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________________ जैन परम्परा का इतिहास [८९ स्वय कृतभुज. क्वचित परकृतोपभोगाः पुन नर्वा विशद-वाद ! दोष-मलिनोऽस्यहो विस्मय.६ । परमात्मा में अपने को विलीन करते हुए सिद्धसेन कहते है न शब्दो, न रूप रसो नापि · गन्धो, न वा स्पर्शलेशो न वर्णो न लिङ्गम् । न पूर्वापरत्वं न यस्यास्ति सज्ञा, स एक परात्मा गतिमे जितेन्द्र-६३॥ जैन-न्याय की परिभाषाओ का पहला रूप न्यायावतार में ही मिलता है । आचार्य समन्तभद्र के विपय में दो मत है-~कुछ एक इतिहासकार इनका अस्तित्व सातबी शताब्दी में मानते है और कुछ एक चौथी शताब्दी मे ६४ ॥ उनकी रचनाए देवागम-स्त्रोत, युक्त्यनुशासन, स्वयभू-स्त्रोत आदि है । आधुनिक युग का जो सव से अधिक प्रिय शब्द 'सर्वोदय' है, उसका प्रयोग आचार्य समन्तभद्र ने वडे चामत्कारिक ढग से किया है सर्वान्तवत् तद् गुणमुख्यकल्प, सर्वान्तशून्यञ्च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त, सर्वोदय तीर्थमिद तवैव ६॥ विक्रम की तीसरी शताब्दी मे जैन परम्परा में जो सस्कृत-साहित्य किशोरावस्था मे था, वह पांचवीं से अठारहवी शताब्दी तक तरुणावस्था में रहा। अठारहवी शताब्दी मे उपाध्याय यशोविजयजी हुए, जो एक विशिष्ट श्रुतधर विद्वान् थे । जिन्होने सस्कृत-साहित्य को खूब समृद्ध बनाया । उनके कुछ एक तथ्य भविष्य की बात को स्पष्ट करने वाले या क्रान्त-दर्शन के प्रमाण है। आत्मप्रवृत्तावति जागरूक , परप्रवृत्ती बधिरान्धमूकः । सदा चिदानन्दपदोपभोगी, लोकोत्तरं साम्यमुपैति योगी ६६॥ महात्मा गांधीजी को जो भेट स्वरूप तीन वन्दर मिले थे, उनमें जो आरोपित कल्पनाए है, वे इस श्लोक के 'वधिरान्धमूक' शब्द में स्पष्ट संकेतित है।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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