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________________ ४६] जैन परम्परा का इतिहास पढे । विचित्र तप-कर्म - उपवास, बेला, तेला यावत्' अर्द्ध मास और मास की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगा। एक दिन की बात है, ज्ञानी और तपस्वी जमाली भगवान् महावीर के पास आया। वन्दना की, नमस्कार किया और बोला-भगवन् । मैं आपकी अभ्यनुज्ञा पा कर पाँच सौ निग्नन्थो के साथ जनपद विहार करना चाहता हूँ। भगवान् ने जमाली की बात सुनली । उसे आदर नही दिया । मौन रहे । जमालो ने दुबारा और तिबारा अपनी इच्छा को दोहराया। भगवान् पहले की भॉति मौन रहें । जमाली उठा । भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया। बहुशाला नामक चैत्य से निकला। अपने साथी पाँच सौ निग्नन्यो को ले भगवान से अलग विहार करने लगा। श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य मे जमाली ठहरा हुआ था। सयम और तप की साधना चल रही थी। निग्न न्य-शासन की कठोरचर्या और वैराग्यवृद्धि के कारण वह अरस-विरस, अन्त-प्रान्त, रूखा-सूखा, कालातिक्रान्त, प्रमाणातिक्रान्त आहार लेता। उससे जमाली का शरीर रोगातक से घिरा गया। उज्ज्वल - विपुल वेदना होने लगी। कर्कश-कटु दु.ख उदय मे आया। पित्तज्वर से शरीर जलने लगा। घोरतम वेदना से पीड़ित जमाली ने अपने साधुओ से कहा-देवानुप्रिय । बिछौना करो। साधुओ ने विनयावनत हो उसे स्वीकार किया। बिछौना करने लगे। वेदना का वेग बढ रहा था। एक-एक पल भारी हो रहा था। जमाली ने अधीर स्वर से पूछा-मेरा बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो? श्रमणो ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय । आपका बिछौना किया नही, किया जा रहा है। दूसरी बार फिर पूछा-देवानुप्रिय । बिछौना किया या कर रहे हो ? श्रमण निग्नन्थ होले-देवानुप्रिय ! आपका बिछौना किया नही, किया जा रहा है। इस उत्तर ने वेदना से अधीर बने जमाली को चौका दिया। शारीरिक वेदना की टक्कर से सैद्धान्तिक धारणा हिल उठी। विचारो ने मोड़ लिया । जिमाली सोचने लगा--भगवान् चलमान को चलित, उदीर्यमाण को उदरित यावत् नि|र्यमाण को निर्जीर्ण कहते है, वह मिथ्या है। यह सामने दिख रहा है । मैरा बिछौना बिछाया जा रहा है, किन्तु बिछा नही है । इसलिए क्रियमाण अकृत, सस्तीर्णमाण असंस्तृत है
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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