान्तिक पक्ष में भी स्वीकृत थी। भगवान् ने इस हिंसा के आचरण को दोहरी मूर्खता कहा । उन्होंने कहा-प्रातः स्नानादि से मोक्ष नही होता 3 | जो सुबह और शाम Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] जैन परम्परा का इतिहास - जल का स्पर्श करते हुए-जल स्नान से मुक्ति बतलाते है, वे अज्ञानी है। हुत से जो मुक्ति बतलाते है, वे भी अज्ञानी है । स्नान, हवन आदि से मुक्ति बतलाना अपरीक्षित बचन है । पानी और अग्नि में जीव है । सब जीव सुख चाहते है इसलिए जीवों को दुख देना मोक्ष का मार्ग नही है-यह परीक्षित बचन है । जाति की कोई विशेषता नही है ७ । जाति और कुल त्राण नही बनते ८ । जाति-मद का घोर विरोध किया । ब्राह्मणो को अपने गणों का प्रमुख बना उन्होने जाति समन्वय का आदर्श उपस्थित किया। उन्होने लोक-भाषा मे उपदेश देकर भाषा के उन्माद पर तीन प्रहार किया ' । आचार धर्म को प्रमुखता दे, उन्होने विद्या-मद की बुराई की ओर स्पष्ट संकेत किया । लक्ष्य का विपर्यय समझाते हुए भगवान् ने कहा-"जिस तरह कालकूट विष पीने वाले को मारता है, जिस तरह उल्टा ग्रहण किया हुआ शस्त्र शस्त्रधारी को ही घातक होता है और जिस तरह विधि से वश नही किया हुआ बैताल मन्त्रधारी का ही विनाश करता है, उसी तरह विषय की पूर्ति के लिए ग्रहण किया हुआ धर्म आत्मा के पतन का ही कारण होता है । वैषम्य के विरुद्ध आत्म-तुला का मर्म समझाते हुए भगवान् ने कहा"प्रत्येक दर्शन को पहले जानकर मैं प्रश्न करता हूँ," हे वादियो । तुम्हे सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय ? यदि तुम स्वीकार करते हो कि दु ख अप्रिय है तो तुम्हारी तरह ही सर्व प्राणियो को, सर्व भूतो को, सर्व जीवो को और सर्व सत्वों को दु ख महा भयकर, अनिष्ट और अशान्तिकर है १२ । यह सब समझ कर किसी जीव की हिंसा नही करनी चाहिए। इस प्रकार भगवान को वाणी मे अहिसा की समग्नता के साथ-साथ वैषम्य,... जातिवाद, भाषावाद और हिंसक मनोभाव के विरुद्ध क्रान्ति का उच्चतम घोष था । उसने समाज की अन्तर्-चेतना को नव जागरण का संदेश दिया। तत्त्व चर्चा का प्रवाह ___ भगवान् महावीर की तपः पूत वाणी ने श्रमणों को आकृष्ट किया। भगवान पार्श्व की परम्परा के श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ मे सम्मिलित हो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ११३ गए । अन्य तीर्थिक सन्यासी भी भगवान् की परिषद् मे आने लगे । अम्बड, स्कन्दक, पुद्गल १५ और शिव १६ आदि परिव्राजक भगवान् के पास आए, प्रश्न किए और समाचान पा भगवान् के शिष्य बन गए । कालोदायी आदि अन्य यूथिको के प्रसग भगवान् के तत्त्व- ज्ञान की व्यापक चर्चा पर प्रकाश डालते है ' १७ | भगवान् का तत्त्व-ज्ञान वहुत सूक्ष्म था । वह युग भी धर्म-जिज्ञासुओ से भरा हुआ था । सोमिल ब्राह्मण, १८ के श्रमणोपासक, ९ जयन्ती श्राविका, २० " रोह, पिंगल माकन्दी, श्रमणो के प्रश्न तत्त्व-ज्ञान की बहती धारा के स्वच्छ प्रतीक है । बिम्बसार श्रेणिक भगवान् जीवित धर्म थे । उनका सयम अनुत्तर था । वह उनके शिष्यो को भी सयममूर्ति बनाए हुए था। महानिर्ग्रन्य अनाथ के अनुत्तर सयम को देखकर मगध सम्राट् विम्बसार - श्रेणिक भगवान् का उपासक वन गया । वह जीवन के पूर्व काल में बुद्ध का उपासक था। उसको पटारानी चेलणा महावीर की उपासिका थी । उसने सम्राट् को जैन बनाने के अनेक प्रयत्न किये । सम्राट् ने उसे बौद्ध बनाने के प्रयत्न किये । पर कोई भी किसी ओर नही झुका । सम्राट् ने महानिर्ग्रन्य अनाथ को ध्यान-लीन देखा । उनके निकट गए । वार्तालाप हुआ । अन्त में जैन वन गए 3 1 I है चेटक כ इसके पश्चात् श्रेणिक का जैन प्रवचन के साथ घनिष्ट सम्पर्क रहा । सम्राट् पुत्र और महामन्त्री अभयकुमार जैन थे । जैन परम्परा में आज भी अभयकुमार की बुद्धि का वरदान मांगा जाता है। जैन साहित्य मे अभयकुमार सम्बन्धी अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है २४ । ७ 1 १४ या नग P श्रेणिक की २३ रानियां भगवान् के पास प्रव्रजित हुई २५ । उसके अनेक पुत्र भगवान् के शिष्य वने २६ । सम्राट् श्रेणिक के अनेक प्रसंग आगमो मे उल्लिखित वैशाली १८ देशो वे भगवान् महावीर के आदि का गणराज्य था । उसके प्रमुख महाराजा चेटक थे । मामा थे । जैन श्रावकों में उनका प्रमुख स्थान था । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] जैन परम्परा का इतिहास 1 वे बारह व्रती श्रावक थे । उनके सात कन्याएँ थी । वे जैन के सिवाय किसी दूसरे के साथ अपनी कन्याओं का विवाह नही करते थे । श्रेणिक ने चेलणा को कूटनीतिक ढंग से व्याहा था । चेटक के सभी जामाता प्रारम्भ से ही जैन थे । श्रेणिक पीछे जैन बन गया । चेटक की पुत्रियों चेटक के जामाताओं के नाम के नाम प्रभावती पद्मावती मृगावती शिवा ज्येठा सुज्येष्ठा चेलणा उदायन दधिवाहन शतानीक उनकी राजधानी के नाम सिधु सौवीर चम्पा कौशम्बी अवन्ती चण्ड प्रद्योत C भगवान् के भाई नन्दिवर्धन ( साध्वी बन गई ) बिम्बसार (श्रेणिक ) कुण्डग्राम मगध चेटक का भीषण सग्राम हुआ था । संग्राम पालन करते थे । अनाक्रमणकारी पर प्रहार नही करते थे । इनके साथ अपने दौहित्र कोणिक के भूमि में भी वे अपने व्रतो का करने थे । एक दिन में एक बार से अधिक शस्त्र प्रयोग नही गणराज्य मे जैन-धर्म का समुचित प्रसार हुआ । गणराज्य के अठारह सदस्य नृप नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी भगवान् के निर्वाण के समय वही पौषध किये हुए थे । राजर्षि में द भगवान् के पास आठ राजा दीक्षित हुए- इसका उल्लेख स्थानांग सूत्र मिलता है । उनके नाम इस प्रकार है: - (१) वीरांगक ( २ ) वीरयशा ( ३ ) सजय (४) एणेयक ( ५ ) सेय ( ६ ) शिव ( ७ ) उदायन ) शंख-काशीवर्धन | इनमे वीरांगक, वीरयशा और सजय - ये प्रसिद्ध है । टीकाकार अभय - देव सूरि ने इसके अतिरिक्त कोई विवरण प्रस्तुत नही किया है । एणेयक श्वेतविका नरेश प्रदेशी का सम्बन्धी कोई राजा था । सेय अमलकत्या नगरी का अधिपति था। शिव हस्तिनापुर का राजा था । उसने सोचा - मे वैभव से सम्पन्न हूँ, यह मेरे पूर्वकृत शुभ कर्मों का फल है । मुझे वर्तमान में Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ११५ भी शुभ कर्म करने चाहिए। यह सोच राज्य पुत्र को सौपा । स्वय दिशाप्रोक्षित तापस बन गया। दो-दो उपवास की तपस्या करता और पारणा मे पेड़ से गिरे हुए पत्तों को खा लेता, इस प्रकार की चर्या करते हुए उसे विभग अववि-ज्ञान उत्पन्न हुना। उससे उसने सात द्वीप और सात समुद्रो को देखा। यह विश्व सात द्वीप और सात समुद्र प्रमाण है, इसका जनता में प्रचार किया। भगवान् के प्रधान शिष्य गौतम भिक्षा के लिए जा रहे थे। लोगो मे शिव राजपि के सिद्धान्त की चर्चा सुनी। वे भिक्षा लेकर लौटे। भगवान् से पूछा-भगवन् ! द्वीप-समुद्र कितने है ? भगवान् ने कहा- असत्य है। गौतम ने उसे प्रचारित किया। यह वात शिव राजर्पि तक पहुंची। वह सदिग्ध हुमा और उसका विभग अवधि लुप्त हो गया। वह भगवान् के समीप आया, वार्तालाप कर भगवान् का शिष्य बन गया' ८ ।। उदायन सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदो का अधिपति था। दस मुकटवद्ध राजा इसके आधीन थे। भगवान् महावीर लम्बी यात्रा कर वहाँ पधारे । राजा ने भगवान् के पास मुनि-दीक्षा ली। वाराणसी के राना शख के बारे में कोई विवरण नही मिलता। अन्तकृद् दशा के अनुसार भगवान ने राजा अलक को वाराणसी में प्रव्रज्या दी थी। सभव है यह उन्ही का दूसरा नाम है । उस युग मे शासक-सम्मत धर्म को अधिक महत्त्व मिलता था। इसलिए राजाओ का धर्म के प्रति आकृष्ट होना उल्लेखनीय माना जाता। जैन-धर्म ने समाज को केवल अपना अनुगामी बनाने का यत्न नहीं किया, वह उसे व्रती बनाने के पक्ष पर भी बल देता रहा । शाश्वत सत्यों की आराधना के साथसाथ समाज के वर्तमान दोपों से बचने के लिए भी जैन-श्रावक प्रयत्नशील रहते थे। चारित्रिक उच्चता के लिए भगवान् महावीर ने जो आचार-सहिता दी, वह समाज में मानसिक स्वास्थ्य का वातावरण बनाए रखने में सक्षम है । वारह व्रतो के अतिचार इस दृष्टि से माननीय है२९ । स्थल प्राणातिपात-विरमण-व्रत के पाँच प्रधान अतिचार है, जिन्हें श्रमणोपासक को जानना चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं :-(१) बन्धन-बन्धन से बांधना ( २) वध-पीटना (३) छवि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] जैन परम्परा का इतिहास च्छेद- चमड़ी या अवयवों का छेदन करना ( ४ ) अतिभार-अधिक भार लादना ( ५ ) भक्तपानविच्छेद-भोजन-पानी का विच्छेद करना-(आश्रित प्राणी को भोजन-पानी न देना) द्वितीय स्थूल मृषावाद-विरमण व्रत के पाँच प्रधान अतिचार है, जिन्हे श्रमणोपासक को जानना चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है :-(१) सहसाऽभ्याख्यान-सहसा ( बिना आधार ) मिथ्या आरोप करना (२) रहस्याऽभ्याख्यान-गुप्त मन्त्रणा करते देख कर आरोप लगाना अथवा रहस्य प्रकट करना (३) स्वदार-मन्त्रभेद-अपनी पत्नी का मर्म प्रकट करना (४) मृषोपदेश-असत्य का उपदेश देकर उसकी ओर प्रेरित करना और (५) कूट लेखकरण-झूठे खत-पत्र बनाना। तीसरे स्थूल अदत्तादान-विरमण व्रत के पाँच प्रधान अतिचार है। श्रमणोपासक को उन्हे जानना चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है:-(१) स्तेनाहृत-चुराई हुई वस्तु खरीदना (२) तस्करप्रयोग-चोर की सहायता करना या चोरो को रख कर चोरी कराना (३) राज्य के आयात-निर्यात और जकात कर आदि के नियमो के विरुद्ध व्यवहार करना अथवा परस्पर-विरोधी राज्यो के नियम का उल्लंघन करना (४) कूट-तोल कूटमान-खोटे तोल-माप रखना और (५) तत् प्रतिरूपकव्यवहार-सदृश वस्तुओ का व्यवहार-उत्तम वस्तु मे हल्की का मिश्रण करना या एक वस्तु दिखा कर दूसरी देना। चतुर्थ स्थूल मैथुन-विरमण व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है : (१) इतरपरिगृहीतागमन-थोड़े समय के लिए दूसरे द्वारा गृहीत अविवाहित स्त्री के साथ आलाप-सलापरूप गमन करना (२) अपरिगृहीतागमन-किसी के द्वारा अगृहीत वेश्या आदि से आलाप-सलापरूप गमन करना (३) अनग-क्रीड़ा ---कामोत्तेजक आलिंगनादि क्रीडा करना, अप्राकृतिक क्रीड़ा। (४) पर विवाहकरण-पर-सतति का विवाह करना-और (५) कामभोगतीवाभिलाषा-काम-भोग की तीन आकांक्षा रखना। स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है : Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [११७ (१) क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम-क्षेत्रवास्तु परिमाण का अतिक्रमण करना (२) हिरण्य-सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम - चाँदी और सोने के परिमाण का अतिक्रमण करना । (३) धनधान्य-प्रमाणातिक्रम-धन, रुपये, पैसे, रत्नादि और धान्य के परिमाण का अतिक्रमण - उल्लघन करना (४) द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रमद्विपद-तोता, मैना, दास-दासी और चतुष्पद गाय, भैंस आदि पशुओ के परिमाण का अतिक्रमग-उल्लघन करना और (५) कुप्यप्रमाणातिक्रम-~घर के वर्तन आदि उपकरणो के परिमाण का अतिक्रमण-उल्लघन करना । ___छठे दिगवत के पाँच अतिचार है, जो श्रमणोपासक को जानने चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है :-(१) ऊर्ध्व-दिक्प्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा के प्रमाण का अतिक्रमण (२) अधोदिक्प्रमाणातिक्रम-अधोदिशा के प्रमाण का अतिक्रमण (३) तिर्यग-दिकप्रमाणातिक्रम-अन्य सर्वदिना-विदिशाओ के प्रमाण का अतिक्रमण (४) क्षेत्रवृद्धि-एक दिशा में क्षेत्र घटा कर दूसरी मे बढाना और (५) स्मृत्यन्तराधानपरिमाण के सम्बन्ध मे स्मृति न रख आगे जाना । सातवाँ उपभोग परिभोग व्रत दो प्रकार का कहा गया है-भोजन से और कर्म से। उसमे से भोजन सम्बन्धी पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है :(१) सचित्ताहार -प्रत्याख्यान के उपरान्त - सचित्त-सजीव वनस्पति आदि का आहार करना (२) सचित्त प्रतिवद्धाहार-सचित्त वस्तु के साथ लगी अचित्त वस्तु का भोजन करना - जैसे गुठली सहित सूखे वेर या खजूर खाना । (३) अपस्वोपधि-भक्षण - अग्नि से न पकी औषधि-वनस्पति-शाकभाजी का भक्षण करना (४) दुष्पक्वौपविभक्षण-अर्द्ध पकी औषधि- वनस्पति का भक्षण करना और (५) तुच्छोपधि- असार वनस्पति-शाकभाजी का भक्षण करना। कर्म-आश्रयी श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादान जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है --(१) अगार कर्मजिसमे अगार-अग्नि का विशेप प्रयोग होता हो, ऐसा उद्योग या व्यापार (2) वन कर्म-जगल, वृक्ष वनस्पति वेचने का व्यापार, वृक्षादि काटने का Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] जैन परम्परा का इतिहास धधा (३) शाकट-कर्म - गाड़ी आदि वाहन बनाने बेचने या चलाने का काम करना (४) भाटक कर्म--गाड़ा वगैरह वाहन भाड़े पर चलाने का काम (५) स्फोट-कर्म-जिसमे भूमि खोदने, पर्वत आदि स्कोट करने का काम हो (६) दन्त-वाणिज्य हाथी-दांत आदि प्राणियो के अवयवो का व्यापार (७) लाक्षावाणिज्य - लाख वगैरह का व्यापार (८) रस-वाणिज्य -मदिरा वगैरह का व्यापार (8) केशवाणिज्य–केश का व्यापार (१०) विष-वाणिज्यजहरीली वस्तुएं और शस्त्रादि का व्यापार (११) यन्त्रपीलन-कर्म-तिल, ऊख वगैरह पीलने का काम (१२) निर्ला छन कर्म-बैल आदि को नपुसक करने का काम (१३) दावाग्नि वापन---वन आदि को अग्नि लगा साफ करने का धन्धा (१४) सरदहतालाब-शोषण-सरोवर, दह, तालाब आदि के शोपण का काम और (१५) असतीजनपोषण-आजीविका के लिए वेश्यादि का पोषण अथवा पक्षियो का खेल-तमाशा, मांस, अण्डे आदि के व्यापार के लिए पोषण । आठवें अनर्थ विरमण व्रत के पाँच अतिचार है, जिन्हे श्रमणोपासक को जानना चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है :(१) कन्दर्प-कामोत्तेजक बातें करना (२) कौत्कुच्य-भौहे, नेत्र, मुह, हाथ, पैर आदि को विकृत कर परिहास उत्पन्न करना (३) मौखर्य-वाचालता, असबद्ध आलाप (४) सयुक्ताधिकरण-हिंसा के साधन शस्त्रादि-तैयार रखना और (५) उपभोग परिभोगा तिरिक्तता-उपभोग परिभोग वस्तुओ की अधिकता। ___ नववे सामायिक नत के पाँच अतिचार है, जो श्रमणोपासक को जानने चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है :(१) मनोदुष्प्रणिधान - मन की बुरी प्रवृत्ति (२) वाग्दुष्प्रणिधान-वाणी की दुष्प्रवृत्ति तथा (३) कायदुष्प्रणिधान-काया की दुष्प्रवृत्ति की हो (४) स्मृतिअकरण--सामायिक की स्मृति न रखना और (५) अनवस्थितकरण-सामायिक व्यवस्थित-नियत रूप से न क ना । दसर्वे देशावकाशिक व्रत के पॉच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है :-(१) आनयन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ११६ प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से सन्देशादि द्वारा कोई वस्तु मगाना ( २ ) प्रेष्यण- प्रयोग — मर्यादित क्षेत्र के बाहर भृत्यादि द्वारा कुछ भेजना ( २ ) शब्दानुपात - खाँसी वगैरह शब्दो द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी को मनोगत भाव व्यक्त करना ( ४ ) रूपानुपात - रूप दिखा कर अथवा इ गितो द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी को मनोगत भाव प्रगट करना ( ५ ) बहि पुद्गल प्रक्षेप – ककर आदि फेंक कर इशारा करना । ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है :(१) अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्या सस्तारक - वसति और कम्बल आदि का प्रतिलेखन – निरीक्षण न करना अथवा अच्छी तरह न करना ( २ ) अप्रमार्जिन - दुष्प्रमार्जित शय्या सस्तारक - बसति और कम्बल आदि वस्तुओ का प्रमार्जन न करना अथवा अच्छी तरह प्रमार्जन न करना ( ३ ) अप्रतिले खितदुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि- - उच्चार - टट्टी की जगह और प्रस्रवण - पेशाब करने की जगह का प्रतिलेखन - निरीक्षण न करना अथवा अच्छी तरह निरीक्षण न करना ( ४ ) अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित उच्चारप्रस्रवणभूमि - टट्टी की भूमि और पेगाव करने की भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा अच्छी तरह से प्रमार्जन न करना ( ५ ) पौषधोपवास- सम्यक्अपालन - पौषधोपवास व्रत का विधिवत् पालन नही करना । बारहवें यथासविभाग व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है (१) सचित्त - निक्षेप - साधु को देने योग्य आहारादि पर सचित वनस्पति वगैरह रखना ( २ ) सचित्त- पिधान - आहार आदि सचित्त वस्तु से ढकना (३) कालातिक्रम- - साधुओ को देने के समय को टालना ( ४ ) परव्यपदेश - 'यह वस्तु दूसरे की है' — ऐसा कहना और ( ५ ) मत्सरिता - मात्सर्यपूर्वक दान देना । संलेखना के पाँच अपश्चिममारणांतिक - सखना जोषणाराधना अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है - (१) इहलोकशसा - 'मैं राजा होऊ' - ऐसी इहलौकिक Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] जैन परम्परा का इतिहास कामना ( २ ) परलोकाशंसा-प्रयोग-'मैं देव होऊ'-ऐसी परलोक की इच्छा करना ( ३) जीविताशंसा-प्रयोग-'मैं जीवत रहूँ'-ऐसी इच्छा करना (४) मरणाशंसा-प्रयोग-'मैं शीघ्र मरू'-ऐसी इच्छा करना और (५) कामभोगाशंसा-प्रयोग-कामभोग की कामना करना । ___ इनमें से कुछेक अतिचारो के वर्णन से केवल आध्यात्मिकता की पुष्टि होती है। किन्तु इसमे अधिकांश ऐसे है जो आध्यात्मिकता की पुष्टि के साथसाथ जीवन के व्यावहारिक पक्ष को भी समुन्नत बनाए रखते है । दिगन्नत के अतिचारो में आक्रमण, साम्राज्य-लिप्सा और भोग-विस्तार का भाव दिया है। ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा में जाने के साधनो पर अंकुश लगाया गया है। इन ब्रतो और अतिचार-निषेधो का आज के चारित्रिक मूल्यो को स्थिर रखने में महत्त्वपूर्ण योग है। डा० अल्टेकर ने इसका अंकन इन शब्दो में किया है - "हमारे देश मे आने वाले यूनानी, चीनी एव मुसलमान यात्रियों ने बड़ी बड़ी प्रशसात्मक बातें कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि सदाचार और तपस्या सम्बन्धी भगवान् महावीर आदि महात्माओ के सिद्धान्त हमारे पूर्वजों के चरित्र मे मूर्तिमन्त हुए थे। हम में यह दुर्बलता जो आज दिखाई पड रही है, वह विदेशी दासता के कारण ही उत्पन्न हुई है। इसलिए समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए आज अणुव्रत के प्रचार को अत्यन्त आवश्यकता है ३१ ।" भगवान् महावीर के युग में जैन-धर्म भारत के विभिन्न भागो मे फैला । सम्राट अशोक के पुत्र सम्प्रति ने जैन-धर्म का सन्देश भारत से बाहर भी पहुँचाया। उस समय जैन-मुनियों का विहार-क्षेत्र भी विस्तृत हुआ। श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे ने अहिसक-परम्परा की चर्चा करते हुए लिखा है"ई० सन् की पहली शताब्दी मे और उसके बाद के हजार वर्षों तक जैन-धर्म मध्य पूर्व के देशो में किसी न किसी रूप में यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म को प्रभावित करता रहा है।" प्रसिद्ध जर्मन इतिहास-लेखक बान क्रेमर के अनुसार मध्यपूर्व मे प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रश है। इतिहास-लेखक जी० एफ० मूर लिखता है कि "हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व ईराक, श्याम और फिलस्तीन से जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१२१ सैकड़ो को सख्या मे फैले हुए थे। 'सिया हत नाम ए ना सिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन-धर्म का काफी प्रभाव पडा था । कल-दर चार नियमो का पालन करते थे-साधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता । वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे३२ । महात्मा ईसु क्राइस्ट जैन सिद्धान्तो के सम्पर्क मे आये और उनका प्रभाव ले गए थे। रामस्वामी अय्यर ने इस प्रसंग की चर्चा करते हुए लिखा है"यहूदियो के इतिहास लेखक 'जोजक्स' के लेख से प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में गुजरात प्रदेश द्राविडो के तावे मे था और गुजरात का पालीताणा नगर तामिलनाड प्रदेश के अधीन था । यही कारण है कि दक्षिण से दूर जाकर भी यहूदियो ने पालीताणा के नाम से ही "पलिस्टाइन" नाम का नगर वसाया और गुजरात का पालीताणा ही पैलिस्टाइन हो गया । गुजरात का पालीताणा जैनो का प्राचीन और प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। प्रतीत होता है कि ईसू स्त्रीष्ट ने इसी पालीताणा मे आकर वाईविल लिखित ४० दिन के जन उपवास द्वारा जैन शिक्षा लाभ की थी।" जैन धर्म का प्रसार अहिंसा, शान्ति, मैत्री और संयम का प्रसार था । इसलिए उस युग को भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग कहा जाता है । पुरातत्त्व-विद्वान् पी० सी० राय चौधरी के अनुसार-"यह धर्म धीरे-धीरे फैला, जिस प्रकार ईसाई धर्म का प्रचार यूरोप मे धीरे-धीरे हुआ। श्रेणिक, कुणिक, चन्द्रगुप्त, सम्प्रति, खारवेल तथा अन्य राजाओ ने जैन-धर्म को अपनाया। वे शताब्द भारत के हिन्दू शासन के वैभवपूर्ण युग थे । जिन युगो मे जैन-धर्म सा महान् धर्म प्रचारित हुआ3४।" कभी-कभी एक विचार प्रस्फुटित होता है-जैन धर्म के अहिंसा-सिद्धान्त ने भारत को कायर बना दिया, पर यह सत्य से दूर है। अहिंसक कभी कायर नही होता। यह कायरता और उसके परिणामस्वरूप परतन्त्रता हिसा के उत्कर्ष से, आपसी वैमनस्य से आई और तब आई जब जैन-धर्म के प्रभाव से भारतीय मानस दूर हो रहा था। भगवान महावीर ने समाज के जो नैतिक मूल्य स्थिर किए, उनमे ये बातें सामाजिक और राजनीतिक दृप्ट से भी अधिक महत्वपूर्ण थी। पहिली सकल्प Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] जैन परम्परा का इतिहास हिसा का त्याग-अनाक्रमण और दूसरी-परिग्रह का सीमाकरण । यह लोकतन्त्र या समाजवाद का प्रधान सूत्र है । वाराणसी सस्कृत विश्व-विद्यालय के उपकुलपति आदित्यनाथ झा ने इस तथ्य को इन शब्दों मे अभिव्यक्त किया है''भारतीय जीवन मे प्रज्ञा और चारित्र्य का समन्वय जैन और बोद्धों की विशेष देन है । जैन दर्शन के अनुसार सत्य-मार्ग-परम्परा का अन्धानुसरण नहीं है, प्रत्युत तर्क और उपपत्तियो से सम्मत तथा बौद्धिक रूप से सन्तुलित दृष्टिकोण ही सत्य मार्ग है । इस दृष्टिकोण को प्राप्ति तभी सम्भव है जब मिथ्या विश्वास पूर्णत दूर हो जाय । इस बौद्धिक आधार शिला पर ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के बल से सम्यक् चारित्र्य को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। जैन धर्भ का आचार-शास्त्र भी जनतन्त्रवादी भावनाओं से अनुप्राणित है। जन्मत: सभी व्यक्ति समान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और रुचि के अनुसार गृहस्थ या मुनि हो सकता है। अपरिग्रह सम्बन्धी जैन धारणा भी विशेषत उल्लेखनीय है । आज इस बात पर अधिकाधिक बल देने की आवश्यकता है, जैसा कि प्राचीन काल के जैन विचारकों ने किया था। परिमित परिग्रह' उनका आदर्श वाक्य था । जैन विचारको के अनुसार परिमित्त-परिग्रह का सिद्धान्त प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य रूप से आचरणीय था। सम्भवत भारतीय आकाश में समाजवादी समाज के विचारो का यह प्रथम उद्घोष था३५।" प्रत्येक आत्मा मे अनन्त शक्ति के विकास की क्षमता, आत्मिक समानता, क्षमा, मंत्री, विचारो का अनाग्रह आदि के बीज जैन-धर्म ने बोए थे। महात्मा गांधी का निमित्त पा, वे केवल भारत के ही नही, विश्व की राजनीति के क्षेत्र में पल्लवित हो रहे हैं। विस्तार और संक्षेप भगवान् महावीर की जन्म-भूमि, तपोभूमि और विहारभूमि बिहार था। इसलिए महावीर कालीन जैन-धर्म पहले बिहार मे पल्लवित हुआ। काल क्रम से वह बंगाल, उडीसा, उत्तरभारत, दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रान्त और राजपुताने में फैला। विक्रम की सहस्राब्दी के पश्चात् शैव, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१२३ लिंगायत, वैष्णव आदि वैदिक सम्प्रदायो के प्रबल विरोध के कारण जैन-धर्म का प्रभाव सीमित हो गया। अनुयायियो की अल्प संख्या होने पर भी जैनधर्म का सैद्धान्तिक प्रभाव भारतीय चेतना पर व्याप्त रहा। बीच-बीच मे प्रभावशाली जैनाचार्य उसे उबुद्ध करते रहे। विक्रम की वारहवी शताब्दी मे गुजरात का वातावरण जैन-धर्म से प्रभावित था। गूर्जर-नरेश जयसिंह और कुमारपाल ने जैन-धर्म को बहुत ही प्रश्रय दिया और कुमारपाल का जीवन जैन-आचार का प्रतीक बन गया था। सम्राट अकबर भी हीरविजयसूरि से प्रभावित थे। अमेरिकी दार्शनिक विलड्यूरेन्ट ने लिखा है -"अकवर ने जैनों के कहने पर शिकार छोड़ दिया था और कुछ नियत तिथियो पर पशु-हत्याएं रोक दी थी। जैन-धर्म के प्रभाव से ही अकवर ने अपने द्वारा प्रचारित दीन-इलाही नामक सम्प्रदाय मे मांस-भक्षण के निषेध का नियम रखा था । जैन मत्री, दण्डनायक और अधिकारियो के जीवन-वृत्त बहुत ही विस्तृत हैं। वे विधर्मी राजाओ के लिए मी विश्वास-पात्र रहे है। उनकी प्रामाणिकता और कर्तव्यनिष्ठा की व्यापक प्रतिष्ठा थी। जैनत्व का अकन पदार्थो से नही, किन्तु चारित्रिक मूल्यो से ही हो सकता है। जैन संस्कृति और कला माना जाता है-आर्य भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर ई० सन् से लगभग ३००० वर्ष पूर्व आये। आर्यो से पहले बसने वाले पूस, भद्र, उर्वश, सुहब्रू, अनु, कुनाश, शवर, नमुचि, नात्य आदि मुख्य थे। जैन-धर्मो मे व्रतो की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। उसके सवाहक श्रमण व्रती थे। उनका अनुग मी समाज व्रात्य था-यह मानने में कोई कठिनाई नही है। प्राग्वैदिक और वैदिक काल मे तपो-धर्म का प्रावल्य था। तपो-धर्म का परिष्कृत विकास ही जैन-धर्म है-कुछ विद्वान् ऐसा मानते है ३७ । तपस्या जन-साधना-पद्धति का प्रमुख अग है। भगवान् महावीर दीर्घ-तपस्वी कहलाते थे। :जन-श्रमणो को भी तपस्वी कहा गया है। "तवे सूरा अणगारा" तप में शूर अणगार होते है-यह जैन-परम्परा का प्रसिद्ध वाक्य है। भगवान महाधीर के समय में जैन-धर्म को निग्नन्थ-प्रवचन कहा जाता, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२४ ] जैन परम्परा का इतिहास था । बौद्ध साहित्य में भगवान् का उल्लेख 'निग्गठ नातपुत्त' के नाम से हुआ है । वर्तमान मे वही निर्ग्रन्थ-प्रवचन जैन-धर्म के नाम से प्रसिद्ध है । व्रात्य का मूल व्रत है । व्रत शब्द आत्मा के सान्निध्य और बाह्य जगत् के दूरत्व का सूचक है । तप के उद्भव का मूल जीवन का समर्पण है । जैन - परम्परा तप को अहिंसा, समन्वय, मैत्री और क्षमा के रूप में मान्य करती है । भगवान् महावीर ने अज्ञानपूर्ण तप का उतना ही विरोध किया है, जितना कि ज्ञानपूर्ण तप का समर्थन | अहिंसा पालन में बाधा न आये, उतना तप सब साधको के लिए आवश्यक है । विशेष तप उन्ही के लिए है -- जिनमें आत्मबल या दैहिक विराग तीव्रतम हो । इस प्रकार जैन संस्कृति आध्यात्मिकता, त्याग, सहिष्णुता, अहिंसा, समन्वय, मैत्री, क्षमा, अपरिग्रह और आत्म-विजय की धाराओ का प्रतिनिधित्व करती हुई विभिन्न युगो में विभिन्न नामो द्वारा अभिव्यक्त हुई है । एक शब्द में जैन - सस्कृति की आत्मा उत्सर्ग है । बाह्य स्थितियों में जय पराजय की अनवरत श्रृङ्खला चलती है । वहाँ पराजय का अन्त नही होता । उसका पर्यवसान आत्म-विजय में होता है । यह निर्द्वन्द्व स्थिति है । जैन- विचार धारा को बहुमूल्य देन सयम है । सुख का वियोग मत करो, दुःख का सयोग मत करो — सबके प्रति संयम करो ३८ । सुख दो और दु.ख मिटाओ की भावना मे आत्म-विजय का भाव नही होता | दुःख मिटाने की वृत्ति और गोषण, उत्पीड़न तथा अपहरण, साथसाथ चलते है । इधर शोषण और उबर दुख मिटाने की वृत्ति - यह उच्च संस्कृति नही । सुख का वियोग और दुःख का सयोग मत करो - यह भावना आत्म-विजय की प्रतीक है । सुख का वियोग किए बिना शोपण नही होता, अधिकारो का हरण और द्वन्द्व नही होता । सुख मत लूटो और दुख मत दो - इस उदात्त भावना में आत्म-विजय का स्वर जो है, वह है ही । उसके अतिरिक्त जगत् की नैसर्गिक स्वतन्त्रता का भी महान् निर्देश है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १२५ प्राणीमात्र अपने अधिकारो मे रमणशील और स्वतन्त्र है, यही उनकी सहज सुख की स्थिति है। सामाजिक सुख-सुविधा के लिए इसकी उपेक्षा की जाती है, किन्तु उस उपेक्षा को शाश्वत-सत्य समझना भूल से परे नहीं होगा। दश प्रकार का संयम३९, दश प्रकार का सवर४० और दश प्रकार का विरमण है वह सव स्वात्मोन्मुखी वृत्ति है, या वह निवृत्ति है या है निवृत्तिसवलित प्रवृत्ति। दश आशसा के प्रयोग संसारोन्मुखी वृत्ति है४९ । जैन-सस्कृति में प्रमुख वस्तु है 'दृष्टिसम्पन्नता'-सम्यक् दर्शन । ससारोन्मुखी वृत्त अपनी रेखा पर और आत्मोन्मुखी वृत्ति अपनी रेखा पर अवस्थित रहती है, कोई दुविधा नही होती। अव्यवस्था तब होती है, जब दोनों का मूल्यांकन एक ही दृष्टि से किया जाय। ससारोन्मुखी बृत्ति मे मनुष्य अपने लिए मनुष्येतर जीवो के जीवन का अधिकार स्वीकार नहीं करते। उनके जीवन का कोई मूल्य नही आँकते। दुख मिटाने और सुखी बनाने की वृत्ति व्यवहारिक है, किन्तु क्षुद्र-भावना, स्वार्थ और सकुचित वृत्तियो को प्रश्रय देनेवाली है। आरम्भ और परिग्रह-यै व्यक्ति को धर्म से दूर किये रहते है४२ । बड़ा व्यक्ति अपने हित के लिए छोटे व्यक्ति की, वडा राष्ट्र अपने हित के लिए छोटे राष्ट्र की निर्मम उपेक्षा करते नही सकुचाता। बड़े से भी कोई वडा होता है और छोटे से भी कोई छोटा। वडे द्वारा अपनी उपेक्षा देख छोटा तिलमिलाता है, किन्तु छोटे के प्रति कठोर बनते वह नही सोचता । यहाँ गतिरोध होता है। जैन विचारधारा यहाँ बताती है-दुःखनिवर्तन और सुख-दान की प्रवृत्ति को समाज को विवशात्मक अपेक्षा समझो, उसे ध्रुव-सत्य मान मत चलो। सुख मत लूटो, दु ख मत दो--इसे विकसित करो। इसका विकास होगा तो दुःख मिटाओ, सुखी बनाओ की भावना अपने आप पूरी होगी। दुःखी न बनाने की भावना बढेगी तो दुःख अपने आप मिट जाएगा । सुख न लूटने की भावना दृढ होगी तो सुखी बनाने की आवश्यकता ही क्या होगी ? सक्षेप में तत्त्व यह है-दु.ख-सुख को ही जीवन का ह्रास और विकास Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] जैन परम्परा का इतिहास मत समझो । संयम जीवन का विकास है ओर असयम ह्रास । असंयमी थोड़ों को व्यावहारिक लाभ पहुचा सकता है । किन्तु वह छलना, क्रूरता और शोषण को नही त्याग सकता। सयमी थोड़ो का व्यवहारिक निश्छल, दयालु और शोषण मुक्त इसके लिए उच्च वृत्तियाँ चाहिए, जैसे हित न साध सके, फिर भी वह सबके प्रति रहता है । मनुष्य जीवन उच्च संस्कारी बने, (१) आर्जव या ऋजुभाव, जिससे विश्वास बढे । (२) मार्दव या दयालुता, जिससे मैत्री बढ़े । (३) लाघव या नम्रता, जिससे सहृदयता बढे । (४) क्षमा या सहिष्णुना, जिससे धैर्य बडे । (५) शौच या पवित्रता, जिससे एकता बढे । (६) सत्य या प्रामाणिकता, जिससे निर्भयता बढे । (७) माध्यस्थ या आग्रह- हीनता, जिससे सत्य स्वीकार की शक्ति बढे । किन्तु इन सबको सयम की अपेक्षा है । " एक ही साधे सब सधै " संयम की साधना हो तो सब सब जाते है, नही तो नही । जैन विचारधारा इस तथ्य को पूर्णता का मध्य विन्दु मान कर चलती है | अहिंसा जो 'जैन- विचारणा' की सर्वोपरि देन मानी जाती है । इमी की उपज है ४ ३, 3 प्रवर्तक - धर्म पुण्य या स्वर्ग को ही अन्तिम साध्य मानकर रुक जाता था । उसमें जो मोक्ष पुरुषार्थ की भावना का उदय हुआ, वह निवर्तक धर्म या श्रमण सस्कृति का ही प्रभाव है । अहिंसा और मुक्ति - श्रमण - संस्कृति की ये दो ऐसी आलोक रेखाए है, जिनसे जीवन के वास्तविक मूल्यों को देखने का अवसर मिलता है । जब जीवन का धर्म - अहिंसा या कष्ट - सहिष्णुता और साध्य - मुक्ति या स्वातन्त्र्य बन जाता है, तब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति रोके नही रुकती । आज की प्रगति की कल्पना के साथ ये दो धाराएं और जुड जायें तो साम्य आयेगा, भोगपरक नही किन्तु त्यागपरक वृत्ति बढेगी. - दानमय नही किन्तु अग्रहणमय, नियत्रण बढेगा - दूसरो का नही किन्तु अपना । - 1 अहिंसा का विकास संयम के आधार पर हुआ है । जर्मन विद्वान् अलबर्ट Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १२७ स्वीजर ने इस तथ्य का वडी गम्भीरता से प्रतिपादन किया है। उनके मतानुसार "यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें मारने, कट न देने की ही सीमाएं कैसे बघ सकी और दूसरो को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है ? यह दलील कि सन्यास की भावना मार्ग में बाधक बनती है, सत्य का मिथ्या आभास मात्र होगा। थोड़ी से थोडी करुणा भी इस सकुचित सीमा के प्रति विद्रोह कर देती। परन्तु ऐसा कभी नही हुआ। मतः अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर ससार से पवित्र रहने की भावना पर मावृत हे। यह मूलत: कार्य के आचरण से नही अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से सम्बन्धित है। यदि प्राचीन काल का धार्मिक भारतीय जीवित प्राणियो के साथ के सम्पर्क मे अकार्य के सिद्धान्त का दृढ़ता पूर्वक अनुसरण करता था तो वह अपने लाभ के लिए, न कि दूसरे जीवों के प्रति करुणा के भाव से। उसके लिए हिंसा एक ऐसा कार्य था, जो वयं था। यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवो के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नही हुआ है । भारतीय सन्याम मे अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है। अहिंसा स्वतन्त्र न होकर करुणा की भावना की अनुयायी होनी चाहिए। इस प्रकार उसे वास्तविकता से व्यावहारिक विवेचन के क्षेत्र मे पदार्पण करना चाहिए। नैतिकता के प्रति शुन्द्र भक्ति उसके अन्तर्गत वर्तमान मुसीवतो का सामना करने की तत्परता से प्रकट होती है। पर पुनर्वार कहना पडता है कि भारतीय विचारधारा हिसा न करना और किसी को क्षति न पहुंचाना, ऐसा ही कहती रही है तभी वह शताब्दी गुजर जाने पर भी उस उच्च नैतिक विचार की अच्छी तरह रक्षा कर सकी, जो इसके साथ सम्मिलित है। जैन-धर्म में सर्व प्रथम भारतीय संन्यास ने आचारगत विशेषता प्राप्त की। जैन-धर्म मूल से ही नही मारने और कष्ट न देने के उपदेश को महत्त्व देता है जब कि उपनिपदो में इसे मानो प्रसगवश कह दिया गया है। साधारणत यह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] जैन परम्परा का इतिहास कैसे संगत हो सकता है कि यज्ञों में जिनका नियमित कार्य था पशु-हत्या करना, उन ब्राह्मणों में हत्या न करने का विचार उठा होगा? ब्राह्मणों ने अहिंसा का उपदेश जैनो से ग्रहण किया होगा, इस विचार की ओर संकेत करने के पर्याप्त कारण है। हत्या न करने और कष्ट न पहुँचाने के उपदेश की स्थापना मानव के आध्यात्मिक इतिहास मे महानतम अवसरो में से एक है। जगत् और जीवन के प्रति अनासक्ति और कार्य-त्याग के सिद्धान्त से प्रारम्भ होकर प्रचीन भारतीय विचारधारा इम महान् खोज तक पहुँच जाती है, जहाँ आचार की कोई सीमा नहीं। यह सब उस काल मे हुआ जब दूसरे अचलो में आचार की उतनी अधिक उन्नति नही हो सकी थी। मेरा जहाँ तक ज्ञान है जैन-धर्म मे ही इसकी प्रथम स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई।४।। ___सामान्य धारणा यह है कि जैन-सस्कृति निराशावाद या पलायनवाद की प्रतीक है। किन्तु यह चिन्तन पूर्ण नहीं है । जैन-संस्कृति का मूल तत्त्ववाद है। कल्पनावाद में कोरी आशा होती है। तत्त्ववाद मे आशा और निराशा का यथार्थ अकन होता है। ऋग्वेद के गीतों में वर्तमान भावना आशावादी है। उसका कारण तत्त्व-चिन्तन की अल्पता है । जहाँ चिन्तन को गहराई है वहाँ विषाद की छाया पाई जाती है। उषा को सम्बोधित कर कहा गया है कि वह मनुष्य-जीवन को क्षीण करती है४५ । उल्लास और विषाद विश्व के यथार्थ रूप है । समाज या वर्तमान के जीवन की भूमिका में केवल लल्लास की कल्पना होती है। किन्तु जब अनन्त अतीत और भविष्य के गर्भ मे मनुष्य का चिन्तन गतिशील होता है, समाज के कृत्रिम बन्धन से उन्मुक्त हो जब मनुष्य 'व्यक्ति' स्वरूप की ओर दृष्टि डालता है, कोरी कल्पना से प्रसूत आशा के अन्तरिक्ष से उतर वह पदार्थ की भूमि पर चला जाता है, समाज और वर्तमान की वेदी पर खड़े लोग कहते है - यह निराशा है, पलायन है । तत्त्व-दर्शन की भुमिका में से निहारने वाले लोग कहते हैं कि यह वास्तविक आनन्द की ओर प्रयाण है। पूर्व औपनिषदिक विचारधारा के समर्थको को ब्रह्मद्विष (वेद से घृणा करने वाले ) देवनिन्द (देवताओ की निन्दा करने वाले ) कहा गया । भगवान पार्श्व उसी परम्परा के ऐतिहासिक व्यक्ति है। इनका समय हमें उस Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १२६ काल मे ले जाता है जब ब्राह्मण-ग्रन्थो का निर्माण हो रहा था। जिसे पलायनवाद कहा गया । उससे उपनिपद्-साहित्य मुक्त नही रहा । परिग्रह के लिए सामाजिक प्राणी कामनाएँ करते है। जन उपासको का कामना सूत्र है (१) कव में अल्प मूल्य एव बहु मूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा। (२) कव में मुण्ड हो गृहस्थपन छोड़ साधुव्रत स्वीकार करूंगा। (३) कव मैं अपश्चिम-मारणान्तिक-सलेखना यानी अन्तिम अनशन मे शरीर को झोसकर-जुटाकर भूमि पर गिरी हुई वृक्ष को डाली की तरह अडोल रह कर मृत्यु की अभिलाषा न करता हुआ विचरूंगा। __ जैनाचार्य धार्मिक विचार मे बहुत ही उदार रहे है। उन्होने अपने अनुयायियो को केवल धार्मिक नेतृत्व दिया। उन्हें परिवर्तनशील सामाजिक व्यवम्या मे कभी नही वांधा। समाज-व्यवस्था को समाज-शास्त्रियो के लिए सुरक्षित छोड दिया। धार्मिक विचारो के एकत्व की दृष्टि से जन-समाज है किन्तु सामाजिक बन्धनो की दृष्टि से जैन-समाज का कोई अस्तित्व नही है। जैनो की संख्या करोडो से लाखो मे हो गई, उसका कारण यह हो सकता है और इस सिद्धान्तवादिता के कारण वह धर्म के विशुद्ध रूप की रक्षा भी कर सका है। जैन-सस्कृति का रूप सदा व्यापक रहा है। उसका द्वार सबके लिए खुला रहा है। भगवान् ने अहिंसा-धर्म का निरूपण उन सबके लिए किया-जो आत्म-उपासना के लिए तत्पर थे या नही थे, जो उपासना-मार्ग सुनना चाहते थे या नहीं चाहते थे, जो शस्त्रीकरण से दूर थे या नही थे, जो परिग्नह की उपाधि से बन्चे हुए थे या नही थे, जो पौद्गलिक सयोग में फंसे हुए थे या नही थे-और सबको धार्मिक जीवन बिताने के लिए प्रेरणा दी और उन्होने कहा - (१) धर्म की आराधना में स्त्री-पुरुष का भेद नही हो सकता । फलवस्वरूपश्रमण, अमणी, श्रावक और श्राविका-ये चार तीर्थ स्थापित हुए४९ । (२) धर्म की आराधना मे जाति-पॉति का भेद नही हो सकता । फलस्वरूप सभी जातियो के लोग उनके संघ में प्रवजित हुए.. | Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] जैन परम्परा का इतिहास (३) धर्म की आराधना मे क्षेत्र का भेद नही हो सकता। वह गाँव में भी की जा सकती है और अरण्य में भी की जा सकती है५१ । (४) धर्म की आराधना में वेष का भेद नही हो सकता। उसका अधिकार श्रमण को भी है, गृहस्थ को भी है५२ । (५) भगवान् ने अपने श्रमणो से कहा-धर्म का उपदेश जैसे पुण्य को दो, वैसे ही तुच्छ को दो । जैसे तुच्छ को दो, वैसे ही पुण्य को दो५३ । इस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असाम्प्रदायिकता और जातीयता का अभाव है। व्यवहार-दृष्टि में जैनो के सम्प्रदाय है। पर उन्होने धर्म को सम्प्रदाय के साथ नही बांधा । वे जैन-सम्प्रदाय को नही, जैनत्व को महत्त्व देते है । जैनत्व का अर्थ है- सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना । इनकी आराधना करने वाला अन्य सम्प्रदाय के वेष मे भी मुक्त हो जाता है, गृहस्थ के वेष मे भी मुक्त हो जाता है । शास्त्रीय शब्दो मे उन्हे क्रमश अन्य-लिंग सिद्ध और गृह-लिंग-सिद्ध कहा जाता है५४ । इस व्यापक और उदार चेतना की परिणनि ने ही जैन आचार्यों को यह कहने के लिए प्रेरित किया - पक्षपातो न मे बीरे, न द्वेष. कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रह ॥ (हरिभद्र सूरि ) भव-बीजांकुर-जनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ (आचार्य हेमचन्द्र) स्वागमं रागमात्रेण, द्वषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया द्दशा ॥ (उपाध्याय यशोविजय ) सहज ही प्रश्न होता है-जैन-सस्कृति का स्वरूप इतना व्यापक और उदार था, तब वह लोक-सग्रह करने मे अधिक सफल क्यो नही हुई ? इसके समाधान में कहा जा सकता है-जैन दर्शन की सूक्ष्म सिद्धान्तवादिता, तपोमार्ग की कठोरता, अहिंसा की सूक्ष्मता और सामाजिक बन्धन Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१३१ का अभाव-ये सारे तत्त्व लोक समाहात्मक पक्ष को अशक्त करते रहे है । जैनसाधु-सघ का प्रचार के प्रति उदासीन मनोभाव भी उसके विस्तृत न होने का प्रमुख कारण वना है। कला कला विशुद्ध समाजिक तत्त्व है । उसका धर्म या दर्शन से कोई सम्बन्ध नही है । पर धर्म जब गासन बनता है, उसका अनुगमन करने वाला समाज बनता है, तव कला भी उसके सहारे पल्लवित होती है। जन-परम्परा में कला शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ मे व्यवहृत हुआ है । भगवान् ऋषभदेव ने अपने राजस्व काल मे पुरुषो के लिए वहत्तर और स्त्रियो के लिए चौसठ कलाओ का निरूपण किया५५ । टीकाकारो ने कला का अर्थ वस्तु-परिज्ञान किया है। इसमे लेख, गणित, चित्र, नृत्य, गायन, युद्ध, काव्य, वेष-भूषा, स्थापत्य, पाक, मनोरंजन आदि अनेक परिज्ञानो का समावेश किया गया है। धर्म भी एक कला है । यह जीवन को सबसे बड़ी कला है। जीवन के सारस्य की अनुभूति करने वाले तपस्वियो ने कहा है-जो व्यक्ति सब कलाओ में प्रवर धर्म-कला को नही जानता, वह वहत्तर कलाओ में कुशल होते हुए भी अकुशल है५६ । जैन-धर्म का आत्म-पक्ष धर्म-कला के उन्नयन मे ही सलग्न रहा । वहिरग-पक्ष सामाजिक होता है । समाज-विस्तार के साथ-साथ ललित कला का भी विस्तार हुआ। चित्र-फला जैन-चित्रकला का श्रीगणेश तत्त्व-प्रकाशन से होता है। गुरु अपने शिष्यो को विश्व-व्यवस्या के तत्त्व स्थापना के द्वारा समझाते है। स्थापना तदाकार और अतदाकार दोनो प्रकार की होती है । तदाकार स्थापना के दो प्रयोजन है- तत्त्व प्रकाशन और स्मृति । तत्त्व-प्रकाशन-हेतुक स्थापना के आधार पर चित्रकला और स्मृति हेतुक स्थापना के आधार मूर्तिकला का विकास हुआ । ताडपत्र और पत्रो पर अन्य लिखे गए और उनमे चित्र किए गए। विक्रम को दूसरी सहस्राब्दी मे हजारो ऐसी प्रतियां लिखी गई , जो कलात्मक चित्राकृतियो के कारण अस्तुत्य सी है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] जैन परम्परा का इतिहास ताडपत्रीय या पत्रीय प्रतियो के पट्ठो, चातुर्मासिक प्रार्थनाओ, कल्याण, मन्दिर, भक्तामर आदि स्तोत्रो के चित्रो को देखे बिना मध्यकालीन चित्र-कला का इतिहास अधूरा ही रहता है। ___ योगी मारा गिरिगुहा ( रामगढ की पहाड़ी, सरगुजा ) और सितन्नवासल (पदुकोट राज्य ) के भित्ति-चित्र अत्यन्त प्राचीन व सुन्दर है। चित्र कला की विशेष जानकारी के लिए जैन चित्रकल्पद्रुम देखना चाहिए लिपि-कला अक्षर-विन्यास भी एक सूकुमार कला है। जैन साधुओ ने इसे बहुत ही विकसित किया । सौन्दर्य और सूक्ष्मता दोनो दृष्टियो से इसे उन्नति के शिखर तक ले गए। पन्द्रह सौ वर्ष पहले लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ और वह अब तक विकास पाता रहा है। लेखन कला में यतियो का कौशल विशेष रूप मे प्रस्फुटित हुआ है। तेरापथ के साधुओ ने भी इस कला में चमत्कार प्रदर्शित किया है। सूक्ष्म लिपि मैं ये अग्नणी है। कई मुनियो ने ११ इच लम्बे व ५ इच चौड़े पन्ने मे लगभग ८० हजार अक्षर लिखे है। ऐसे पत्र आज तक अपूर्व माने जाते रहे है। मूर्ति-कला और स्थापत्य-कला __कालक्रम से जैन-परम्परा में प्रतिमा-पूजन का कार्य प्रारम्भ हुआ । सिद्धान्त की दृष्टि से इसमें दो धाराएं है । कुछ जैन सम्प्रदाय मूर्ति-पूजा करते है और कुछ नही करते । किन्तु कला की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण विषय है। वर्तमान में सबसे प्रचीन जैन-मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है । यह मूर्ति मौर्य-काल की मानी जाती है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यो की त्यो बनी है । लाहौर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि के म्यूजियमो में भी अनेक जैन-मूर्तियां मौजूद है । इनमे से कुछ गुप्त कालीन है । श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४ वें तीर्थकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १३३ समय में तैयार की गई थी । वास्तव मे मथुरा में जैन मूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है । श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुगकालीन कला मुख्यत जैन-सम्प्रदाय की है५७ । खण्डगिरि और उदयगिरि मे ई० पू० १८८-३० तक की शुग-कालीन मूर्ति - गिल के अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते है । वहाँ पर इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाए है, जिनमे मूर्ति - शिल्प भी है। दक्षिण भारत के अलगामले नामक स्थान मे खुदाई से जो जैन-मूर्तिया उपलब्ध हुई है, उनका समय ई० पू० ३००-२०० के लगभग बताया जाता है । उन मूर्तियो की सौम्याकृति द्राविडकला में अनुपम मानी जाती है | श्रवण वेलगोला की प्रसिद्ध जैन- मूर्ति तो ससार की अद्भुत वस्तुओं में से है । वह अपने अनुपम सौन्दर्य और अद्भुत शान्ति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । यह विश्व को जैन मूर्ति कला की अनुपम देन है । मौर्य और शुंग काल के पश्चात् भारतीय मूर्ति - कला की मुख्य तीन धाराएँ है : (१) गांवार - कला - जो उत्तर-पश्चिम मे पनपी । (२) मथुरा- कला - जो मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रो में विकसित हुई । (३) अमरावती की कला - जो कृष्णा नदी के तट पर पल्लवित हुई । जैन मूर्ति कला का विकास मथुरा कला से हुआ । जैन स्थापत्य कला के सर्वाधिक प्राचीन अवशेष उदयगिरि, खण्ड गिरि एव जूनागढ की गुफाओ मे मिलते है | उत्तरवर्ती स्थापत्य की दृष्टि से चित्तोड का कीर्ति स्तम्भ, आवू के मन्दिर एव राणकपुर के जैन मन्दिरो के स्तम्भ भारतीय शैली के रक्षक रहे है । Page #144 --------------------------------------------------------------------------  Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच संघ व्यवस्था और चर्या भगवान् महावीर के समकालीन धर्म-सम्प्रदाय संघ व्यवस्था और संस्कृति का उन्नयन समाचारो आचार्य के छह कर्त्तव्य दिनचर्या श्रावक सघ श्रावक के छह गुण शिष्टाचार जैनपर्व १३५ – १४८ ! Page #146 --------------------------------------------------------------------------  Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के समकालीन धर्म-सम्प्रदाय भगवान महावीर का युग धार्मिक मतवादी और कर्मकाण्डो से सकुल था। वौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय तिरेसठ श्रमण-सम्प्रदाय विद्यमान थे। जैन-साहित्य में तीन सौ तिरेसठ धर्म-मतवादो का उल्लेख मिलता है। यह भेदोपभेद की विस्तृत चर्चा है । सक्षेप मे सारे सम्प्रदाय चार वर्णो मे समाते थे। भगवान् ने उन्हें चार समवसरण कहा है। वे है - (१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद (३) विनयवाद ( ४ ) अज्ञानवाद। बौद्ध साहित्य भी सक्षिप्त इष्टि से छह श्रमण-सम्प्रदायो का उल्लेख करता है । उनके मतवाद ये है : (१) अक्रियावाद (२) नियतिवाद ( ३ ) उच्छेदवाद (४) अन्योन्यवाद (५) चातुर्याम सवरवाद (६) विक्षेपवाद । और इनके आचार्य क्रमश ये है : (१) पूरण कश्यप ( २ ) मक्खलिगोशाल ( ३ ) अजित केश कवलि (४) पकुघकात्यायन (५) निर्गन्य ज्ञात पुत्र (६) सजयवेलट्ठिपुत्र । अक्रियावाद और उच्छेदवाद-ये दोनो लगभग समान है। इन्हें अनात्मवादी या नास्तिक कहा जा सकता है। दगाश्रुत स्कन्ध (छठी दशा ) में अक्रियावाद का वर्णन इस प्रकार है - नास्तिकवादी, नास्तिक प्रज्ञ नास्तिक दृष्टि, नो सम्यग्वादी, नो नित्यवादी-उच्छेदवादी, नो परलोकवादी-ये अक्रियावादी हैं। इनके अनुसार इहलोक नही है, परलोक नही है, माता नहीं है, पिता नही है, अरिहन्त नही है, चक्रवर्ती नहीं है, बलदेव नही है, वासुदेव नही है, नरक नही है, नैरयिक नही है, सुकृत और दुष्कृत के फल में अन्तर नहीं है, सुचीर्ण कर्म का अच्छा फल नहीं होता, दुश्चीर्ण कर्म का बुरा फल नहीं होता, कल्याण और पाप अफल है, पुनर्जन्म नही है, मोश नही है । सूत्र कृतांग ने अक्रियावाद के कई मतवादो का वर्णन है। वहाँ अनात्मवाद, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] जैन परम्परा का इतिहास आत्मा के अकर्तृत्वाद, मायावाद, बन्ध्यवाद या नियतवाद - - इन सबको ६ अक्रियावाद कहा है नियतिवाद की चर्चा भगवती ( १५ ) और उपासक दशा मिलती है । । ७ ) में अन्योन्यवाद सब पदार्थो को बन्ध्य और नियत मानता है, इसलिए उसे अक्रियावाद कहते हैं । इनका वर्णन इन शब्दो मे है -सूर्य न उदित होता है और न अस्त होता है, ७ चन्द्रमा न बढता है न घटता है, जल प्रवाहित नही होता है, वायु नही बहती है—यह समूचा लोक बन्ध्य और नियत है । विक्षेपवाद का समावेश अज्ञानवाद मे होता है । सूत्र कृतांग के अनुसार - "अज्ञानवादी तर्क करने में कुशल होने पर भी असबद्धभाषी है । क्योकि वे स्वयं सन्देह से परे नही हो सके है । यह सजयवेलट्ठपुत्र के अभिमत की ओर सकेत है । १० ११ भगवान् महावीर क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद की समीक्षा करते हुए दीर्घकाल तक सयम मे उपस्थित रहे ' ' । भगवान् ने क्रियावाद का मार्ग चुना । उनका आचार आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म और मुक्ति के सिद्धान्त पर स्थिर हुआ । उनकी संस्कृति को हम इसी कसौटी पर परख सकते है । कुछेक विद्वानो की चिन्तनधारा यह है कि यज्ञ आदि कर्मकाण्डों के विरोध मे जैन धर्म का उद्भव हुआ । यह श्रमपूर्ण है । अहिंसा और संयम जैन - सस्कृति का प्रधान सूत्र है । उसकी परम्परा भगवान् महावीर से बहुत ही पुरानी है । भगवान् ने अपने समय की बुराईयो व अविवेकपूर्ण धार्मिक क्रियाकाण्डो पर हिंसा प्रधान यज्ञ, जातिवाद, भाषावाद, दास प्रथा आदि पर तीव्र प्रहार किया किन्तु यह उनकी अहिंसा का समग्र रूप नही है । यह केवल उसकी सामयिक व्याख्या है । उन्होने अहिंसा की जो शाश्वत व्याख्या दी उसका आधार संयम की पूर्णता है । उसका सम्बन्ध उन्होने उसी से जोड़ा है जो पार्श्वनाथ आदि सभी तीर्थकरो से प्रचारित की गई १२ । भारतीय संस्कृति वैदिक और प्राग्वैदिक दोनो धाराओ का मिश्रत रूप है | श्रमण संस्कृति प्राग् वैदिक है । भगवान् महावीर उसके उन्नायक थे । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१३६ उन्होने प्राचीन परम्पराओ को आगे बढ़ाया। अपने सम सामयिक विचारो को परीक्षा की और उनके आलोक में अपने अभिमत जनता को समझाए। उनके विचारों का आलोचना पूर्वक विवेचन सूत्र कृतांग में मिलता है। वहाँ पच महाभूतवाद' ३, एकात्मवाद १४, तज्जीवतच्छरीरवाद'५, अकारकवाद'६, पष्ठात्मवाद१७, नियतिवाद१८, सृष्टिवाद ९, कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद, प्रकृतिवाद आदि अनेक विचारो की चर्चा और उन पर भगवान् का दृष्टिकोण मिलता है। संघ-व्यवस्था और संस्कृति का उन्नयन ___ संस्कृति की सावना अकेले में हो सकती है पर उसका विकास अकेले मे नही होता, उसका प्रयोजन ही नही होता, वह समुदाय में होता है । समुदाय मान्यता के वल पर बनते है। असमानताओ के उपरान्त भी कोई एक समानता आती है और लोग एक भावना मे जुड़ जाते है। __ जैन मनीपियो का चिन्तन साधना के पक्ष मे जितना वैयक्तिक है, उतना ही साधना-सस्थान के पक्ष मे सामुदायिक है। जैन तीर्थकरो ने धर्म को एक ओर वैयक्तिक कहा, दूसरी ओर तीर्थ का प्रवर्तन किया-श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविकाओं के सघ की स्थापना की। जैन साहित्य में चर्या या सामाचारी के लिए 'विनय' शब्द का प्रयोग होता है। उत्तराव्ययन के पहले और दशवकालिक के नवे अध्ययन मे विनय का सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया गया है। विनय एक तपस्या है। मन, वाणी और शरीर को सयत करना विनय है, वह सस्कृति है। इसका वाह्य रूप लोकोपचार विनय है। इसे सभ्यता का उन्नयन कहा जा सकता है। इसके सात रूप है - १- अभ्यासवर्तिता-अपने वडो के समीप रहने का मनोभाव । २-परछन्दानुवर्तिता-अपने वडो की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना । ३-कार्य-हेतु-गुरु के द्वारा दिये हुए ज्ञान आदि कार्य के लिए उनका सम्मान करना । ४-कृतप्रतिकर्तृता-कृतज्ञ होना, उपकार के प्रति कुछ करने का मनोभाव रखना। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] जैन परम्परा का इतिहास ५-आर्त्त-गवेषणता-आर्त व्यक्तियों की गवेषणा करना। ६-देश-कालज्ञता-देश और काल को समझ कर कार्य करना। ७-सर्वार्थ-प्रतिलोमता-सब अर्थों में प्रयोजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करना । सामाचारी श्रमण-सघ के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान है२१ । १-आवश्यकी-उपाश्रय से बाहर जाते समय आवश्यकी-आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ-कहे। २-नषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर आए तब नैषेधिकी-मैं निवृत्त हो चुका हूँ-कहे। ३-आपृच्छा-अपना कार्य करने की अनुमति लेना। ४–प्रतिपृच्छा-दूसरो का कार्य करने की अनुमति लेना। ५-छन्दना-भिक्षा मे लाए आहार के लिए सार्मिक साधुओ को आमंत्रित करना। ६-इच्छाकार-कार्य करने की इच्छा जताना, जैसे-आप चाहे तो मैं आपका कार्य करूं? ७-मिथ्याकार - भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना । ८-तथाकार-आचार्य के वचनो को स्वीकार करना । &-अभ्युत्थान-आचार्य आदि गुरुजनो के आने पर खड़ा होना, सम्मान करना। १०-उपसम्पदा-ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए गुरु के समीप विनीत भाव से रहना अथवा दूसरे साधुगणो में जाना । जैसे शिष्य का आचार्य के प्रति कर्तव्य होता है, वैसे ही आचार्य का भी शिष्य के प्रति कर्तव्य होता है। आचार्य शिष्य को चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति सिखा कर उऋग होता है :-- १-आचार-विनय २-श्रुत-विनय ३-विक्षेपणा-विनय और ४-दोषनिर्धात-विनय२२ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१४१ आचार-विनय के चार प्रकार है :(१) सयम सामाचारी-सयम के आचरण की विधि । (२) तप सामाचारी-तपश्चरण की विधि । ( ३ ) गण सामाचारी - गण की व्यवस्था की विधि । (४) एकाकी विहार सामाचारी-एकल विहार की विधि । श्रुत-विनय के चार प्रकार है - (१) सूत्र पढाना। (२) अर्थ पढाना । ( ३ ) हितकर विषय पढाना । (४) नि शेप पढ़ाना-विस्तार पूर्वक पढाना । विक्षेपणा-विनय के चार प्रकार है :(१) जिसने धर्म नही देखा, उसे धर्म-मार्ग दिखा कर सम्यक्त्वी बनाना । (२) जिसने धर्म देखा है, उसे साधर्मिक वनाना । (३ ) धर्म से गिरे हुए को धर्म मे स्थिर करना । (४) धर्म-स्थित व्यक्ति के हित- सुख और मोक्ष के लिए तत्पर रहना। दोप-निर्घात-विनय के चार प्रकार है :(१) कुपित के क्रोध को उपशान्त करना । (२) दुष्ट के दोप को दूर करना । ( 3 ) आकांक्षा का छेदन करना । (४) आत्मा को श्रेष्ठ मार्ग में लगाना । आचार्य के छह कर्तव्य संघ की व्यवस्था के लिए आचार्य को निम्नलिखित छह वातो का ध्यान रखना चाहिए :१- सूत्रार्थ स्थिरीकरण - सूत्र के विवादग्रस्त अर्य का निश्चय करना अथवा सूत्र और अर्थ मे चतुर्विध-सघ को स्थिर करना। २-विनय-सबके साथ नम्रता से व्यवहार करना । ३- गुरु-पूजा-अपने बड़े अर्थात् स्थविर साधुओ की भक्ति करना । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] जैन परम्परा का इतिहास ४ — शैक्ष बहुमान - शिक्षा ग्रहण करने वाले और नव दीक्षित साधुओं का सत्कार करना । ५- दानपति श्रद्धा वृद्धि--दान देने मे दाता की श्रद्धा बढाना | ६ - बुद्धिबलवद्धन -- अपने शिष्यो की बुद्धि तथा आध्यात्मिक शक्ति को बढाना 1 शिष्य के लिए चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति आवश्यक होती है : १- उपकरण- उत्पादनता २ – सहायता ३ - वर्ण-सज्वलनता ४-भारप्रत्यव रोहणता । उपकरण- उत्पादन के चार प्रकार है : ( १ ) अनुत्पन्न उपकरणो का उत्पादन | ( २ ) पुराने उपकरणों का सरक्षण और संघ गोपन करना । ( ३ ) उपकरण कम हो जाए तो उनका पुनरुद्धार करना । ( ४ ) यथाविधि सविभाग करना । सहायता के चार प्रकार है : (१) अनुकूल बचन बोलना । ( २ ) काया द्वारा अनुकूल सेवा करना । ३ ) जैसे सुख मिले वैसे सेवा करना । ( ४ ) अकुटिल व्यवहार करना । वर्ण - सज्वलनता के चार प्रकार है ·- ( १ ) यथार्थ गुणो का वर्णन करना । ( २ ) अवर्णवादी को निरुत्तर करना । ( ३ ) यथार्थ गुण वर्णन करने वालो को बढावा देना । ( ४ ) अपने से वृद्धो की सेवा करना । भारप्रत्यवरोहणता के चार प्रकार है ( १ ) निराधार या परित्यक्त साधुओ को आश्रय देना । ( २ ) नव दीक्षित साधु को आचार - गोचर को विधि सिखाना | ( ३ ) साधर्मिक के रुग्ण हो जाने पर उसकी यथाशक्ति सेवा करना | ( ४ ) साधर्मिको मे परस्पर कलह उत्पन्न होने पर किसी का पक्ष लिए । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१४३ विना मध्यस्थ भाव से उसके उपशमन, क्षमायाचना आदि का प्रयत्न करना, ये मेरे साधर्मिक किस प्रकार कलह-मुक्त होकर समाधि सम्पन्न हो, ऐसा चिन्तन करते रहना२४) दिनचर्या अपर रात्रि में उठ कर आत्मालोचन व धर्म जागरिका करना-यह चर्या का पहला अग है"। स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना२६ । आवश्यक-अवश्य करणीय कर्म छह है : १-सामायिक-समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन । २-चतुर्विशस्तव -चौबीस तीथंकरो की स्तुति । ३-वन्दना-नाचार्य को दगावत-वन्दना । ४-प्रतिक्रमण-कृत दोपो की आलोचना । ५-कार्योत्सर्ग-काया का स्थिरीकरण-स्थिर-चिन्तन । ६-प्रत्याख्यान-त्याग करना । इस आवश्यक कार्य से निवृत्त होकर सूयर्दोय होते-होते मुनि भाण्डउपकरणो का प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ जोड कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूं? आप मुझे आना दें-मैं किसी की सेवा में लगें या स्वाध्याय मे? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अम्लान-भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे२७ । दिनचर्या के प्रमुख अग है-स्वाध्याय और ध्यान । कहा है : स्वाध्यायाद् ध्यानमव्यास्तां, ध्यानात् स्वाव्याय मामनेत् । घ्यान - स्वाध्याय - सपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते ॥ स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान करे और ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय । इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय के क्रम से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है । आगमिक काल-विभाग इस प्रकार रहा है-दिन के पहले पहर मे स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान, तीसरे मे भिक्षा-चर्या और चौथे मे फिर स्वाध्याय रात के पहले पहर मे स्वाध्याय करे, दूसरे मे ध्यान, तीसरे मे नीद ले और चौथे मे फिर स्वाध्याय करे। पूर्व रात में भी आवश्यक कर्म करे३० । पहले पहर मे प्रतिलेखन ३१ करे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] जैन परम्परा का इतिहास वैसे चौथे पहर भी करे३२, यह मुनि की जागरुकतापूर्ण जीवन-चर्या है । श्रावक-संघ धर्म की आराधना मे जैसे साधु-साध्विॉ संघ के अंग है, वैसे श्रावकश्राविकाएं भी है। ये चारो मिलकर ही चतुर्विध-संघ को पूर्ण बनाते हैं। भगवान् ने श्रावक-श्राविकाओ को साधु-साध्वियों के माता-पिता तुल्य कहा है। श्रावक की धार्मिक चर्या यह है :१-सामायिक के अगों का अनुपालन । २-दोनों पक्षों में पौषधोपवास३४ । आवश्यक कर्म जैसे साधु-संघ के लिए है, वैसे ही श्रावक-सघ के लिए भी हैं। श्रावक के छह गुण देश विरति चारित्र का पालन करने वाला श्रद्धा-सम्पन्न-व्यक्ति श्रावक कहलाता है । इसके छह गुण है : १-व्रतो का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान । व्रतों का अनुष्ठान चार प्रकार से होता है(क) विनय और बहुमान पूर्वक व्रतो को सुनना। (ख) व्रतो के भेद और अतिचारो को सांगोपांग जानना । (ग) गुरु के समीप कुछ काल के लिए अथवा सदा के लिए व्रतों को स्वीकार करना। (घ) ग्रहण किये हुए व्रतों को सम्यग् प्रकार पालना। २-शील ( आचार )- इसके छह प्रकार है : (क) जहाँ बहुत से शीलवान् बहुश्रुत साधर्मिक लोग एकत्र हो, उस स्थान को आयतन कहते है, वहाँ आना-जाना रखना। (ख) बिना कार्य दूसरे के घर न जाना। (ग) चमकीला-भड़कीला वेष न रखते हुए सादे वस्त्र पहनना। (घ) विकार उत्पन्न करने वाले वचन न कहना । (ड) बाल-क्रीड़ा अर्थात् जुआ आदि कुव्यसनो का त्याग करना। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १४५ (च) मयुर नीति से अर्थात् शान्तिमय मीठे वचनो से कार्य चलाना, कठोर वचन न बोलना। (३)-गुणवत्ता-इसके पाँच प्रकार है : - (१) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म-कथा रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना। (२) तप, नियम, वन्दनादि अनुष्ठानो मे तत्पर रहना । (३) विनयवान् होना। (४) दुराग्रह नहीं करना। (५) जिनवाणी में रुचि रखना। ४- ऋजु व्यवहार करना-निष्कपट होकर सरल भाव से व्यवहार करना । ५-गुरु-सुथूपा। ६-प्रवचन अर्थात् गाम्यो के ज्ञान मे प्रवीणता 30 | शिष्टाचार शिष्टाचार के प्रति जैन आचार्य बड़ी सूक्ष्मता से ध्यान देते है। वे आशातना को सर्वथा परिहार्य मानते है। किसी के प्रति अनुचित व्यवहार करना हिंमा है। आगातना हिंसा है। अभिमान भी हिंसा है। नम्रता का अर्य है कपाय-विजय । अभ्युत्यान, अभिवादन, प्रियनिमन्त्रण, अभिमुखगमन, आसन-प्रदान, पहुंचाने के लिए जाना, प्राजलीकरण आदि-आदि शिष्टाचार के अग है। इनका विशद वर्णन उत्तराध्ययन के पहले और दशवकालिक के नवें अव्ययन मे है। ___श्रावक व्यवहार-दृष्टि से दूसरे श्रावको को भी वन्दना करते थे३६ । धर्मदृष्टि से उनके लिए वन्दनीय मुनि होते है । वन्दना की विधि यह है : तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिण ( करेमि ) वदामि नमसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाण मंगल देवय चेइय पज्जुवासामि मत्यएण वदामि । जैन आचार्य आत्मा को तीन स्थितियो में विभक्त करते है - (१) वहिरात्मा- जिसे देह और आत्मा का भेद-ज्ञान न हो, मिथ्या. दृष्टि । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] जैन परम्परा का इतिहास (२) अन्तरात्मा-जो देह और आत्मा को पृथक् जानता हो, सम्यग-दृष्टि । (३) परमात्मा-जो चारित्र-सम्पन्न हो । नमस्कार महामन्त्र मे पॉच परमात्माओ को नमस्कार किया जाता है । यह आध्यात्मिक और त्याग-प्रधान संस्कृति का एक संक्षिप्त-सा रूप है। इसका सामाजिक जीवन पर भी प्रतिबिम्ब पड़ा है। जैनपर्व १-अक्षय तृनीया २-पर्युषण व दसलक्षण ३-महावीर जयन्ती ४-दीपावली पर्व अतीत की घटनाओ के प्रतीक होते है । जैनो के मुख्य पर्व इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया, पर्युषण व दस लक्षण, महावीर जयन्ती और दीपावली है। अक्षय तृतीया का सम्बन्ध आद्य तीर्थकर भगवान् ऋषभनाथ से है। उन्होने वैशाख सुदी तृतीया के दिन बारह महीनो की तपस्या का इक्षु-रस से पारणा किया। इसलिए वह इक्षु तृतीया या अक्षय तृतीया कहलाता है। पर्युषण पर्व आराधना का पर्व है । भाद्र बदी १२ या १३ से भाद्र सुदी ४ या ५ तक यह पर्व मनाया जाता है। इसमें तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान आदि आत्म-शोधक प्रवृत्तियो की आराधना की जाती है। इसका अन्तिम दिन सम्वत्सरी कहलाता है। वर्ष भर की भूलो के लिए क्षमा लेना और क्षमा देना इसकी स्वयभूत विशेषता है । यह पर्व मैत्री और उज्ज्वलता का संदेशवाहक है । दिगम्बर-परम्परा में भाद्र शुक्ला पचमी से चतुर्दशी तक दस लक्षण पर्व मनाया जाता है। इसमें प्रतिदिन क्षमा आदि दस धर्मो मे एक-एक धर्म की आराधना की जाती है। इसलिए इसे दस लक्षण पर्व कहा जाता है। महावीर जयन्ती चैत्र शुक्ला १३ को भगवान महावीर के जन्म दिवस के उपलक्ष में मनाई जाती है। दीपावली का सबंध भगवान महावीर के निर्वाण से है। कार्तिकी अमा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१४७ वस्या को भगवान का निर्वाण हुआ था। उस समय देवो ने और राजाओ ने प्रकाश किया था। उसी का अनुसरण दीप जला कर किया जाता है। दीपावली की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे श्रीराम तथा भगवान् श्रीकृष्ण के जो प्रसग है वे केवल जन-श्रुति पर आधारित है, किन्तु इस त्योहार का जो सम्बन्ध जैनियो से है, वह इतिहास-सम्मत है। प्राचीनतम जैन ग्रन्यो मे यह बात स्पष्ट शब्दों में कही गई है कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि तया अमावस्या के दिन प्रभात के वीच सन्धि-वेला मे भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था तथा इस अवसर पर देवो तथा इन्द्रो ने दीपमालिका सजाई थी। आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण मे जिसका रचना-काल शक संवत् ५०७ माना गया है। स्पष्ट शब्दो मे स्वीकार किया है कि दीपावली का महोत्सव भगवान् महावीर के निर्वाण की स्मृति में मनाया जाता है । दीपावली की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही प्राचीनतम प्रमाण है३७ । Page #158 --------------------------------------------------------------------------  Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #160 --------------------------------------------------------------------------  Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : एक : १- - आव० नि० २०३ २-- आव० नि० २११ ३- आव० नि० २११ ४- असो माता-पिता भ्राता, भार्या पुत्रो गृहं घनम् । ममेत्यादि च ममताऽभूजनानां तदादिका ॥ त्रिषष्टि २।११२६ ५- त्रिषष्टि० ११२१८६३-६०२ ६- त्रिषष्टि० ११२६२५- ६३२ ७- त्रिषष्टि० ११२-६५६ ८- स्था० ७।३।५५७ ह - स्था० ७१३५५७ १० - त्रिषष्टि० ११२१२७८-६ ११ -- त्रिषष्टि० १२६७४-७६ १२ - छान्दो० उप० ३।१७१६ १३ -- ज्ञाता-५ १४- छान्दो० उप० ३।१७१६ १५ – आचा० १।१।१ १६- उत्त० २२/६,८ १७- उत्त० २२ २५, २७ १८- उत्त० २२/३१ १६- अन्त, ०, ३१८ २०- अन्त० ५।१-८ २१- अन्त० १११-१०,२११-८, ४११-१० २२ - ज्ञाता० ५, निर० पत्र ५३ २३ - छान्दो० उप० ३।१७ ६ २४ - ज्ञाता० १६, स्था० ६२६ पत्र ४१०, सम० १० पत्र १७, सम० १५८ पत्र १५२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] : at: १ जैन परम्परा का इतिहास -भा० सं० अ० -भा० सं० अ० पृ० ३५ ३- श्री० का० लो० सर्ग ३६८८७-८८ ४— पार्श्व के उपदेश को 'चातुर्याम - सवर वाद' कहते थे । भा० सं० ३८, ४७ ५ - जैन मुनि श्री दर्शन विजयजी ( त्रिपुटी ) - जैन० भा० अक २६ वर्ष ४ - आव० चू० ( पूर्व भाग ) पत्र २४५ ७ - कल्प० १०६ ८- आचा० २२४६६६ ६- आचा० २१२४११००४ १० – आचा० २।२४।१००२ ११ - कल्प ० १०६ १२ – आचा० २।२४।६६२ १३ – कल्प० ११० १४ -- आचा० २।२४११००५ १५--आचा० २।२४।१००५ १६- कल्प० १०६ १७ – आचा० २।२४।१००५ १८ - महा० क० पृ० ११३ १६- आचा० ११६ ११४७२ २० - सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मत्ति कट्टु - आचा० २१२४ २१ सू० ११६ २२. - लाढ - राढ - पश्चिमी दंगाल के अन्तर्गत हुगली, हावड़ा, बांकुडा, बर्दवान और पूर्वीय मिदनापुर के जिले । लाढ-देश वज्र-भूमि, ( वीरभूम ) शुभ्र - भूमि ( सिंघभूम ) नामक प्रदेशो में विभक्त था । २३- आचा० २।२४।१०२४ २४ - स्था० १० १३ । ७७७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १५३ २५ -- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलनाता, मेतार्य, प्रभास । २६- आचा० २।२४ २७ - आचा० ११५ १११४४ २५- भग० १११ २६- आचा० ११५।५।१६४ ३० --- अग्निभूति - कर्म है या नही ? वायुभूति - शरीर और जीव एक है या भिन्न ? व्यक्त - पृथ्वी आदि भूत है या नही ? मुधर्मा - यहाँ जो जैसा है वह परलोक मे भी वैसा होता है या नही ? मडित-पुत्र-वन्ध मोक्ष है या नही ? मौर्य - पुत्र – देव है या नही ? अकम्पित - नरक है या नही ? अचल भ्राता -- पुण्य ही मात्रा भेद से सुख-दुख का कारण बनता है या पाप उससे पृथक है ? तार्थ - आत्मा होने पर भी परलोक है या नही ? प्रभास - मोक्ष है या नहीं ? ( वि० भा० १५४६ - २०२४ ) ३१ - श्र० वर्ष १ अंक ९ पृ० ३७-३६ ३२- भग० १२११ ३३ - जिनकी वाचना समान हो उनका समूह गण कहलाता है। आठवें - नवें तथा दसवें ग्यारहवें गणधरो की वाचना समान थी, इसलिए उनके गण दो भी माने जाते है | सम० ३४- स्था० वृ० ३।३।१७७ ३५ व्यव० ३६ - नं० ४६ ३७ - सम० ११४ ३५ सम० ११५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] जैन परम्परा का इतिहास ३६ - दृष्टिवाद के एक बहुत बड़े भाग की संज्ञा "चतुर्दश-पूर्व है। उसके ज्ञाता को 'श्रुत-केवली कहते है। ४०-देखो जैन० द० इ० पृ० १८०.१६० ४१-समणस्सणं भगवओ महावीरस्स तिथंसि सत्त पवतण निण्हगा पन्नता तंजहा बहुरता, जीवपएसिआ, अवत्तिया सामुच्छेइत्ता, दो किरिया, तेरासिया, अबद्धिया एएसि णं सत्तण्ह पवयणनिण्हगाण सत्त धम्मायरिया हुत्या-तजहा-जमालि तीसगुत्ते, आसाढे, आसमिते, गगे, छलुए गोट्ठामाहिले, -एत्तेसि णं सत्तण्ह पवयश निण्हगाणं सत्तपत्ति नगरा हुत्या तंजहा-सावत्थी, उसमपुरं सेतविता, मिहिला, मुल्लगातीरं, पुरिमतरंजि, दसपुर निण्हग उत्पत्ति नगराई-स्था० ७५८७ ४२--वि० भा० २५५०-२६०२ ४३-कल्प० २८ ४४-कल्प० १६३ ४५-जं पि वत्थं व पायं वा, कम्बल पायपुञ्छणं । तं पि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरति य ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा ॥ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वृत्त महेसिणा ॥ सम्वत्थुवहिणा बुद्धा, सरक्षण परिग्गहे । अव अप्पणो वि देहम्मि नायरति ममाइयं ॥ -दश वै० ६।२०,२१,२२ ४६-त० सू० ७१२ ४७-गण-परमोहि-पुलाए, आहारग खग-उवसमे कप्पे । सजम-तिय केवलि-सिज्मणाय जबुम्मि बुच्छिन्ना ॥ -वि० भा० २५६३ ४९-षट् प्रा० पृ० ६७ ४६-जो वि दुवत्थ तिषत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते हीलंति परं, सब्वे पि य ते जिणाशाए, ॥१॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परा का इतिहास [१५५ जे खलु विसरिसकप्पा, संघयण धिइयादि कारण पप्प । णऽ वमन्नइ ण य हीणं, अप्पाण मन्नई तेहिं ॥ २॥ सम्वे वि जिणाणाए, जहाविहिं कम्म खवणट्ठाए । विहरति उजया खलु, सम्म अभिजाणइ एवं ॥ ३ ॥ -आचा. वृ० १६३ ५०-६६८० ५१-० सु० ५२-देवढि खमासमण जा, परंपर भाव ओ वियाणेमि । सिठिलायारे ठविया, दम्वेण परपरा बहुहा । ~ ० अ० ५३---सू० २।२,५४ ५४ जीवाभिगम ३।२।१०-४ तीन : १-जहजीवा वज्झति, मुच्चति जह य सकिलिस्सति । जह दुक्खाण अत करति कइ अपडिबद्धा-औप० धर्म० ४ २-न० ४६ ३-सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वाऽ दीनि चतुर्दश । -स्था० १० १०११ ४-जइविय भूयावाए सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो। निजहणा यहा विहु दुम्मेहे पप्प इत्यी य -आव०नि० पृ० ४८, वि० भा० ५५१ ५- न० ५७, सम० १४ वां तथा १४७ वां ६-न० ७-"भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइखई"-सम० पृ० ६० "तए ण समणे भगवं महावीरे कूणि अस्य रणो भिभिंसारपुत्तस्स...... अद्धमागहाए भासाए भासइ सावि य ण अद्धमागहा भासा तेर्सि सन्चेसिं आरियमणारियाण अप्पणे सभासाए परिणामेण परिणमइ..... -औप० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] जैन परम्परा का इतिहास ८-"देवा ण भंते ! कयराए भासाए भासंति ? कयरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? गोयमा ! देवाण अद्धमागद्वाए भासाए भासंति । सावि य ण अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति" । -भग० ५।४ ६-"से कि तं भासारिया ? भासारिया जे ण अद्धमागहाए भासाए -प्रज्ञा० ११६२ १० भारती भासंति" वैदिक प्राथमिक प्राकृत ब्राह्मण ग्रन्थो की भाषा द्वतीयिक प्राकृत (प्रथम भूमिक) ऐतिहासिक काव्यो की भाषा तीयिक प्राकृत (द्वितीय भूमिका) (१) पाली शौरसेनी पाणिनि की संस्कृत (२) अर्ध मागधी (पतजलि पर्यन्त) (३) पूर्वीय मागधी (४) पश्चिमीय प्राकृत (अशोक की धलिपि द्वतीयिक प्राकृत का विभागीकरण नीचे दिया गया है । द्वतीयिक प्राकृत-प्रथम भूमिका द्वतीयिक प्राकृत-द्वितीय भूमिका पाली मागधी भाषा अर्धमागधी (शुद्ध) अशोक की लेख भाषा (अशोक की लेख भाषा) (पश्चिम भाग की) (पूर्व देश की) गौर्जर अप्रत्र श (Standard ) शौरसेनी व्याकरणस्थ मागधी अर्धमागधी ( सूत्रो की ) महाराष्ट्री Standard G7 HETZTOTT अपभ्रंश Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १५७ ११ - " मगदद्ध विसयभासाणिबद्ध अद्धमागह, अट्ठारसदेसी भासा णिमय वा अद्धमागह" ( नि० चू० ) १२- हेम० ८१११३ १३ – सक्कता पागता चेव दुट्टा भणितीओ आहिया । सरमडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिता ॥" ( स्था० ७१३६४ ) १४ – गणहरथेरकय वा आएसा मुक्कवागरणतो वा । धुवचल विसेसतो वा अगाणगेसु नाणत्त | - आव० नि० ४८, वि० भा० ५५० १५ - दशवे० भूमिका १६ -- दशवे० भूमिका १७- पा० स० म उपोद्घात पृ० ३०-३१ १८ परि० पर्व ८।११३,६५५-५८ १६-भग० २०१८ A २० - चतुष्वैके कसूत्रार्था —ख्याने स्यात् कोपि नक्षम । ततोऽनुयोगाँश्चतुरः पार्थक्येन व्यधात् प्रभु । - आव० कथा १७४ २१ - शव० नि० ३ टी० २२ - प्रथमानुयोगमर्याख्यान चरित पुराणमविपुण्यम् । वोविसमाधिनिधान बोवति बोध समीचीनः ॥ ४३ ॥ लोकालोकविभक्तेर्युगपारवृत्तेश्चतुर्गतीनांञ्च । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगञ्च ॥ ४४ ॥ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमय सम्यग्ज्ञान विजानाति ॥ ४५ ॥ जीवाजीवसुतत्त्वे : पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥ ४६ ॥ - रत्न० श्रा० अधिकार १ पृ० ७१ ७२, ७३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन परम्परा का इतिहास २३-पहला पद २४--१३२ २५-सम०, रा०प्र०, प्रश्न० ५ आस्रव २६-जम्वू० वृ० २ वृक्ष २७–लेख-सामग्नी के लिए देखो भा०प्रा०लि०मा०पृ० १४२-१५६,पुर ० (पु० १ पृ० ४१६-४३३ लिंबड़ी भंडार के सूचिपत्र के लेख ) २८-१ पद २६-१ पद ३०-४-२ ३१-पत्र २५ ३२-१२ उ० ३३-ईसवी पूर्व चतुर्थ शतक ३४-भा० प्रा० लि० मा० ५० ३५-भा० प्रा० लि. मा०प० २ ३६-भा० प्रा० लि. मा० १०२ ३७-कल्प १ अधि० ६।१४८ ३५-वायणतरे पुण, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति ३६- (क) सघ स अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिन्न सकामण पलिमथो, पमाए परिकम्मग लिहणा, १४७ वृ० नि० उ० ७३ (ख) पोत्यएमु धेप्पतएमु असजमो भवइ~दशवै० चू० पृ० २१ ननु पूर्व पुस्तकनिरपेक्षव सिद्धान्तादिवाचना ऽभूत्, साम्प्रत पुस्तक-सग्नहः क्रियते साधुभिस्तत् कथ सपतिमङ्गति ? उच्यतेपुस्तक-ग्रहण तु कारणिकं नत्वौत्सर्गिकम् । अन्मथा तु पुस्तकग्रहणे भूयांसो दोषाः प्रतिपादिताः सन्ति -विशे० श० ३६ ४० --यावतो वारान् तत्पूस्तक बध्नाति मुँचति वा अक्षराणि वा लिखति तावन्ति चतुर्लघूनि आज्ञादयश्च दोषा । -वृ० नि० ३ उ० ४१-कोई मूढ मिथ्याती जीव इम कहै रे, साधु नै लिखणो कल्प नाही रे । पाना पिण साधु नै राखणां रे, इम कहै घणाँ लोकाँ रै माँहि रे ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१५६ चवदे उपकरण सु अधिक नही राखणा रे, पाना राख्या तो उपगरण अधिका थाय रे। उपगरण अधिका राखे ते साध निश्चय नही रे, एहवी ऊधी परूपी लोकां माय रे ॥ - जि. उप० ३३ ४२-झाणकोठीवगए, सज्झाय सज्माण रयस्स,-भग०, दशव० ४३--जि० उप० ४४ -१० संवर-द्वार ४५- नीम उपगरण साधु रे सूत्र थी कह्या, आर्या रे उपगरण अधिक च्यार । इग्यारे उगरण स्थविर ने कहा, मूत्र मृ जोय कियो छै न्यार रे ॥ जि. उप० २१ ४६-जि० उप० २२ ४७-जि० उप० ३५-३८, दगा० ४, प्रश्न द्वार ७, निशीथ उ०१०, नं० । ४८-जि० उप० ३६.४१ ४६-(क) मति-सम्पदा आचार्य-सम्पदा -दशा० ४ अ० (ख) कर्म-सत्य, लेखादि मत्य | -प्रश्न० सत्य-संवर द्वार (ग) निशी० गाथा-३ (घ) श्रुतज्ञान का विषय मव द्रव्यो को जानना और देखना--नं. ५०-कालं पुण पडुच्च चरणकरणछा अवोच्छित्ति निमित्त च गेण्हमाणस्स पोत्थए सजमो भवड । -दशव० चूर्णि पृ० २१ ५१-श्रुत-पुरुषस्य अगेपु प्रविष्टम्--अग-प्रविष्टम् -न० वृ० ५२-जम्बू० १० वक्ष १ ५३-त. भा० टी० पृ० २३ ५४--"श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशोत्यधिकनवशत (६८०) वर्षे जातेन द्वादशवीयदुर्भिक्षवशाद् बहुतरमाधुव्यापत्तो बहुश्रुतविच्छित्तौ च जताया. भव्यलोकोपकाराय श्रुतव्यक्तये च श्रीसघानहात् मृतावशिष्टतदाकालीनसर्वसाधून् बलम्यामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽश्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या सकलय्य पुस्तकाल्ढा कृताः। ततो मूलनो गणधरभाषितानामपि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] जैन परम्परा का इतिहास तत्संकलनान्तरं सर्वेषामपि आगमानां कर्ता श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण एव जातः।" -स० श० ५५.-पा० भा० सा० पृ० ११ ५६-पा० भा० सा० पृ० ६५ ५७---पा० भा० सी० ५८-अनु० ५६-हेम० २।२।३८ ६०--अन्य० व्यव० ३ ६१--हेम० २१२१३६ ६२ तृ० द्वा०८ ६३--एक० द्वा० १५ ६४ - रत्न० श्रा० प्रस्तावना पृ० १५७ ६५---युक्त्य० ६१ ६६- अध्या० उप० ४।२ ६७--प्रभा० वृ० २०५, पट० ( लघु० ) पट० ( वृहद् ) ६८--लध्व० २० ६६--श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद् वीतराग-स्तवादित । कुमारपालभूपाल., प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ----त्रीत० २०९ ७०--वीत० २०१८ ७१--वीत० ११५ ७२--भर. महा० ७३--भर० महा० पुर्ग १७ ७४--पद्० महा० ११४६७ ७५--पद्० महा० १७११३३ ७६--शा० सु० १३१५,६ ७७--क० क० च० ७८--सा० सं० भाग १६ अंक १-२ (भाषा विज्ञान विशेषांक ) पृ० ७६८० ७६--न० वा० ढाल वी दोहा २,३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१६१ ८०-न० वा० ढाल ६ गाथा 8-१३, ३७, ३८ ८१-आचारांग : प्रथम श्रुतस्कंध, भगवती, ज्ञाता, विपाक, प्रज्ञापना, निशीथ, उत्तराध्ययन ( २२ अध्ययन ) अनुयोग द्वार । ५२-इन्होंने नव-अंग-स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती, ज्ञाता, उपासक दशा, अन्तकृत् दशा, अनुत्तरौपपातिक दशा, प्रश्न व्याकरण और विपाक पर टीकाएं लिखी। ८३-इन्होंने आचारांग और सूत्रकृताङ्ग पर टीकाएं लिखी। ये वि० १० वी शताब्दी में हुए। ८४-इन्होने उत्तराध्ययन पर टीका लिखी। इनका समय वि० १० वी शती है। ८५-इन्होने दावकालिक पर टीका लिखी। इनका समय वि० १० वी शती है। ८६-ये अनुयोग द्वार के टीकाकार है । इनका समय वि० १२ वां शतक है। ८७-इन्होने राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रशति आदि पर टीकाए लिखी। इनका समय वि० १२ वी शताब्दी है । ५५-नियुक्तियां भद्रबाहु द्वितीय की रचना है। इनका समय वि० ५ वी या छठी शताब्दी है। ८६-संघदास गणी और जिनभद्र के भाष्य सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इनका समय वि०७ वी शताब्दी है। ६०-चूर्णिकारो में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध है। इनका समय वि० ७ वी ८ वी शताब्दी है। ६१-इनका समय वि० १८ वी शताब्दी है। ६२-वालाववोध । ९३-कालु० यशो० २।५।४-८ ६४-कालु० यशो० १।५।१,६,८, १० ९५-कालु० यशो० ११५।१३-१४ ९६-आचार्य श्री तुलसी ( जीवन पर एकदृष्टि ) पृ० ८६,६०,६१,९२,९३,६४ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] : चार : जैन परम्परा का इतिहास १- - सम० ६, १६,७० २ - वि० ( दिसम्बर ) १९४२ चीनी भारतीय संस्कृति मे अहिंसा-तत्त्व अंक - ६ ३ -सू० १।७११३ ४ --- सू० ११७११४ ५- सू० १२७२.६ ६ - सू० ११७।१६ ७- उत्त० १२।३७ ८- सू० १।१३।११ & - उत्त० ६।१० १०- उत्त० ६८।१० ११ - उत्त० २०४४ १२ – आचा० ११४१२२६ १३ - उत्त० २३, भग० ११६, सू० २१७, भग० ६ ३२, १४- भग० २ १ १५ - भग० ११ १२ १६ -- भग० १११६ १७- भग० ७११०, १८१८ १८- भग० १८१० १६ - भग० २।५ २०- भग० १२।१ २१- भग० १८/३ २२- भग० २।१ २३ – उत्त० २०५६।५८, श्रे० शा० २४- उत्त० वृ० २५- अन्त० २६ - ज्ञाता १, अनु० दशा० वर्ग १ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास २७- निर० दशा० १०, स्था० ६६६६, सम० १५२ समवाय, भग० २८ - भग० २६ - जैन० भा० वर्ष २ अक १ ३० – जैन० भा० वर्षं २ अक १ पृ० ४५, ४६,४७,४८ [ १६३ ३१ - जैन० भा० वर्ष ६ अक ४२ पृ० ६८६ ३२ - वि० ( इलाहाबाद ) अहिंसक परम्परा ३३ - मू० समाचार, २१ मार्च, १९३७ ३४ - जैन० भा० वर्ष ६ अंक ४१ पृ० ६६७ ३५ - जैन० भा० वर्ष ६ अक ४२ पृ० ६६० ३६--Our Oriental Heritage, page 467, 471 ३७ - जैन० भा० वर्ष ६ अंक ४२ पृ० ६६० प्रवक्ता श्री आदित्यनाथ झा, उपकुलपति, वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय | ३८ - वेई दियाण जीवा असमारम्भमाणस्स चउविहे संजमे कज्जइ, तजहाजिभामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, जिभामरणं दुक्खेणं असजोगेत्ता भवइ, फासामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, फासामयाओ दुक्खाओ असयोगेत्ता भवइ । ---स्था० ४-४ ३६ - दसविहे सजमे पन्नते तजहा पुढविका यसजमे, अप्प - तेउ वाउ - बणस्सइastraजमे इदयच उरिदिससजमे पचेदियसजमे अजीवकायसजमे । -स्था० १० - ४० - दसविहे सवरे पन्नते त जहा -- सोइ दियसंवरे जावफासिंदियस व रे, मणवइ - काय उवगरणसवरे, सूईकुसग्गसवरे | • स्था० १० ४१ - दसविहे आससप्नओगे पन्नते त जहा - इह लोगाससप्पओगे, दुहओलोगाससयओगे, जीवियास सप्पओगे, परलोगास सप्पओगे, मरणास सप्पओगे, कामासंसओगे, भोगाससप्पओगे, लाभाससप्प ओगे, प्याससम्पओगे, सक्कारास सप्पओगे । - स्था० १० ४२ - दो ठाणाइ अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्त धम्म लभेज्जा सवणाए तजहा—आरम्भे चैव परिगहे चैत्र । स्था० २११ ४३ - सत्रे पाणा सन्चै भूया सच्चे जीवा सव्वे सत्ता न हन्तव्वा, न Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भतपाण १६४ ] जन परम्परा का इतिहास अज्जावेयव्वा न परिघेतव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्ध नितिए सासए। -आचा०२ ४४-Indian Thought and its Development ( Page 79-84 ४५----ऋग० २।१।१।१८।१२४ ४६-कयाणमह अप्पं वा बहुय वा परिग्गह परिचइस्सामि । । -स्था० ३ ४७-कयाणमह मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारिअ पव्वइस्सामि । -स्था० ३ ४८-कयाणमहं अपच्छिममारणांतियसलेहणाझूसणाझुसिए, पडियाइक्खओ पाओए कालमणवकखमाणे विहरिस्सामि । -स्था०३ ४६-तित्थ पुण''समणा समणीओ सावया सावियाओ य । -भग० २०८ ५०-उत्त० १२ ५१-गामे वा अदुवा रण्णे, नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह । -आचा० ८।१।१६७ ५२-भिक्खाए वा मिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिव । -उत्त० श२२ ५३ -जहा पुष्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।। --आचा० २।६।१०२ ५४-न० ५५-जम्बू प्र०, वृक्ष २ ५६-जावत्तरि कलाकुसला, पडिय पुरिसा अपडिया चेव । सव्व कलाण पवर, धम्मकल जे न याणति ॥ ५७ -भा० मू० पृ० ५६ : पॉच: १-यानि च तोणि यानि च सट्टि -पु० नि० (सभिय सुत्त) २-सू० वृ० १११२ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास । १६५ ३-चत्तारि समीरिणाणिमाणि, पावादुया जाई पुढो वयति । किरिथ अफिरिय विणियति तइय, अन्नाणमाहसु चउत्यमेव ॥ सू० १।१२।१ ४-दी० २ ५-इन छह सघो मे एक सघ का आचार्य पूरण कश्यप था । उसका कहना था कि "किसी ने कुछ किया या करवाया, काटा या कटवाया, तकलीफ दी या दिलवाई, शोक किया या करवाया, कष्ट सहा या दिया, डरा या दूसरे को डराया, प्राणी की हत्या की, चोरी की, डकैती की, घर लूट लिया, वटमारी की, परस्त्रीगमन किया, असत्य वचन कहा, फिर भी उसको पाप नही लगता । तीक्ष्ण धार के चक्र से भी अगर कोई इस संसार के सब प्राणियो को मारकर ढेर लगा दे तो भी उसे पाप न लगेगा। गगा नदो के उत्तर किनारे पर जाकर भी कोई दान दे या दिलवाए, यज्ञ करे या करवाए, तो कुछ भी पुण्य नही होने का । दान, धर्भ संयम सत्य भाषण, इन सवो से पुण्य-प्राप्ति नहीं होती।" इस पूरण कश्यप के बाद को अक्रियवाद कहते थे। दूसरे संघ का आचार्य मक्खलि गोसाल था । उसका कहना था कि "प्राणी के अपवित्र होने में न कुछ हेतु है न कुछ कारण । विना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी अपवित्र होते है । प्राणी की शुद्धि के लिए भी कोई हेतु नही है, कुछ भी कारण नहीं है । विना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी शुद्ध होते है । खुद अपनी या दूसरे की शक्ति से कुछ नही होता । बल, वीर्य, पुरुषार्थ या पराक्रम, यह सब कुछ नही है । सब प्राणी बलहीन और निवीर्य है-वे नियति ( भाग्य ) संगति और स्वभाव के द्वारा परिणत होते है-अक्लमन्द और मूर्ख सवो के दुखो का नाश ८० लाख के महाकल्पो के फेर में होकर जाने के बाद ही होता है।" इस मक्खलि गोसाल के मत को सपार-शुद्धि-बाद कहते थे । इसो को नियतिवाद भी कह सकते है । तीसरे सब का प्रमुख अजित केस कवली था। उसका कहना था कि "दान यज्ञ, तया होम, यह सब कुछ नही है, भले-बुरे कर्मो का फल नही मिलता, न इहलोक है न परलोक-चार भूतो से मिलकर मनुष्य बना है । जब वह मरता है Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन परम्परा का इतिहास तो उसमें का पृथ्वी-धातु पृथ्वी में, आपो धातु पानी मे, तेजो धातु तेज में तथा वायु धातु वायु में मिल जाता है और इन्द्रियां सब आकाश में मिल जाती है । मरे हुए मनुष्य को चार आदमी अरथी पर सुलाकर उसका गुणगान करते हुए ले जाते है। वहाँ उसको अस्थि सफेद हो जाती है और आहुति जल जाती है । दान का पागलपन मुों ने उत्पन्न किया है। जो आस्तिकवाद कहते है, वे झूठ भाषण करते है । व्यर्थ ही बड़बड़ करते है । अक्लमन्द और मूर्ख दोनो ही का मृत्यु के बाद उच्छेद हो जाता है । मृत्यु के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रहता।" केस कवली के इस मत को उच्छेदवाद कहते है। -भा० स० अ० पृ० ४५-४६ ६-१।१२।४-८ ७–णाइच्चो उएइ ण अत्थमेति, ण चदिमा बढ्दति हायती वा । सलिला ण सदति ण वति वाया, वझो गियतो कसिणे हु लोए ॥ -सू० १।१२।७ ८-चौथे सव का आचार्य पकुधकात्यायन था। उसका कहना था कि "सातो पदार्थ न किमी ने किये न करवाये। वे वेध्य, कूटस्थ तथा खबे के समान अचल है । वे हिलते नही, बदलते नही, आपस में कष्टदायक नही होते । और एक दूसरे को सुख दुख देने में असमर्थ है । पृथ्वी, आप, तेज, वायु, सुख दु ख तथा जीव-ये ही सात पदार्थ है। इनमे मारनेवाला, मार-खानेवाला, सुननेवाला, कहनेवाला, जाननेवाला, जनानेवाला कोई नही । जो तेज शस्त्रो से दूसरे का सिर काटता है वह खून नही करता सिर्फ उसका शस्त्र इन सात पदार्थो के अवकाश (रिक्तस्थान ) मे घुसता है, इतना ही ।" इस मत को अन्योन्यवाद कहते है। -भा० स० अ० पृ० ४६-४७ बन्ध्य और कुटस्य शब्द अधिक ध्यान देने योग्य है। "वज्झा कट्टा" -दी०२ ६-अण्णाणिया ता कुसला वि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिन्ना । अकोविया आहु अकोवियेहिं, अगाणुवीइतु मुसं वयति ॥ -सू० १।१२।२ १.-छठे बड़े सव का आचार्य सजय वेलट्ठ पुत्र था। वह कहता था Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास | [ १६७ "परलोक है या नहीं, यह मैं नही समझता। परलोक है यह भी नही, परलोक नही है, यह भी नही।"अच्छे या बुरे कर्मो का फल मिलता है, यह भी मैं नहीं मानता, नही मिलता, यह भी मैं नहीं मानता, वह रहता भी है, नही भी रहता । तथागत मृत्यु के बाद रहता है या रहता नहीं, यह मैं नही समझता । वह रहता है यह भी नही, वह नही रहता, यह भी नही ।" इस सजय वेलट्ठ पुत्र के वाद को विक्षेपवाद कहते थे। ~भा० स० अ० पृ० ४६ ११--किरियाकिरिय वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाण पडियञ्च ठाण । से सब वायं इति वेयइत्ता, उबट्ठिए संजम दोहराय ॥ - सू० १।६।२७ १२-से वेमि जे य अतीता जे य पड्ड पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहता भगवता सवे ते एव-माइक्खति एव भासति एव पण्णवेति एव पस्वेति-सवे पाणा जाव सत्ता पा हतन्वा ण अजावेयव्वा ण परिघेतबा ण परितावैयबा ण उद्दवेयन्वा । एस धम्मेद्य वे णीइए सासर समिञ्च लोग खेयन्नेहि पवेदए । सू०२।१।१६ १३-सू० ११११७- १४~सू० २११६-१० १५ -मू० ११११११-१२ १६ - सू० १२११५१३-१४ १७-सू० ११०१५-१६ १८-सू० २११।२-४ १६-सू० ११३५ २०-~भग० २५१७८०२, स्था० ७।३।५८५, ओप० ( तवोधिकार ) २१-उत्त० २६।२-७ २२-दगा० (चतुर्थी दशा ) २३-धर्म स० २ श्लोक २२ टीका पृ० ४६, प्र० सा. १४८ गाथा १४१ २४-दशा० ( चतुर्थी दगा ) २५-दशव० चूर्णि २।१२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] जैन परम्परा का इतिहास २६-उत्त० २६१४८-५२ २७-उत्त० २६८-१० २८-उत्त० २६।१२ २९-उत्त० २६।१८ ३०-उत्त० २६।४०-४३ ३१-उत्त० २६१२२-२३ ३२-उत्त० २६३८ ३३-स्था० ४ ३४-उत्त० ५।२३ ३५-धर्म० प्रक० ३३ ३६-भग० १२ ३७-नव भारत टाईम्स १९५६, 'भारत का राष्ट्रीय पर्व दीपावली' लेखक-बच्चन श्रीवास्तव । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ में प्रयुक्त ग्रन्थ सूची और उनके संकेत अध्यात्मोपनिपद्-अध्या० उप० अनुयोग द्वार- अनु० अन्तकृत-अन्त० अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका अन्य० व्यव० मागम अष्टोत्तरी-आ० अ० आचारांग-आचा. आचारांग वृत्ति-आचा. वृ० आचार्य श्री तुलसी का जीवन चरित्र-आचा० तु. नावश्यक कथा-आव० कया. आवश्यक चूर्णि-आव० चू० आवश्यक नियुक्ति-आव०नि० Indian thought and its Developments. उत्तराध्ययन-- उत्त० उत्तराध्ययनवृत्ति-उत्त० वृ० ऋगवेद-ऋग० एकविंशति द्वात्रिंशिका-एक० द्वा० Our Oriental Heritage. औपपात्तिक-औप० औपपातिक धर्म देशना-औप० धर्म० कर्नाटक कवि चरित्र-क. क. च० कल्प सुबोधिका -क० सु० कल्पसूत्र-कल्प कालयशोविलास-कालु० यशो० छान्दोग्य उपनिपद्-छान्दो० उप० जम्बूद्वीप प्रजति वृत्ति-जम्बू० वृ० ज०प० इ० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] जैन परम्परा का इतिहास जिनाज्ञा उपकरण-जिन० उप० जीवाभिगम-जीवा० जैन दर्शन का इतिहास-जैन० द० इ० जैन भारती-जैन० भा० तत्त्वार्थ सूत्र-त० सू० तत्त्वार्थ सूत्र भाषानुसारिणी टीका-त० भा० टी० तृतीय द्वात्रिंशिका-तृ० द्वा० दशवैकालिक–दशव० दशवकालिक चूणि-दशवै चू० दशवकालिक नियुक्ति- दशवै० नि० दशाश्रुतस्कन्ध - दशा० दीर्घनिकाय-दी० धर्मरत्न प्रकरण-धर्म० प्रक० धर्म सनह टीका-धर्म० स० नन्दी वृति-म०७० नन्दी सूत्र-नं० नव बाड-न० बा० नव भारत टाइम्स निरयावलिका-निर० निशीथ चूर्णि-नि० चू० निशीथ सूत्र-निशी पद्मानन्द महाकाव्य-पद० महा० परिशिष्ट पर्व-परि० ५० पाइए भाषाओ भने साहित्य-पा० भा० साल पाइए सद्द महण्णवो-पा० स० म० प्रभाकर चरित्र प्रभा० च० प्रवचन सार-प्र० सा० प्रश्न व्याकरण-प्रश्न Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा का इतिहास [१७१ प्रज्ञापना-प्रज्ञा० भगवती सूत्र-भग० भरत वाहुवली महाकाव्य-भर० महा० भारतीय प्राचीन लिपिमाला-भा० प्रा० लि. मा० भारतीय मूर्तिकला-भा० मू० भारतीय संस्कृति और अहिंसा-भा० स० अ० महावीर कथा-महा० क० मुम्बई समाचार-मु० युक्त्यनुशासन–युक्त्य० रत्नकरण्ड श्रावकाचार-रत्न. श्रा० राजप्रश्नीय-रा०प्र० लन्वहनीति-लव० विश्ववाणी-वि० विशेपशतक-वि० श. विशेपावश्यक भाष्य-वि० भा० वीतरागस्तव-वीत. वृहतकल्प नियुक्ति-१० नि० व्यवहार-व्यव० समवायांग-सम० समाचारी शतक-स० म० साहित्य सदेग-सा० सदेश सुत्त निपात-सु०नि० सूत्रकृतांग-सू० सूचनांग नृत्ति--सू० १० स्थानांगवृत्ति -स्या० नृ० स्थानागम-स्वा० मान्त गुपारम-शा० मु० ध्रमण-५० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] जैन परम्परा का इतिहास षट् दर्शन समुच्चय (लघुवृति )-षट् ( लघु ) षट् दर्शन समुच्चय (वृहद् वृत्ति )--षट् ( वृहद् ) षट्पद प्राभृत-षट० प्रा० हेम शब्दानुशासन-हेम० ज्ञाता धर्म कथा-ज्ञाता० त्रिषष्ठी श्लाका पुरुष चरित्र-त्रिषष्ठी० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अन्य कृतियां जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (पहला भाग) " , , , (दूसरा भाग) जैन धर्म और दर्शन न में ज्ञान-मीमासा प्रमाण-मीमांसा मासा ...कास्मीमासा 'जन तत्त्व चिन्तन जीव मजीव प्रतिक्रमण / सटीक ) अहिंसा तत्व दर्शन अहिंसा अहिंसा को सही समझ बहिमा और उसके विचारक अश्रु-वीणा (मस्कृत-हिन्दी) आँखे खोलो अणुव्रत-दर्शन अणुव्रत एक प्रगति अणुव्रत-आन्दोलन एक अव्ययन आचार्यश्री तुलसी के जीवन पर एक दृष्टि अनुभव चिन्तन मनन आज, कल, परसो विश्व स्थिति विजय यात्रा विजय के आलोक में बाल दीक्षा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण श्रमण सस्कृति की दो धाराए सवोधि ( सस्कृत-हिन्दी) कुछ देखा, कुछ सुना, कुछ समझा फूल और अंगारे ( कविता ) मुकुलम् ( सस्कृत-हिन्दी) भिक्षावृति धर्मवोध ( 3 भाग) उन्नीसवी सदी का नया आविष्कार नयवाद दयादान धर्म और लोक व्यवहार भिक्षु विचार दर्शन सस्कृत भारतीय संस्कृतिश्च जै० 50 इ०