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________________ जैन परम्परा का इतिहासे । ७५ प्रतिक्रिया आगमो के लिपि-बद्ध होने के उपरान्त भी एक विचारधारा ऐसी रही कि साधु पुस्तक लिख नही सकते और अपने साथ रख भी नही सकते । पुस्तक लिखने और रखने में दोष बताते हुए लिखा है। १-अक्षर लिखने मे कुन्थु आदि त्रस जीवो की हिसा होती है, इसलिए पुस्तक लिखना सयम विराधना का हेतु है३' । २-पुस्तको को नामान्तर ले जाते हुए कधे छिल जाते है, व्रण हो जाते है। ३-उनके छेदो की ठीक तरह 'पडिलेहना' नही हो सकती। ४-मार्ग में भार बढ़ जाता है । ५-वे कुन्यु आदि जीवो के आश्रय होने के कारण अधिकरण है अयवा चोर आदि से चुराये जाने पर अधिकरण हो जाते है । ६-तीर्थकरो ने पुस्तक नामक उपधि रखने की आज्ञा नही दी है । ७-उनके पास मे होते हुए सूत्र-गुणन में प्रमाद होता है-आदि-आदि । साधु जितनी बार पुस्तको को बांधते है, खोलते है और अक्षर लिखते है उन्हें उतने ही चतुर्लघुको का दण्ड आता है और भाज्ञा आदि दोष लगते है४० । आचार्य भिक्षु के समय भी ऐसी विचारधारा थी । उन्होने इसका खण्डन भी किया है। कल्प्य-अकल्ल्य-मीमांसा आगम सूत्रो मे साधु को न तो लिखने की स्पष्ट शब्दो मे आज्ञा ही है और न निषेव भी किया है। लिपि की अनेक स्थानो मे चर्चा होने पर साधु लिखते थे, इसकी कोई चर्चा नही मिलती। साधु के लिए स्वाध्याय और ध्यान का विधान किया है। उसके साथ लिखने का विधान नहीं मिलता। ध्यान कोष्ठोपगत, स्वाव्याय और सद्ध्यान रक्त आदि पदो की भांति-'लेख रक्त' आदि शब्द नही मिलते४२ । साधु की उपघि-सख्या मे भी लेखन सामग्नी के किसी उपकरण का उल्लेख नही मिलता । ये सब पुराकाल मे 'जैन साधु नही लिखते थे'इसके पोषक है । ऐसा एक मन्तव्य है। फिर भी उनको लिखने का कल्प नही था -ऐसा उनके आधार पर नहीं कहा जा सकता । इनमें एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है । वह है उपवि को सख्या । कई आचार्यों का १४ उपधि से अधिक उपधि न रखने का आग्रह था। आचार्य भिक्षु ने इसके प्रतिकार में यह बताया
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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