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जैन परम्परा का इतिहास
दुर्गति की दलना अब भी हो रहूँ
पायो । प्रतीरे,
घ्यावे यो धृति घर धीरे ॥
यह मिल्यो सखा हितकारी, उत्तएँ अघ की भारी । नहिं द्वेप-भाव
दिल लाऊँ,
कैवल्य पलक मे पाऊँ ॥
जाऊँ,
पहुँचाऊँ ।
प्राचीरे,
प्रक्षय हो भव घ्यावे यो धृत घर घीरे ॥
सच्चिदानन्द बन
लोकान स्थान
नहिं मरू नकबही जन्मू, कहिं परून जग झंझट में । फिर जरूँ न आग-लपट मे,
र पड ून प्रलय झपट में ॥ दुनियां के दारुण दुख में, धधकत शोकानल धुक नहिं धुकू सहाय
में ।
सभी रे,
घ्यावे यो धृति घर घीरे ॥
-
मे,
नहिं वहूँ सलिल स्रोतो नहि रहूँ भन्न पोतो में,
नहिं जहूँ रूप
नहि लहूँ कप्ट
नहिं छिदू घार
मैं म्हारो,
मतो में ॥
तलवारां,