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________________ जैन परम्परा का इतिहास [ १२६ काल मे ले जाता है जब ब्राह्मण-ग्रन्थो का निर्माण हो रहा था। जिसे पलायनवाद कहा गया । उससे उपनिपद्-साहित्य मुक्त नही रहा । परिग्रह के लिए सामाजिक प्राणी कामनाएँ करते है। जन उपासको का कामना सूत्र है (१) कव में अल्प मूल्य एव बहु मूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा। (२) कव में मुण्ड हो गृहस्थपन छोड़ साधुव्रत स्वीकार करूंगा। (३) कव मैं अपश्चिम-मारणान्तिक-सलेखना यानी अन्तिम अनशन मे शरीर को झोसकर-जुटाकर भूमि पर गिरी हुई वृक्ष को डाली की तरह अडोल रह कर मृत्यु की अभिलाषा न करता हुआ विचरूंगा। __ जैनाचार्य धार्मिक विचार मे बहुत ही उदार रहे है। उन्होने अपने अनुयायियो को केवल धार्मिक नेतृत्व दिया। उन्हें परिवर्तनशील सामाजिक व्यवम्या मे कभी नही वांधा। समाज-व्यवस्था को समाज-शास्त्रियो के लिए सुरक्षित छोड दिया। धार्मिक विचारो के एकत्व की दृष्टि से जन-समाज है किन्तु सामाजिक बन्धनो की दृष्टि से जैन-समाज का कोई अस्तित्व नही है। जैनो की संख्या करोडो से लाखो मे हो गई, उसका कारण यह हो सकता है और इस सिद्धान्तवादिता के कारण वह धर्म के विशुद्ध रूप की रक्षा भी कर सका है। जैन-सस्कृति का रूप सदा व्यापक रहा है। उसका द्वार सबके लिए खुला रहा है। भगवान् ने अहिंसा-धर्म का निरूपण उन सबके लिए किया-जो आत्म-उपासना के लिए तत्पर थे या नही थे, जो उपासना-मार्ग सुनना चाहते थे या नहीं चाहते थे, जो शस्त्रीकरण से दूर थे या नही थे, जो परिग्नह की उपाधि से बन्चे हुए थे या नही थे, जो पौद्गलिक सयोग में फंसे हुए थे या नही थे-और सबको धार्मिक जीवन बिताने के लिए प्रेरणा दी और उन्होने कहा - (१) धर्म की आराधना में स्त्री-पुरुष का भेद नही हो सकता । फलवस्वरूपश्रमण, अमणी, श्रावक और श्राविका-ये चार तीर्थ स्थापित हुए४९ । (२) धर्म की आराधना मे जाति-पॉति का भेद नही हो सकता । फलस्वरूप सभी जातियो के लोग उनके संघ में प्रवजित हुए.. |
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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