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________________ ७] जैन परम्परा का इतिहास उपांग का प्रयोग उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्ध-भाष्य में किया है५३ । अंग स्वतः और उपांग परतः प्रमाण है, इसलिए अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से यह प्रयोग समुचित है। छेद का प्रयोग उनके भाष्यों में मिलता है। मूल का प्रयोग सभवतः सबसे अधिक अर्वाचीन है। दशवैकालिक, नन्दी, उत्तराध्ययन और अनुयोगद्वारये चार मूल माने जाते है। कई आचार्य महानिशीथ और जीतकल्प को मिला छेद-सूत्र छह मानते है। कई जीतकल्प के स्थान में पंचकल्प को छेदसूत्र मानते है। मूल-सूत्रो को सख्या में भी एक मत नही है। कई आचार्य आवश्यक और ओघ-नियुक्ति को भी मूल-सूत्र मान इनकी संख्या छह बतलाते है। कई ओधनियुक्ति के स्थान में पिण्ड-नियुक्ति को मूल-सूत्र मानते है । कई आचार्य नन्दी और अनुयोगद्धार को मूल-सूत्र नही मानते। उनके अनुसार ये चूलिका-सूत्र है। इस प्रकार अग-बाह्य श्रुत की समय-समय पर विभिन्न रूपों मे योजना हुई है । आगमों का वर्तमान रूप और संख्या द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के पश्चात् देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्रमणसंघ मिला । बहुत सारे बहु-श्रुत मुनि काल कर चुके थे। साधुओ को सख्या भी कम हो गई थी। श्रुत की अवस्था चिन्तनीय थी। दुर्भिक्ष जनित कठिनाइयों से प्रासुक भिक्षाजीवी साधुभो की स्थिति बड़ी विचारणीय थी। श्रुत की विस्मृति हो गई। देवर्द्धिगणि ने अवशिष्ट सघ को वलभी मे एकत्रित किया। उन्हे जो श्रुत कण्ठस्थ था, वह उनसे सुना। आगमों के आलापक छिन्न-भिन्न न्यूनाधिक मिले। उन्होंने अपनी मति से उनका संकलन किया, संपादन किया और पुस्तकाद किया। आगमो का वर्तमान संस्करण देवद्धिगणि का है। अंगो के कर्ता गणधर हैं। अग बाह्य-श्रुत के कर्ता स्थविर है । उन सबका सकलन और सम्पादन करने वाले देवद्धिगणि है । इसलिए वे आगमों के वर्तमान-रूप के कर्ता भी माने जाते हैं ५४॥
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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