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जैन परम्परा का इतिहास
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समय में तैयार की गई थी । वास्तव मे मथुरा में जैन मूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है । श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुगकालीन कला मुख्यत जैन-सम्प्रदाय की है५७ ।
खण्डगिरि और उदयगिरि मे ई० पू० १८८-३० तक की शुग-कालीन मूर्ति - गिल के अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते है । वहाँ पर इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाए है, जिनमे मूर्ति - शिल्प भी है। दक्षिण भारत के अलगामले नामक स्थान मे खुदाई से जो जैन-मूर्तिया उपलब्ध हुई है, उनका समय ई० पू० ३००-२०० के लगभग बताया जाता है । उन मूर्तियो की सौम्याकृति द्राविडकला में अनुपम मानी जाती है | श्रवण वेलगोला की प्रसिद्ध जैन- मूर्ति तो ससार की अद्भुत वस्तुओं में से है । वह अपने अनुपम सौन्दर्य और अद्भुत शान्ति से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । यह विश्व को जैन मूर्ति कला की अनुपम देन है ।
मौर्य और शुंग काल के पश्चात् भारतीय मूर्ति - कला की मुख्य तीन धाराएँ है :
(१) गांवार - कला - जो उत्तर-पश्चिम मे पनपी ।
(२) मथुरा- कला - जो मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रो में विकसित हुई ।
(३) अमरावती की कला - जो कृष्णा नदी के तट पर पल्लवित हुई । जैन मूर्ति कला का विकास मथुरा कला से हुआ ।
जैन स्थापत्य कला के सर्वाधिक प्राचीन अवशेष उदयगिरि, खण्ड गिरि एव जूनागढ की गुफाओ मे मिलते है |
उत्तरवर्ती स्थापत्य की दृष्टि से चित्तोड का कीर्ति स्तम्भ, आवू के मन्दिर एव राणकपुर के जैन मन्दिरो के स्तम्भ भारतीय शैली के रक्षक रहे है ।