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________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १४५ (च) मयुर नीति से अर्थात् शान्तिमय मीठे वचनो से कार्य चलाना, कठोर वचन न बोलना। (३)-गुणवत्ता-इसके पाँच प्रकार है : - (१) वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म-कथा रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना। (२) तप, नियम, वन्दनादि अनुष्ठानो मे तत्पर रहना । (३) विनयवान् होना। (४) दुराग्रह नहीं करना। (५) जिनवाणी में रुचि रखना। ४- ऋजु व्यवहार करना-निष्कपट होकर सरल भाव से व्यवहार करना । ५-गुरु-सुथूपा। ६-प्रवचन अर्थात् गाम्यो के ज्ञान मे प्रवीणता 30 | शिष्टाचार शिष्टाचार के प्रति जैन आचार्य बड़ी सूक्ष्मता से ध्यान देते है। वे आशातना को सर्वथा परिहार्य मानते है। किसी के प्रति अनुचित व्यवहार करना हिंमा है। आगातना हिंसा है। अभिमान भी हिंसा है। नम्रता का अर्य है कपाय-विजय । अभ्युत्यान, अभिवादन, प्रियनिमन्त्रण, अभिमुखगमन, आसन-प्रदान, पहुंचाने के लिए जाना, प्राजलीकरण आदि-आदि शिष्टाचार के अग है। इनका विशद वर्णन उत्तराध्ययन के पहले और दशवकालिक के नवें अव्ययन मे है। ___श्रावक व्यवहार-दृष्टि से दूसरे श्रावको को भी वन्दना करते थे३६ । धर्मदृष्टि से उनके लिए वन्दनीय मुनि होते है । वन्दना की विधि यह है : तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिण ( करेमि ) वदामि नमसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाण मंगल देवय चेइय पज्जुवासामि मत्यएण वदामि । जैन आचार्य आत्मा को तीन स्थितियो में विभक्त करते है - (१) वहिरात्मा- जिसे देह और आत्मा का भेद-ज्ञान न हो, मिथ्या. दृष्टि ।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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