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________________ ५६] जैन परम्परा का इतिहास वे स्वयं सम्राट् सम्प्रति के आचार्य बन कुछ सुविधा के उपभोक्ता बने थे। पर आर्य महागिरि के सकेत से शीघ्र ही सम्हल गए थे। माना जाता है कि उनके सम्हल जाने पर भी एक शिथिल परम्परा चल पड़ी। वी० नि० की नवी शताब्दी (८५० ) में चैत्यवास की स्थापना हुई । कुछ शिथिलाचारी मुनि उन-विहार छोड़ कर मदिरो के परिपार्श्व में रहने लगे। वी० नि० की दशवी शताब्दी तक इनका प्रभुत्व नही बढा। देवद्धिगणी के दिवंगत होते ही इनका सम्प्रदाय शक्तिशाली हो गया। विद्या-बल और राज्य-बल दोनो के द्वारा उन्होंने उन-विहारी श्रमणो पर पर्याप्त प्रहार किया। हरिभद्रसूरि ने 'सम्बोध-प्रकरण' मे इनके आचार-विचार का सजीव वर्णन किया है । अभयदेव सूरि देवर्द्धिगणी के पश्चात् जैन-शासन की वास्तविक परम्परा का लोप मानते है५२ । चैत्यवास से पूर्व गण, कुल और शाखाओ का प्राचुर्य होते हुए भी उनमें पारस्परिक विग्रह या अपने गण का अहकार नही था। वे प्राय अविरोधी थे। अनेक गण होना व्यवस्था-सम्मत था। गणो के नाम विभिन्न कारणों से परिवर्तित होते रहते थे। भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा के नाम से गण को सौधर्म गण कहा गया। सामन्त भद्रसूरि ने वन-वास स्वीकार किया, इसलिए उसे वन-वासी गण कहा गया। चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष सविम, विधि-मार्ग या सुविहित मार्ग कहलाया और दूसरा पक्ष चैत्यवासी। स्थानक वासी इन सम्प्रदाय का उद्भव मूर्ति-पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। वि० को सोलहवी शताब्दी मे लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया और आचार को कठोरता का पक्ष प्रबल किया। इन्ही लोकाशाह के अनुयायियो में से स्थानकवासी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। यह थोड़े ही समय में शक्तिशाली बन गया । तेरापंथ । स्थानक वासी सम्प्रदाय के आचार्य श्री रुघनाथजी के शिष्य 'संत भीखणजी'
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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