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________________ १२२] जैन परम्परा का इतिहास हिसा का त्याग-अनाक्रमण और दूसरी-परिग्रह का सीमाकरण । यह लोकतन्त्र या समाजवाद का प्रधान सूत्र है । वाराणसी सस्कृत विश्व-विद्यालय के उपकुलपति आदित्यनाथ झा ने इस तथ्य को इन शब्दों मे अभिव्यक्त किया है''भारतीय जीवन मे प्रज्ञा और चारित्र्य का समन्वय जैन और बोद्धों की विशेष देन है । जैन दर्शन के अनुसार सत्य-मार्ग-परम्परा का अन्धानुसरण नहीं है, प्रत्युत तर्क और उपपत्तियो से सम्मत तथा बौद्धिक रूप से सन्तुलित दृष्टिकोण ही सत्य मार्ग है । इस दृष्टिकोण को प्राप्ति तभी सम्भव है जब मिथ्या विश्वास पूर्णत दूर हो जाय । इस बौद्धिक आधार शिला पर ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के बल से सम्यक् चारित्र्य को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। जैन धर्भ का आचार-शास्त्र भी जनतन्त्रवादी भावनाओं से अनुप्राणित है। जन्मत: सभी व्यक्ति समान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और रुचि के अनुसार गृहस्थ या मुनि हो सकता है। अपरिग्रह सम्बन्धी जैन धारणा भी विशेषत उल्लेखनीय है । आज इस बात पर अधिकाधिक बल देने की आवश्यकता है, जैसा कि प्राचीन काल के जैन विचारकों ने किया था। परिमित परिग्रह' उनका आदर्श वाक्य था । जैन विचारको के अनुसार परिमित्त-परिग्रह का सिद्धान्त प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य रूप से आचरणीय था। सम्भवत भारतीय आकाश में समाजवादी समाज के विचारो का यह प्रथम उद्घोष था३५।" प्रत्येक आत्मा मे अनन्त शक्ति के विकास की क्षमता, आत्मिक समानता, क्षमा, मंत्री, विचारो का अनाग्रह आदि के बीज जैन-धर्म ने बोए थे। महात्मा गांधी का निमित्त पा, वे केवल भारत के ही नही, विश्व की राजनीति के क्षेत्र में पल्लवित हो रहे हैं। विस्तार और संक्षेप भगवान् महावीर की जन्म-भूमि, तपोभूमि और विहारभूमि बिहार था। इसलिए महावीर कालीन जैन-धर्म पहले बिहार मे पल्लवित हुआ। काल क्रम से वह बंगाल, उडीसा, उत्तरभारत, दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रान्त और राजपुताने में फैला। विक्रम की सहस्राब्दी के पश्चात् शैव,
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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