SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा का इतिहास [२३ समय जो सघ विद्यमान थे, उन सवो मे जैन साधु और सानियो का संघ सबसे वडा था। पार्श्व के पहले ब्राह्मणो के बड़े-बडे समूह थे, पर वे सिर्फ यन-याग का प्रचार करने के लिए ही थे । यज्ञ-याग का तिरस्कार कर उमका त्याग करके जगलो मे तपस्या करने वालो के सघ भी थे। तपस्या का एक अग समझ कर ही वे अहिंसा धर्म का पालन करते थे पर समाज मे उसका उपदेश नही देते थे। वे लोगो से बहुत कम मिलते-जुलते थे। बद्ध के समय जो श्रमण थे, उनका वर्णन आगे किया जायगा। यहाँ पर इतना ही दिखाना है कि बुद्ध के पहले यन-याग को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यन-याग से ऊब कर जगलो मे जाने वाले तपस्वी थे। वृद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी न थे-ऐमी वात नहीं है । पर इन दो प्रकार के दोपो को देखने वाले तीसरे प्रकार के भी सन्यासी थे और उन लोगो मे पार्व मुनि के शिप्यो को पहला स्थान देना चाहिए।' जैन परम्परा के अनुसार चातुर्याम धर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान् अजितनाथ और अन्तिम प्रवर्तक भगवान् पार्श्वनाय है। दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेईसवें तीर्थकर तक चातुर्याम धर्म का उपदेश चला। वेवल भगवान् ऋपभदेव और भगवान महावीर ने पच महावत धर्म का उपदेश दिया। निग्नन्य श्रमणो के सघ भगवान् ऋपभदेव से ही रहे है, किन्तु वे वर्तमान इतिहास की परिधि से परे है। इतिहास की दृष्टि से कौमम्बीजी को मप्रवद्धता सम्वन्धी धारणा सच भी है। भगवान् महावीर संसार जुआ है । उसे · खीचने वाले दो वैल है-जन्म और मौत । संसार का दूसरा पाश्र्व है-मुक्ति । वहाँ जन्म और मौत दोनो नही । वह अमृत है। वह अमरत्व की साधना का माध्य है। मनुष्य किमी साध्य की पूर्ति के लिए जन्म नही लेता । जन्म लेना ससार की अनिवार्यता है। जन्म लेने वाले मे योग्यता होती है, सस्कारो का संचय होता है। इसलिए वह अपनी योग्यता के अनुकूल अपना माव्य चुन लेता है । जिसके जैसा विवेक, उसके वैसा ही साध्य
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy