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जैन परम्परा का इतिहास (३) धर्म की आराधना मे क्षेत्र का भेद नही हो सकता। वह गाँव में भी की जा सकती है और अरण्य में भी की जा सकती है५१ ।
(४) धर्म की आराधना में वेष का भेद नही हो सकता। उसका अधिकार श्रमण को भी है, गृहस्थ को भी है५२ ।
(५) भगवान् ने अपने श्रमणो से कहा-धर्म का उपदेश जैसे पुण्य को दो, वैसे ही तुच्छ को दो । जैसे तुच्छ को दो, वैसे ही पुण्य को दो५३ ।
इस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असाम्प्रदायिकता और जातीयता का अभाव है। व्यवहार-दृष्टि में जैनो के सम्प्रदाय है। पर उन्होने धर्म को सम्प्रदाय के साथ नही बांधा । वे जैन-सम्प्रदाय को नही, जैनत्व को महत्त्व देते है । जैनत्व का अर्थ है- सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना । इनकी आराधना करने वाला अन्य सम्प्रदाय के वेष मे भी मुक्त हो जाता है, गृहस्थ के वेष मे भी मुक्त हो जाता है । शास्त्रीय शब्दो मे उन्हे क्रमश अन्य-लिंग सिद्ध और गृह-लिंग-सिद्ध कहा जाता है५४ ।
इस व्यापक और उदार चेतना की परिणनि ने ही जैन आचार्यों को यह कहने के लिए प्रेरित किया -
पक्षपातो न मे बीरे, न द्वेष. कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रह ॥
(हरिभद्र सूरि ) भव-बीजांकुर-जनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
(आचार्य हेमचन्द्र) स्वागमं रागमात्रेण, द्वषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया द्दशा ॥
(उपाध्याय यशोविजय ) सहज ही प्रश्न होता है-जैन-सस्कृति का स्वरूप इतना व्यापक और उदार था, तब वह लोक-सग्रह करने मे अधिक सफल क्यो नही हुई ?
इसके समाधान में कहा जा सकता है-जैन दर्शन की सूक्ष्म सिद्धान्तवादिता, तपोमार्ग की कठोरता, अहिंसा की सूक्ष्मता और सामाजिक बन्धन