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जैन परम्परा का इतिहास
आत्मा के अकर्तृत्वाद, मायावाद, बन्ध्यवाद या नियतवाद - - इन सबको
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अक्रियावाद कहा है
नियतिवाद की चर्चा भगवती ( १५ ) और उपासक दशा
मिलती है ।
।
७ ) में
अन्योन्यवाद सब पदार्थो को बन्ध्य और नियत मानता है, इसलिए उसे अक्रियावाद कहते हैं । इनका वर्णन इन शब्दो मे है -सूर्य न उदित होता है और न अस्त होता है, ७ चन्द्रमा न बढता है न घटता है, जल प्रवाहित नही होता है, वायु नही बहती है—यह समूचा लोक बन्ध्य और नियत है ।
विक्षेपवाद का समावेश अज्ञानवाद मे होता है । सूत्र कृतांग के अनुसार - "अज्ञानवादी तर्क करने में कुशल होने पर भी असबद्धभाषी है । क्योकि वे स्वयं सन्देह से परे नही हो सके है । यह सजयवेलट्ठपुत्र के अभिमत की ओर सकेत है ।
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भगवान् महावीर क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद की समीक्षा करते हुए दीर्घकाल तक सयम मे उपस्थित रहे ' ' । भगवान् ने क्रियावाद का मार्ग चुना । उनका आचार आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म और मुक्ति के सिद्धान्त पर स्थिर हुआ । उनकी संस्कृति को हम इसी कसौटी पर परख सकते है ।
कुछेक विद्वानो की चिन्तनधारा यह है कि यज्ञ आदि कर्मकाण्डों के विरोध मे जैन धर्म का उद्भव हुआ । यह श्रमपूर्ण है । अहिंसा और संयम जैन - सस्कृति का प्रधान सूत्र है । उसकी परम्परा भगवान् महावीर से बहुत ही पुरानी है । भगवान् ने अपने समय की बुराईयो व अविवेकपूर्ण धार्मिक क्रियाकाण्डो पर हिंसा प्रधान यज्ञ, जातिवाद, भाषावाद, दास प्रथा आदि पर तीव्र प्रहार किया किन्तु यह उनकी अहिंसा का समग्र रूप नही है । यह केवल उसकी सामयिक व्याख्या है । उन्होने अहिंसा की जो शाश्वत व्याख्या दी उसका आधार संयम की पूर्णता है । उसका सम्बन्ध उन्होने उसी से जोड़ा है जो पार्श्वनाथ आदि सभी तीर्थकरो से प्रचारित की गई १२ ।
भारतीय संस्कृति वैदिक और प्राग्वैदिक दोनो धाराओ का मिश्रत रूप है | श्रमण संस्कृति प्राग् वैदिक है । भगवान् महावीर उसके उन्नायक थे ।