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जैन परम्परा का इतिहास कैसे संगत हो सकता है कि यज्ञों में जिनका नियमित कार्य था पशु-हत्या करना, उन ब्राह्मणों में हत्या न करने का विचार उठा होगा? ब्राह्मणों ने अहिंसा का उपदेश जैनो से ग्रहण किया होगा, इस विचार की ओर संकेत करने के पर्याप्त कारण है।
हत्या न करने और कष्ट न पहुँचाने के उपदेश की स्थापना मानव के आध्यात्मिक इतिहास मे महानतम अवसरो में से एक है। जगत् और जीवन के प्रति अनासक्ति और कार्य-त्याग के सिद्धान्त से प्रारम्भ होकर प्रचीन भारतीय विचारधारा इम महान् खोज तक पहुँच जाती है, जहाँ आचार की कोई सीमा नहीं। यह सब उस काल मे हुआ जब दूसरे अचलो में आचार की उतनी अधिक उन्नति नही हो सकी थी। मेरा जहाँ तक ज्ञान है जैन-धर्म मे ही इसकी प्रथम स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई।४।। ___सामान्य धारणा यह है कि जैन-सस्कृति निराशावाद या पलायनवाद की प्रतीक है। किन्तु यह चिन्तन पूर्ण नहीं है । जैन-संस्कृति का मूल तत्त्ववाद है। कल्पनावाद में कोरी आशा होती है। तत्त्ववाद मे आशा और निराशा का यथार्थ अकन होता है। ऋग्वेद के गीतों में वर्तमान भावना आशावादी है। उसका कारण तत्त्व-चिन्तन की अल्पता है । जहाँ चिन्तन को गहराई है वहाँ विषाद की छाया पाई जाती है। उषा को सम्बोधित कर कहा गया है कि वह मनुष्य-जीवन को क्षीण करती है४५ । उल्लास और विषाद विश्व के यथार्थ रूप है । समाज या वर्तमान के जीवन की भूमिका में केवल लल्लास की कल्पना होती है। किन्तु जब अनन्त अतीत और भविष्य के गर्भ मे मनुष्य का चिन्तन गतिशील होता है, समाज के कृत्रिम बन्धन से उन्मुक्त हो जब मनुष्य 'व्यक्ति' स्वरूप की ओर दृष्टि डालता है, कोरी कल्पना से प्रसूत आशा के अन्तरिक्ष से उतर वह पदार्थ की भूमि पर चला जाता है, समाज और वर्तमान की वेदी पर खड़े लोग कहते है - यह निराशा है, पलायन है । तत्त्व-दर्शन की भुमिका में से निहारने वाले लोग कहते हैं कि यह वास्तविक आनन्द की ओर प्रयाण है। पूर्व औपनिषदिक विचारधारा के समर्थको को ब्रह्मद्विष (वेद से घृणा करने वाले ) देवनिन्द (देवताओ की निन्दा करने वाले ) कहा गया । भगवान पार्श्व उसी परम्परा के ऐतिहासिक व्यक्ति है। इनका समय हमें उस