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जैन परम्परा का इतिहास
क्षेत्रों में यदि इस तरह का व्यापक प्रचार हो तो आशा की जाती है कि मृत कही जाने वाली संस्कृत भाषा अमृत बन जाय ।
शान्त रस के आस्वाद के साथ अब मैं इस विषय को पूरा कर रहा हूँ । गोति-काव्य की मधुर-लहरियाँ सुनने से सिर्फ कानो को ही तृप्त नही करती बल्कि देखने से आँखो मे भी अनूठा उल्लास भर देती है ।
शत्रुजनाः सुखिन समे, मत्सरमपहाय, सन्तु गन्तु मनसोत्यमी, शिवसौख्यगृहाय । सकृदपि यदि समतालवं हृदयेन लिहन्ति विदित सारतत इह रति, स्वत एव वहन्ति ७६ ॥
प्रादेशिक साहित्य
दिगम्बर आचार्यो का प्रमुख विहार क्षेत्र दक्षिण रहा । दक्षिण की भाषाओ में उन्होने विपुल साहित्य रचा ।
कन्नड भाषा में जैन कवि पोन्न का शान्तिपुराण, पप का आदिपुराण और पम्पभारत आज भी बेजोड़ माना जाता है । रत्न का गदा-युद्ध भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । ईसा की दसवी शती से १६ वी शती तक जैन महर्षियों ने काव्य, व्याकरण, शब्द कोष, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयो पर अपने ग्रन्थ लिखे और कर्णाटक- संस्कृति को पर्याप्त समृद्ध बनाया । दक्षिण भारत की पांच द्राविडभाषाओं में से कन्नड़ एक प्रमुख भाषा है । उसमे जैन साहित्य और साहित्यकार आज भी अमर है७७ । तामिल भी दक्षिण की प्रसिद्ध भाषा है । इसका जैनसाहित्य भी बहुत समृद्ध है । इसके पाँच महाकाव्यो मे से तीन महाकाव्य चिन्तामणि, सिलप्पडिकारम् और वलेतापति - जैन कवियो द्वारा रचित है । नन्नो तामिल का विश्रुत व्याकरण है । कुरल और नालदियार जैसे महान् ग्रन्थ भी जैन महर्षियो की कृति है । गुजराती साहित्य
उत्तर भारत श्वेताम्बर आचार्यों का भाषाओ मे दिगम्बर-साहित्य प्रचुर है । वह कम है । आचार्य हेमचन्द्र के समय से
विहार क्षेत्र रहा। उत्तर भारत की पर श्वेताम्बर - साहित्य की अपेक्षा गुजरात जैन साहित्य और संस्कृति
से प्रभावित रहा है । आनन्दघनजी, यशोविजयजी आदि अनेक योगियो व