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________________ १३२] जैन परम्परा का इतिहास ताडपत्रीय या पत्रीय प्रतियो के पट्ठो, चातुर्मासिक प्रार्थनाओ, कल्याण, मन्दिर, भक्तामर आदि स्तोत्रो के चित्रो को देखे बिना मध्यकालीन चित्र-कला का इतिहास अधूरा ही रहता है। ___ योगी मारा गिरिगुहा ( रामगढ की पहाड़ी, सरगुजा ) और सितन्नवासल (पदुकोट राज्य ) के भित्ति-चित्र अत्यन्त प्राचीन व सुन्दर है। चित्र कला की विशेष जानकारी के लिए जैन चित्रकल्पद्रुम देखना चाहिए लिपि-कला अक्षर-विन्यास भी एक सूकुमार कला है। जैन साधुओ ने इसे बहुत ही विकसित किया । सौन्दर्य और सूक्ष्मता दोनो दृष्टियो से इसे उन्नति के शिखर तक ले गए। पन्द्रह सौ वर्ष पहले लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ और वह अब तक विकास पाता रहा है। लेखन कला में यतियो का कौशल विशेष रूप मे प्रस्फुटित हुआ है। तेरापथ के साधुओ ने भी इस कला में चमत्कार प्रदर्शित किया है। सूक्ष्म लिपि मैं ये अग्नणी है। कई मुनियो ने ११ इच लम्बे व ५ इच चौड़े पन्ने मे लगभग ८० हजार अक्षर लिखे है। ऐसे पत्र आज तक अपूर्व माने जाते रहे है। मूर्ति-कला और स्थापत्य-कला __कालक्रम से जैन-परम्परा में प्रतिमा-पूजन का कार्य प्रारम्भ हुआ । सिद्धान्त की दृष्टि से इसमें दो धाराएं है । कुछ जैन सम्प्रदाय मूर्ति-पूजा करते है और कुछ नही करते । किन्तु कला की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण विषय है। वर्तमान में सबसे प्रचीन जैन-मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है । यह मूर्ति मौर्य-काल की मानी जाती है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यो की त्यो बनी है । लाहौर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि के म्यूजियमो में भी अनेक जैन-मूर्तियां मौजूद है । इनमे से कुछ गुप्त कालीन है । श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४ वें तीर्थकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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