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जैन परम्परा का इतिहास
था । बौद्ध साहित्य में भगवान् का उल्लेख 'निग्गठ नातपुत्त' के नाम से हुआ है । वर्तमान मे वही निर्ग्रन्थ-प्रवचन जैन-धर्म के नाम से प्रसिद्ध है ।
व्रात्य का मूल व्रत है । व्रत शब्द आत्मा के सान्निध्य और बाह्य जगत् के दूरत्व का सूचक है । तप के उद्भव का मूल जीवन का समर्पण है । जैन - परम्परा तप को अहिंसा, समन्वय, मैत्री और क्षमा के रूप में मान्य करती है । भगवान् महावीर ने अज्ञानपूर्ण तप का उतना ही विरोध किया है, जितना कि ज्ञानपूर्ण तप का समर्थन | अहिंसा पालन में बाधा न आये, उतना तप सब साधको के लिए आवश्यक है । विशेष तप उन्ही के लिए है -- जिनमें आत्मबल या दैहिक विराग तीव्रतम हो । इस प्रकार जैन संस्कृति आध्यात्मिकता, त्याग, सहिष्णुता, अहिंसा, समन्वय, मैत्री, क्षमा, अपरिग्रह और आत्म-विजय की धाराओ का प्रतिनिधित्व करती हुई विभिन्न युगो में विभिन्न नामो द्वारा अभिव्यक्त हुई है ।
एक शब्द में जैन - सस्कृति की आत्मा उत्सर्ग है । बाह्य स्थितियों में जय पराजय की अनवरत श्रृङ्खला चलती है । वहाँ पराजय का अन्त नही होता । उसका पर्यवसान आत्म-विजय में होता है । यह निर्द्वन्द्व स्थिति है । जैन- विचार धारा को बहुमूल्य देन सयम है ।
सुख का वियोग मत करो, दुःख का सयोग मत करो — सबके प्रति संयम करो ३८ । सुख दो और दु.ख मिटाओ की भावना मे आत्म-विजय का भाव नही होता | दुःख मिटाने की वृत्ति और गोषण, उत्पीड़न तथा अपहरण, साथसाथ चलते है । इधर शोषण और उबर दुख मिटाने की वृत्ति - यह उच्च संस्कृति नही ।
सुख का वियोग और दुःख का सयोग मत करो - यह भावना आत्म-विजय की प्रतीक है । सुख का वियोग किए बिना शोपण नही होता, अधिकारो का हरण और द्वन्द्व नही होता ।
सुख मत लूटो और दुख मत दो - इस उदात्त भावना में आत्म-विजय का स्वर जो है, वह है ही । उसके अतिरिक्त जगत् की नैसर्गिक स्वतन्त्रता का भी महान् निर्देश है ।