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जैन परम्परा का इतिहास
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अंग-उपांग तथा छेद और मूल - दिगम्वर-साहित्य मे आगमो के दो ही विभाग मिलते है—अंग-प्रविष्ट और अग-बाह्य ।
श्वेताम्वर-परम्परा मे भी मूल-विभाग यही रहा। स्थानांग, नन्दी आदि मे यही मिलता है। आगम-विच्छेद काल मे पूर्वो और अगो के नि!हण और शेषांप रहे, उन्हे पृथक् सज्ञाएं मिली। निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प और दशाश्रुत-स्कन्ध को छेद-सूत्र कहा गया ।
आगम-पुरुष की कल्पना हुई, तब अंग-प्रविष्ट को उसके अंग स्थानीय और वारह सूत्रो का उपांग-स्थानीय माना गया। पुरुष के जैसे दो पैर, दो जंघाएं, दो ऊरु, दो गात्रार्घ, दो वाहु, ग्रीवा और शिर-ये बारह अग होते है, वैसे ही आचार आदि श्रुत-पुरुप के बारह अग है। इसलिए ये अग-प्रविष्ट कहलाते है५१ ।
कान, नाक, आँख, जघा, हाय और पैर-ये उपांग है। श्रुत-पुरुप के भी औपपातिक आदि बारह उपांग है । वारह अगों और उनके उपांगो की व्याख्या इस प्रकार है :--
उपांग
औपपातिक सूत्र
राजप्रश्नीय जीवाभिगम
प्रज्ञापना भगवती
सूर्य-प्रज्ञप्ति मातृवर्म कथा
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति उपासकदशा
चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृद्-दशा
कल्पिका अनुत्तरीपपातिक दशा कल्पावतसिका प्रश्न-व्याकरण
पुष्पिका
पुष्प-चूलिका दृष्टिवाद
वृष्णि-दशा"
अग
आचार
स्थान
समवाय
विपाक