Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 125
________________ जैन परम्परा का इतिहास [ ११५ भी शुभ कर्म करने चाहिए। यह सोच राज्य पुत्र को सौपा । स्वय दिशाप्रोक्षित तापस बन गया। दो-दो उपवास की तपस्या करता और पारणा मे पेड़ से गिरे हुए पत्तों को खा लेता, इस प्रकार की चर्या करते हुए उसे विभग अववि-ज्ञान उत्पन्न हुना। उससे उसने सात द्वीप और सात समुद्रो को देखा। यह विश्व सात द्वीप और सात समुद्र प्रमाण है, इसका जनता में प्रचार किया। भगवान् के प्रधान शिष्य गौतम भिक्षा के लिए जा रहे थे। लोगो मे शिव राजपि के सिद्धान्त की चर्चा सुनी। वे भिक्षा लेकर लौटे। भगवान् से पूछा-भगवन् ! द्वीप-समुद्र कितने है ? भगवान् ने कहा- असत्य है। गौतम ने उसे प्रचारित किया। यह वात शिव राजर्पि तक पहुंची। वह सदिग्ध हुमा और उसका विभग अवधि लुप्त हो गया। वह भगवान् के समीप आया, वार्तालाप कर भगवान् का शिष्य बन गया' ८ ।। उदायन सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदो का अधिपति था। दस मुकटवद्ध राजा इसके आधीन थे। भगवान् महावीर लम्बी यात्रा कर वहाँ पधारे । राजा ने भगवान् के पास मुनि-दीक्षा ली। वाराणसी के राना शख के बारे में कोई विवरण नही मिलता। अन्तकृद् दशा के अनुसार भगवान ने राजा अलक को वाराणसी में प्रव्रज्या दी थी। सभव है यह उन्ही का दूसरा नाम है । उस युग मे शासक-सम्मत धर्म को अधिक महत्त्व मिलता था। इसलिए राजाओ का धर्म के प्रति आकृष्ट होना उल्लेखनीय माना जाता। जैन-धर्म ने समाज को केवल अपना अनुगामी बनाने का यत्न नहीं किया, वह उसे व्रती बनाने के पक्ष पर भी बल देता रहा । शाश्वत सत्यों की आराधना के साथसाथ समाज के वर्तमान दोपों से बचने के लिए भी जैन-श्रावक प्रयत्नशील रहते थे। चारित्रिक उच्चता के लिए भगवान् महावीर ने जो आचार-सहिता दी, वह समाज में मानसिक स्वास्थ्य का वातावरण बनाए रखने में सक्षम है । वारह व्रतो के अतिचार इस दृष्टि से माननीय है२९ । स्थल प्राणातिपात-विरमण-व्रत के पाँच प्रधान अतिचार है, जिन्हें श्रमणोपासक को जानना चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं :-(१) बन्धन-बन्धन से बांधना ( २) वध-पीटना (३) छवि

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