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________________ ३०) जैन परम्परा का इतिहास भगवान् ने विजातीय तत्त्वो (पुद्गल-आसक्ति ) को न शरण दी और न उनकी शरण ली । वे निरपेक्ष भाव से जीते रहे । निरपेक्षता का आधार वैराग्य-भावना है । रक्त-द्विष्ट आत्मा के साथ अपेक्षाएँ जुडी रहती है। अपेक्षा का अर्थ है --दुर्बलता । व्यक्ति का सबल और दुर्बल होने का मापदण्ड अपेक्षाओं की न्यूनाधिकता है। भगवान् श्रमण बनने से दो वर्ष पहले ही अपेक्षाओ को ठुकराने लगे। सजीव पानी पीना छोड दिया, अपना अकेलापन देखने लग गए, क्रोध, मान, माया और लोभ की ज्वाला को शान्त कर डाला। सम्यग-दर्शन का रूप निखर उठा। पौद्गलिक आस्थाए हिल गई । भगवान् ने मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और चर जीवो का अस्तित्व जाना । उन्हे सजीव मान उनकी हिसा से विलग हो गए | अचर जीव दूसरे जन्म मे चर और चर जीव दूसरे जन्म मे अचर हो सकते है । राग-द्वेष से बधे हुए सब जीव सब प्रकार की योनियो मे जन्म लेते रहते है। यह संसार रग-भूमि है। इसमे जन्म-मौत का अभिनय होता रहता है । भगवान् ने इस विचित्रता का चिन्तन किया और वे वैराग्य की दृढ भूमिका पर पहुँच गए । भगवान ने ससार के उपादान को ढूढ निकाला। उसके अनुसार उपाधि परिग्रह से बधे हुए जीव ही कर्म-बद्ध होते है। कर्म ही ससार-भ्रमग का हेतु है । वे कर्मो के स्वरूप को जान उनसे अलग हो गए। भगवान् ने स्वय अहिसा को जीवन में उतारा। दूसरो को उसका मार्ग-दर्शन दिया । वासना को सर्व कर्म-प्रवाह का मूल नान भगवान् ने स्त्री-सग छोडा । अहिंसा और ब्रह्मचर्य-ये दोनो साधना के आधारभूत तत्त्व है । अहिसा अवैर साधना है । ब्रह्मचर्य जीवन को पवित्रता है। अवैर भाव के बिना आत्म साम्य की अनुभूति और पवित्रता के बिना विकास का मार्ग-दर्शन नहीं हो सकता । इसलिए भगवान् ने उन पर बडी सूक्ष्म दृष्टि से मनन किया। भगवान् ने देखा-बन्ध कर्म से होता है। उनने पाप को ही नहीं, उसके मूल को ही उखाड फेंका।
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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