Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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जैन परम्परा का इतिहास ३६ - दृष्टिवाद के एक बहुत बड़े भाग की संज्ञा "चतुर्दश-पूर्व है। उसके
ज्ञाता को 'श्रुत-केवली कहते है। ४०-देखो जैन० द० इ० पृ० १८०.१६० ४१-समणस्सणं भगवओ महावीरस्स तिथंसि सत्त पवतण निण्हगा पन्नता
तंजहा बहुरता, जीवपएसिआ, अवत्तिया सामुच्छेइत्ता, दो किरिया, तेरासिया, अबद्धिया एएसि णं सत्तण्ह पवयणनिण्हगाण सत्त धम्मायरिया हुत्या-तजहा-जमालि तीसगुत्ते, आसाढे, आसमिते, गगे, छलुए गोट्ठामाहिले, -एत्तेसि णं सत्तण्ह पवयश निण्हगाणं सत्तपत्ति नगरा हुत्या तंजहा-सावत्थी, उसमपुरं सेतविता, मिहिला, मुल्लगातीरं,
पुरिमतरंजि, दसपुर निण्हग उत्पत्ति नगराई-स्था० ७५८७ ४२--वि० भा० २५५०-२६०२ ४३-कल्प० २८ ४४-कल्प० १६३ ४५-जं पि वत्थं व पायं वा, कम्बल पायपुञ्छणं ।
तं पि संजम-लज्जट्ठा, धारंति परिहरति य ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा ॥ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वृत्त महेसिणा ॥ सम्वत्थुवहिणा बुद्धा, सरक्षण परिग्गहे । अव अप्पणो वि देहम्मि नायरति ममाइयं ॥
-दश वै० ६।२०,२१,२२ ४६-त० सू० ७१२ ४७-गण-परमोहि-पुलाए, आहारग खग-उवसमे कप्पे । सजम-तिय केवलि-सिज्मणाय जबुम्मि बुच्छिन्ना ॥
-वि० भा० २५६३ ४९-षट् प्रा० पृ० ६७ ४६-जो वि दुवत्थ तिषत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ ।
ण हु ते हीलंति परं, सब्वे पि य ते जिणाशाए, ॥१॥

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