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जैन परम्परा का इतिहास
[१३६ उन्होने प्राचीन परम्पराओ को आगे बढ़ाया। अपने सम सामयिक विचारो को परीक्षा की और उनके आलोक में अपने अभिमत जनता को समझाए। उनके विचारों का आलोचना पूर्वक विवेचन सूत्र कृतांग में मिलता है। वहाँ पच महाभूतवाद' ३, एकात्मवाद १४, तज्जीवतच्छरीरवाद'५, अकारकवाद'६, पष्ठात्मवाद१७, नियतिवाद१८, सृष्टिवाद ९, कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद, प्रकृतिवाद आदि अनेक विचारो की चर्चा और उन पर भगवान् का दृष्टिकोण मिलता है। संघ-व्यवस्था और संस्कृति का उन्नयन ___ संस्कृति की सावना अकेले में हो सकती है पर उसका विकास अकेले मे नही होता, उसका प्रयोजन ही नही होता, वह समुदाय में होता है । समुदाय मान्यता के वल पर बनते है। असमानताओ के उपरान्त भी कोई एक समानता आती है और लोग एक भावना मे जुड़ जाते है। __ जैन मनीपियो का चिन्तन साधना के पक्ष मे जितना वैयक्तिक है, उतना ही साधना-सस्थान के पक्ष मे सामुदायिक है। जैन तीर्थकरो ने धर्म को एक ओर वैयक्तिक कहा, दूसरी ओर तीर्थ का प्रवर्तन किया-श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविकाओं के सघ की स्थापना की।
जैन साहित्य में चर्या या सामाचारी के लिए 'विनय' शब्द का प्रयोग होता है। उत्तराव्ययन के पहले और दशवकालिक के नवे अध्ययन मे विनय का सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया गया है। विनय एक तपस्या है। मन, वाणी और शरीर को सयत करना विनय है, वह सस्कृति है। इसका वाह्य रूप लोकोपचार विनय है। इसे सभ्यता का उन्नयन कहा जा सकता है। इसके सात रूप है -
१- अभ्यासवर्तिता-अपने वडो के समीप रहने का मनोभाव । २-परछन्दानुवर्तिता-अपने वडो की इच्छानुसार प्रवृत्ति करना ।
३-कार्य-हेतु-गुरु के द्वारा दिये हुए ज्ञान आदि कार्य के लिए उनका सम्मान करना ।
४-कृतप्रतिकर्तृता-कृतज्ञ होना, उपकार के प्रति कुछ करने का मनोभाव रखना।