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जैन परम्परा का इतिहास [ १२७ स्वीजर ने इस तथ्य का वडी गम्भीरता से प्रतिपादन किया है। उनके मतानुसार "यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें मारने, कट न देने की ही सीमाएं कैसे बघ सकी और दूसरो को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है ? यह दलील कि सन्यास की भावना मार्ग में बाधक बनती है, सत्य का मिथ्या आभास मात्र होगा। थोड़ी से थोडी करुणा भी इस सकुचित सीमा के प्रति विद्रोह कर देती। परन्तु ऐसा कभी नही हुआ।
मतः अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर ससार से पवित्र रहने की भावना पर मावृत हे। यह मूलत: कार्य के आचरण से नही अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से सम्बन्धित है। यदि प्राचीन काल का धार्मिक भारतीय जीवित प्राणियो के साथ के सम्पर्क मे अकार्य के सिद्धान्त का दृढ़ता पूर्वक अनुसरण करता था तो वह अपने लाभ के लिए, न कि दूसरे जीवों के प्रति करुणा के भाव से। उसके लिए हिंसा एक ऐसा कार्य था, जो वयं था।
यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवो के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नही हुआ है । भारतीय सन्याम मे अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है।
अहिंसा स्वतन्त्र न होकर करुणा की भावना की अनुयायी होनी चाहिए। इस प्रकार उसे वास्तविकता से व्यावहारिक विवेचन के क्षेत्र मे पदार्पण करना चाहिए। नैतिकता के प्रति शुन्द्र भक्ति उसके अन्तर्गत वर्तमान मुसीवतो का सामना करने की तत्परता से प्रकट होती है।
पर पुनर्वार कहना पडता है कि भारतीय विचारधारा हिसा न करना और किसी को क्षति न पहुंचाना, ऐसा ही कहती रही है तभी वह शताब्दी गुजर जाने पर भी उस उच्च नैतिक विचार की अच्छी तरह रक्षा कर सकी, जो इसके साथ सम्मिलित है।
जैन-धर्म में सर्व प्रथम भारतीय संन्यास ने आचारगत विशेषता प्राप्त की। जैन-धर्म मूल से ही नही मारने और कष्ट न देने के उपदेश को महत्त्व देता है जब कि उपनिपदो में इसे मानो प्रसगवश कह दिया गया है। साधारणत यह