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जैन परम्परा का इतिहास वैसे चौथे पहर भी करे३२, यह मुनि की जागरुकतापूर्ण जीवन-चर्या है । श्रावक-संघ
धर्म की आराधना मे जैसे साधु-साध्विॉ संघ के अंग है, वैसे श्रावकश्राविकाएं भी है। ये चारो मिलकर ही चतुर्विध-संघ को पूर्ण बनाते हैं। भगवान् ने श्रावक-श्राविकाओ को साधु-साध्वियों के माता-पिता तुल्य कहा है।
श्रावक की धार्मिक चर्या यह है :१-सामायिक के अगों का अनुपालन । २-दोनों पक्षों में पौषधोपवास३४ ।
आवश्यक कर्म जैसे साधु-संघ के लिए है, वैसे ही श्रावक-सघ के लिए भी हैं। श्रावक के छह गुण
देश विरति चारित्र का पालन करने वाला श्रद्धा-सम्पन्न-व्यक्ति श्रावक कहलाता है । इसके छह गुण है :
१-व्रतो का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान । व्रतों का अनुष्ठान चार प्रकार से होता है(क) विनय और बहुमान पूर्वक व्रतो को सुनना। (ख) व्रतो के भेद और अतिचारो को सांगोपांग जानना ।
(ग) गुरु के समीप कुछ काल के लिए अथवा सदा के लिए व्रतों को स्वीकार करना।
(घ) ग्रहण किये हुए व्रतों को सम्यग् प्रकार पालना। २-शील ( आचार )- इसके छह प्रकार है :
(क) जहाँ बहुत से शीलवान् बहुश्रुत साधर्मिक लोग एकत्र हो, उस स्थान को आयतन कहते है, वहाँ आना-जाना रखना।
(ख) बिना कार्य दूसरे के घर न जाना। (ग) चमकीला-भड़कीला वेष न रखते हुए सादे वस्त्र पहनना। (घ) विकार उत्पन्न करने वाले वचन न कहना । (ड) बाल-क्रीड़ा अर्थात् जुआ आदि कुव्यसनो का त्याग करना।