Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 177
________________ जैन परम्परा का इतिहास | [ १६७ "परलोक है या नहीं, यह मैं नही समझता। परलोक है यह भी नही, परलोक नही है, यह भी नही।"अच्छे या बुरे कर्मो का फल मिलता है, यह भी मैं नहीं मानता, नही मिलता, यह भी मैं नहीं मानता, वह रहता भी है, नही भी रहता । तथागत मृत्यु के बाद रहता है या रहता नहीं, यह मैं नही समझता । वह रहता है यह भी नही, वह नही रहता, यह भी नही ।" इस सजय वेलट्ठ पुत्र के वाद को विक्षेपवाद कहते थे। ~भा० स० अ० पृ० ४६ ११--किरियाकिरिय वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाण पडियञ्च ठाण । से सब वायं इति वेयइत्ता, उबट्ठिए संजम दोहराय ॥ - सू० १।६।२७ १२-से वेमि जे य अतीता जे य पड्ड पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहता भगवता सवे ते एव-माइक्खति एव भासति एव पण्णवेति एव पस्वेति-सवे पाणा जाव सत्ता पा हतन्वा ण अजावेयव्वा ण परिघेतबा ण परितावैयबा ण उद्दवेयन्वा । एस धम्मेद्य वे णीइए सासर समिञ्च लोग खेयन्नेहि पवेदए । सू०२।१।१६ १३-सू० ११११७- १४~सू० २११६-१० १५ -मू० ११११११-१२ १६ - सू० १२११५१३-१४ १७-सू० ११०१५-१६ १८-सू० २११।२-४ १६-सू० ११३५ २०-~भग० २५१७८०२, स्था० ७।३।५८५, ओप० ( तवोधिकार ) २१-उत्त० २६।२-७ २२-दगा० (चतुर्थी दशा ) २३-धर्म स० २ श्लोक २२ टीका पृ० ४६, प्र० सा. १४८ गाथा १४१ २४-दशा० ( चतुर्थी दगा ) २५-दशव० चूर्णि २।१२

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