Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ जैन परम्परा का इतिहास । १६५ ३-चत्तारि समीरिणाणिमाणि, पावादुया जाई पुढो वयति । किरिथ अफिरिय विणियति तइय, अन्नाणमाहसु चउत्यमेव ॥ सू० १।१२।१ ४-दी० २ ५-इन छह सघो मे एक सघ का आचार्य पूरण कश्यप था । उसका कहना था कि "किसी ने कुछ किया या करवाया, काटा या कटवाया, तकलीफ दी या दिलवाई, शोक किया या करवाया, कष्ट सहा या दिया, डरा या दूसरे को डराया, प्राणी की हत्या की, चोरी की, डकैती की, घर लूट लिया, वटमारी की, परस्त्रीगमन किया, असत्य वचन कहा, फिर भी उसको पाप नही लगता । तीक्ष्ण धार के चक्र से भी अगर कोई इस संसार के सब प्राणियो को मारकर ढेर लगा दे तो भी उसे पाप न लगेगा। गगा नदो के उत्तर किनारे पर जाकर भी कोई दान दे या दिलवाए, यज्ञ करे या करवाए, तो कुछ भी पुण्य नही होने का । दान, धर्भ संयम सत्य भाषण, इन सवो से पुण्य-प्राप्ति नहीं होती।" इस पूरण कश्यप के बाद को अक्रियवाद कहते थे। दूसरे संघ का आचार्य मक्खलि गोसाल था । उसका कहना था कि "प्राणी के अपवित्र होने में न कुछ हेतु है न कुछ कारण । विना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी अपवित्र होते है । प्राणी की शुद्धि के लिए भी कोई हेतु नही है, कुछ भी कारण नहीं है । विना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी शुद्ध होते है । खुद अपनी या दूसरे की शक्ति से कुछ नही होता । बल, वीर्य, पुरुषार्थ या पराक्रम, यह सब कुछ नही है । सब प्राणी बलहीन और निवीर्य है-वे नियति ( भाग्य ) संगति और स्वभाव के द्वारा परिणत होते है-अक्लमन्द और मूर्ख सवो के दुखो का नाश ८० लाख के महाकल्पो के फेर में होकर जाने के बाद ही होता है।" इस मक्खलि गोसाल के मत को सपार-शुद्धि-बाद कहते थे । इसो को नियतिवाद भी कह सकते है । तीसरे सब का प्रमुख अजित केस कवली था। उसका कहना था कि "दान यज्ञ, तया होम, यह सब कुछ नही है, भले-बुरे कर्मो का फल नही मिलता, न इहलोक है न परलोक-चार भूतो से मिलकर मनुष्य बना है । जब वह मरता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183