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________________ ६३ जैन परम्परा का इतिहास सस्कृत-लेखक भी उसी पद्धति का अनुसरण करते तो आज सस्कृत को मृत-भाषा की उपाधि न मिलती । यह सम्भव नहीं कि कोई भी भाषा जन-सम्पर्क से दूर रह कर चिरजीवी वन सके । कोरे साहित्यिक रूप मे रहने वाली भापा ज्यादा टिक नही सकती। ___ अनेक व्यक्तियो ने सस्कृत को उपेक्षा की नजर से देखा किन्तु समय-समय पर उन्हें भी इसको अपेक्षा रखनी पड़ी है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि सस्कृत में लोगो के श्रद्धा-स्पद धार्मिक विचारो का सग्रह और बहुत से स्तुत्यात्मक ग्रन्य है। आचार्य हेमचन्द्र ने परमार्हत राजा कुमारपाल के प्रात स्मरण के लिए वीतरागस्तव बनाया । उसका पाठ करते हुए भावुक व्यक्ति भक्ति-सरिता में गोते खाने लग जाते है। तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकऽस्म्यस्मि किङ्कर । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ नात पर ब्रवे० ॥ इस श्लोक मे भाचार्य हेमचन्द्र वीतराग के चरणो मे आत्म-समर्पण करके भार-मुक्त होना चाहते है । और कही पर यह कह बैठते है कि कल्याणसिद्ध य साधीयान्, कलिरेव कपोपल । विनाग्नि गन्ध-महिमा काकतुण्डस्य नैधते.१ ॥ वीतराग मे भक्ति-विभोर बन कर आचार्य हेमचन्द्र कलिकाल के कण्टो को भी भूल जाते है। काव्य के क्षेत्र मे भी जैनाचार्य पीछे नहीं रहे । त्रिपष्टिशलाका पुरुपचरित्र, शान्तिनाथ चरित्र, पद्मानन्द महाकाव्य और भरत-बाहुबलि आदि काव्य काव्यजगत् मे शीर्पस्थानीय है । उनकी टीकाएं न होने के कारण आज भी उनका प्रचार पर्याप्त नही है । वहुत मारे काव्य आज भी अप्रकाशित है, इसलिए लोग उनकी विशेषताओ से अपरिचित है। अष्टलक्षार्थी काव्य मे 'राजानो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरो के आठ लाख अर्थ किये गये है। इससे आचार्य ने दो तथ्य हमारे सामने रखे है-एक तो यह कि वर्णो मे अनन्त पर्याप्त है। दूसरा तथ्य यह कि सस्कृत मे एक ऐसा लचीलापन है कि जिससे वह अनेक विवर्ती (परिवर्तनो) को सह सकता है । सप्त-सन्धान काव्य मे बुद्धि की विलक्षणता है। वह मानस को आश्चर्य-विभोर किये देती है। प्रत्येक श्लोक में सात व्यक्तियो
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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