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________________ जैन परम्परा का इतिहास १४ ] अनासक्त योग भरत अब असहाय जैसा ही हो गया। भाई जैसा शब्द उसके लिए अर्थवान् नही रहा । वह सम्राट बना रहा किन्तु उसका हृदय अब साम्राज्यवादी नही रहा । पदार्थ मिलते रहे पर आसक्ति नही रही । वह उदासीन भाव से राज्य सचालन करने लगा । भगवान् अयोध्या आए । प्रवचन हुआ । एक प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा - "भरत मोक्षगामी है ।" एक सदस्य भगवान् पर बिगड गया और उन पर पुत्र के पक्षपात का आरोप लगाया । भरत ने उसे फांसी की सजा दे दी । वह घबड़ा गया । भरत के पैरों में गिर पडा और अपराध के लिए भरत ने कहा – तैल भरा कटोरा लिए सारे नगर में धूम आओ । बूँद नीचे न डालो तो तुम छूट सकते हो । दूसरा कोई विकल्प नही है । अभियुक्त ने वैसा ही किया। बड़ी सावधानी से नगर में घूम आया और सम्राट के सामने प्रस्तुत हुआ । क्षमा मांगी । तैल की एक सम्राट ने पूछा- - नगर में घूम आये ? जी हाँ । अभियुक्त ने सफलता के भाव से कहा । सम्राट - नगर में कुछ देखा तुमने ? अभियुक्त नही, सम्राट् ! कुछ भी नही देखा । सम्राट -कई नाटक देखे होगे ? अभियुक्त - जी, नही । मौत के सिवाय कुछ भी नही देखा ! सम्राट - कुछ गीत तो सुने होगे ? अभियुक्त - सम्राट की साक्षी से कहता हूँ । मौत की गुनगुनाहट के सिवाय कुछ भी नही सुना । सम्राट -- मौत का इतना डर ? अभियुक्त - -- सम्राट इसे क्या जाने ? यह मृत्यु दण्ड पाने वाला ही समझ सकता है । सम्राट—क्या सम्राट अमर रहेगा ? कभी नही । मौत के मुँह से कोई नही बच सकता । तुम एक जीवन की मौत से डर गए । न तुमने नाटक देखे और
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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