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________________ १४० ] जैन परम्परा का इतिहास ५-आर्त्त-गवेषणता-आर्त व्यक्तियों की गवेषणा करना। ६-देश-कालज्ञता-देश और काल को समझ कर कार्य करना। ७-सर्वार्थ-प्रतिलोमता-सब अर्थों में प्रयोजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करना । सामाचारी श्रमण-सघ के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान है२१ । १-आवश्यकी-उपाश्रय से बाहर जाते समय आवश्यकी-आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ-कहे। २-नषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर आए तब नैषेधिकी-मैं निवृत्त हो चुका हूँ-कहे। ३-आपृच्छा-अपना कार्य करने की अनुमति लेना। ४–प्रतिपृच्छा-दूसरो का कार्य करने की अनुमति लेना। ५-छन्दना-भिक्षा मे लाए आहार के लिए सार्मिक साधुओ को आमंत्रित करना। ६-इच्छाकार-कार्य करने की इच्छा जताना, जैसे-आप चाहे तो मैं आपका कार्य करूं? ७-मिथ्याकार - भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना । ८-तथाकार-आचार्य के वचनो को स्वीकार करना । &-अभ्युत्थान-आचार्य आदि गुरुजनो के आने पर खड़ा होना, सम्मान करना। १०-उपसम्पदा-ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए गुरु के समीप विनीत भाव से रहना अथवा दूसरे साधुगणो में जाना । जैसे शिष्य का आचार्य के प्रति कर्तव्य होता है, वैसे ही आचार्य का भी शिष्य के प्रति कर्तव्य होता है। आचार्य शिष्य को चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति सिखा कर उऋग होता है :-- १-आचार-विनय २-श्रुत-विनय ३-विक्षेपणा-विनय और ४-दोषनिर्धात-विनय२२ ।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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