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________________ ५२] जैन परम्परा का इतिहास और कोई कर्म सूखी दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा का स्पर्श कर नीचे गिर जाता है-अलग हो जाता है। ___गोष्ठामाहिल ने यह सुना। वे आचार्य से कहने लगे-आत्मा और कर्म यदि एक रूप हो जाए तो फिर वे कभी भी अलग-अलग नही हो सकते । इसलिए यह मानना ही सगत है कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते है, उससे एकीभूत नही होते । वास्तव में वन्ध होता ही नही । आचार्य ने दोनो दशाओ का मर्म बताया पर उनने अपना आग्रह नही छोड़ा । आखिर उन्हें सघ से पृथक कर दिया। ____ जमाली, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल के सिवाय शेप निह्नव आ प्रायश्चित्त ले फिर से जैन-परम्परा में सम्मिलित हो गए। जो सम्मिलित नहीं हुए उनकी भी अव कोई परम्परा प्रचलित नहीं है। __ यंत्र देखिए : - जमाली कालमान कैवल्य के १४ वर्ष पश्चात् कैवल्य के १६ वर्प पश्चात् निर्वाण के ११४ वर्प पश्चात् आचार्य मत-स्थापन उत्पत्ति-स्थान | वहुरतवाद श्रावस्ती तिष्यगुप्त | जीवप्रादेशिक- , ऋषभपुर वाद | ( राजगृह) आपाढ- अव्यक्तवाद श्वेतविका शिप्य अश्वमित्र | सामुच्छेदिक- | मिथिला वाद गगक्रियवाद उल्लुकातीर रोहगुप्त राशिकवाद अन्तरजिका ( पडुलूक) गोष्ठामाहिल | अवद्धिकवाद | दशपुर निर्वाण के २२० वर्ष पञ्चात् (निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् निर्वाण के ५४४ वर्प पश्चात् निर्वाण के ६०६ वर्ष पश्चात् स्थानांग में सात निह्नवो का ही उल्लेख है । जिनभद्र गणी आठवें निह्नव वोटिक का उल्लेख और करते है, जो वस्त्र त्याग कर सघ से पृथक हुए थे ४० ।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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