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________________ TOURT ६८1 जैन परम्परा का इतिहास तद्धित १-'तर' प्रत्यय का तराय रूा होता है, यथा अणि?तराए, अप्पतराए, बहुतराए, कंततराए इत्यादि । २-आउसो, आउसंतो, गोमी, बुसिम, भगवतो, पुरत्थिम, पचत्थिम, ओयंसी, दोसिणो, पोरेवच्च आदि प्रयोगो में 'मतुप' और अन्य तद्धित' प्रत्ययो के जैसे रूप जैन अर्धमागधो मे देखे जाते है, महाराष्ट्री में वे भिन्न तरह के होते है। महाराष्ट्री से जैन अर्धमागधी में इनके अतिरिक्त और भी अनेक सूक्ष्म भेद है, जिनका उल्लेख विस्तार-भय से यहाँ नही किया गया है। आगम वाचनाएं वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी मे (१६० वर्ष पश्चात् ) पाटलीपुत्र में १२ वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ १८ उस समय श्रमण-संघ छिन्न-भिन्न सा हो गया। बहुत सारे बहुश्रुत मुनि अनशन कर स्वर्ग-वासी हो गए। आगम-ज्ञान की शृङ्खला टूट सो गई। दुर्भिक्ष मिटा तब सघ मिला । श्रमणो ने ग्यारह अंग सकलित किए। बारहवें अग के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी के सिवाय कोई नही रहा । वे नेपाल मै महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना पर उन्होने बारहवें अग की वाचना देना स्वीकार कर लिया। पन्द्रह सौ साधु गए। उनमे पाँच सौ विद्यार्थी थे ओर हजार साधु उनकी परिचर्या में नियुक्त थे। प्रत्येक विद्यार्थी-साधु के दो-दो साधु परिचारक थे। अध्ययन प्रारम्भ हुआ । लगभग विद्यार्थी-साधु थक गए । एकमात्र स्थूलभद्र बच रहे। उन्हें दस पूर्व की वाचना दी गई । बहिनो को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होने सिंह का रूप बना लिया। भद्रबाहु ने इसे जान लिया । वाचना बन्द करदी। फिर बहुत आग्रह करने पर चार पूर्व दिये पर उनका अर्थ नही बताया। स्थूलभद्र पाठ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत-केवली थे। अयं की दृष्टि से अन्तिम श्रुत-केवली भद्रबाहु ही थे । स्थूलभद्र के बाद दश पूर्व का ज्ञान ही शेष रहा । वज्रस्वामी अन्तिम दश-पूर्वधर हुए। वज्रस्वामी के उत्तराधिकारी आर्य-रक्षित हुए। वे नौ पूर्व पूर्ण और दशवें पूर्व के २४ यविक जानते थे। आर्य-रक्षित के शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने नौ पूर्वो का अध्ययन किया किन्तु अनभ्यास के कारण वे नवे पूर्व को भूल गए। विस्मृति का यह क्रम आगे बढता गया।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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