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________________ जैन परम्परा का इतिहास [१०३ आचार्य श्री तुलसी की राजस्थानी मे अनेक रचनाए है। उनमे कालू यशोविलास प्रमुख कृति है । उसमे अपने गुरुदेव कालगणी के जीवन का सांगोपांग वर्णन है। उसका एक प्रसंग यह है : मेवाड के लोग श्रीकालुगणी को अपने देश पधारने की प्रार्थना करने आये है। उनके हृदय मे बडी तडफ है। उनकी अन्तर-भावना का मेवाड़ की मेदिनी मे आरोप कर आपने बडा सुन्दर चित्रण किया है : 'पतित-उधार पधारिए, सगे सवल लहि थाट । भेदपाट नी मेदिनी, जोवे खडि-खड़ि बाट ॥ सघन शिलोच्चयनै मिषे, ऊचा करि-करि हाथ । चंचल दल शिखरी मिषे, दे झाला जगनाथ ॥ नयणां विरह तुमारडे, झरै निझरणा जास । भ्रमराराव भ्रमे करी, लह लांवा निःश्वास ॥ कोकिल कूजित व्याज थी, तिराज उडावै काग । अरघट खट खटका करी, दिल खटक दिखावै जाग ॥ मैं अचला अचला रही, किम पहुचै मम सन्देश । इम झुर झुर मनु झूरणा, सकोच्यो तनु सुविशेष"९३॥ इसमे केवल कवि-हृदय का सारस्य ही उद्वेलित नही हुआ है, किन्तु इसे पढते-पढते मेवाड के हरे-भरे जगल, गगनचुम्बी पर्वतमाला, निर्भर, भवरे, कोयल, घड़ियाल और स्तोकभूभाग का साक्षात् हो जाता है। मेवाड़ की ऊंची भूमि मे खड़ी रहने का, गिरिशृङ्खला मे हाथ ऊंचा करने का, वृक्षो के पवन-चालित दलो मे आह्वान करने का, मधुकर के गुञ्जारव मे दीर्घोष्ण निश्वास का, कोकिल-कूजन मे काक उडाने का आरोपण करना आपकी कवि-प्रतिभा की मौलिक सूझ है। रहट की घडियो में दिल की टीस के साथ-साथ रात्रिजागरण की कल्पना से वेदना मे मार्मिकता आ जाती है। उसका चरम रूप अन्तर्जगत् मे न रह सकने के कारण वहिर्जगत् में आ साकार बन जाता है। उसे कवि-कल्पना सुनाने की अपेक्षा दिखाने में अधिक सजीव हुई है। अन्तर्व्यथा से पीडित मेवाड की मेदिनी का कृश शरीर वहाँ की भौगोलिक स्थिति का सजीव चित्र है।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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