SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४] जैन परम्परा का इतिहास वैसे चौथे पहर भी करे३२, यह मुनि की जागरुकतापूर्ण जीवन-चर्या है । श्रावक-संघ धर्म की आराधना मे जैसे साधु-साध्विॉ संघ के अंग है, वैसे श्रावकश्राविकाएं भी है। ये चारो मिलकर ही चतुर्विध-संघ को पूर्ण बनाते हैं। भगवान् ने श्रावक-श्राविकाओ को साधु-साध्वियों के माता-पिता तुल्य कहा है। श्रावक की धार्मिक चर्या यह है :१-सामायिक के अगों का अनुपालन । २-दोनों पक्षों में पौषधोपवास३४ । आवश्यक कर्म जैसे साधु-संघ के लिए है, वैसे ही श्रावक-सघ के लिए भी हैं। श्रावक के छह गुण देश विरति चारित्र का पालन करने वाला श्रद्धा-सम्पन्न-व्यक्ति श्रावक कहलाता है । इसके छह गुण है : १-व्रतो का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान । व्रतों का अनुष्ठान चार प्रकार से होता है(क) विनय और बहुमान पूर्वक व्रतो को सुनना। (ख) व्रतो के भेद और अतिचारो को सांगोपांग जानना । (ग) गुरु के समीप कुछ काल के लिए अथवा सदा के लिए व्रतों को स्वीकार करना। (घ) ग्रहण किये हुए व्रतों को सम्यग् प्रकार पालना। २-शील ( आचार )- इसके छह प्रकार है : (क) जहाँ बहुत से शीलवान् बहुश्रुत साधर्मिक लोग एकत्र हो, उस स्थान को आयतन कहते है, वहाँ आना-जाना रखना। (ख) बिना कार्य दूसरे के घर न जाना। (ग) चमकीला-भड़कीला वेष न रखते हुए सादे वस्त्र पहनना। (घ) विकार उत्पन्न करने वाले वचन न कहना । (ड) बाल-क्रीड़ा अर्थात् जुआ आदि कुव्यसनो का त्याग करना।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy