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________________ २८] जैन परम्परा का इतिहास आध्यात्मिक जगत् मे ज्ञान, दर्शन, और शील की सगति ही जीवन है। भगवान् महावीर अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शनी और खेदज्ञ थे—यह है उनके यशस्वी जीवन का दर्शन। जो दूसरो के खेद को नही जानता, वह अपने खेद को भी नही जानता। जो दूसरो की आत्मा मे विश्वास नहीं करता, वह अपने आपमे भी विश्वास नहीं करता। भगवान् महावीर ने आत्मा को आत्मा से तोला। वे आत्म-तुला के मूर्त-दर्शन थे। उनने खेद सहा, किन्तु किसी को खेद दिया नही। इसलिए वे खेदज्ञ थे। उनकी खेदज्ञता से धर्म का अजस्र प्रवाह बहा । __ भगवान् महावीर का जीवन घटना-बहुल नही, तपस्या-बहुल है। वे दीर्घ तपस्वी थे। उनका जीवन-दर्शन धर्म का दर्शन है। धर्म उनकी वाणी का प्रवाह नही है । वह उनकी साधना से फूटा है। उनने देखा-ऊपर, नीचे और बीच मे सब जगह जीव है। वे चल भी है और अचल भी। वे नित्य भी है और अनित्य भी। आत्मा कभी अनात्मा नही होती, इसलिए वह नित्य है। पर्याय का विवर्त्त चलता रहता है, इसलिए वह अनित्य है। जन्म और मौत उसीके दो पहलू है। दोनो दुख है, दु ख का हेतु विषमता है। विषमता का बीज है-राग और द्वेष। भगवान् ने समता धर्म का निरूपण किया। उसका मूल है-वीतराग-भाव ।। भगवान् ने सबके लिए एक धर्म कहा। वडो के लिए भी और छोटो के लिए भी। भगवान् ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद आदि सभी वादो को जाना और फिर अपना मार्ग चुना२१ । वे स्वय-सम्बुद्ध थे । भगवान् निग्नन्थ बनते ही अपनी जन्म-भूमि से चल पड़े। हेमन्त ऋतु था । भगवान् के पास केवल एक देव-दूष्य वस्त्र था। भगवान् ने नहीं सोचा कि सर्दी मे मैं वह वस्त्र पहनूंगा। वे कष्ट-सहिष्णु थे। तेरह महीनो तक वह वस्त्र भगवान् के पास रहा। फिर उसे छोड भगवान् पूर्ण अचेल हो गए। वे पूर्ण असनही थे। काटने वाले कीड़े भगवान् को चार महीने तक काटते रहे। लहू पीते और मांस खाते रहे। भगवान् अडोल रहे। वे क्षमा-शूर थे।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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