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________________ १०६ ] जैन परम्परा का इतिहास दुर्गति की दलना अब भी हो रहूँ पायो । प्रतीरे, घ्यावे यो धृति घर धीरे ॥ यह मिल्यो सखा हितकारी, उत्तएँ अघ की भारी । नहिं द्वेप-भाव दिल लाऊँ, कैवल्य पलक मे पाऊँ ॥ जाऊँ, पहुँचाऊँ । प्राचीरे, प्रक्षय हो भव घ्यावे यो धृत घर घीरे ॥ सच्चिदानन्द बन लोकान स्थान नहिं मरू नकबही जन्मू, कहिं परून जग झंझट में । फिर जरूँ न आग-लपट मे, र पड ून प्रलय झपट में ॥ दुनियां के दारुण दुख में, धधकत शोकानल धुक नहिं धुकू सहाय में । सभी रे, घ्यावे यो धृति घर घीरे ॥ - मे, नहिं वहूँ सलिल स्रोतो नहि रहूँ भन्न पोतो में, नहिं जहूँ रूप नहि लहूँ कप्ट नहिं छिदू घार मैं म्हारो, मतो में ॥ तलवारां,
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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