________________
जैन परम्परा का इतिहास
[१२३ लिंगायत, वैष्णव आदि वैदिक सम्प्रदायो के प्रबल विरोध के कारण जैन-धर्म का प्रभाव सीमित हो गया। अनुयायियो की अल्प संख्या होने पर भी जैनधर्म का सैद्धान्तिक प्रभाव भारतीय चेतना पर व्याप्त रहा। बीच-बीच मे प्रभावशाली जैनाचार्य उसे उबुद्ध करते रहे। विक्रम की वारहवी शताब्दी मे गुजरात का वातावरण जैन-धर्म से प्रभावित था।
गूर्जर-नरेश जयसिंह और कुमारपाल ने जैन-धर्म को बहुत ही प्रश्रय दिया और कुमारपाल का जीवन जैन-आचार का प्रतीक बन गया था। सम्राट अकबर भी हीरविजयसूरि से प्रभावित थे। अमेरिकी दार्शनिक विलड्यूरेन्ट ने लिखा है -"अकवर ने जैनों के कहने पर शिकार छोड़ दिया था और कुछ नियत तिथियो पर पशु-हत्याएं रोक दी थी। जैन-धर्म के प्रभाव से ही अकवर ने अपने द्वारा प्रचारित दीन-इलाही नामक सम्प्रदाय मे मांस-भक्षण के निषेध का नियम रखा था ।
जैन मत्री, दण्डनायक और अधिकारियो के जीवन-वृत्त बहुत ही विस्तृत हैं। वे विधर्मी राजाओ के लिए मी विश्वास-पात्र रहे है। उनकी प्रामाणिकता और कर्तव्यनिष्ठा की व्यापक प्रतिष्ठा थी। जैनत्व का अकन पदार्थो से नही, किन्तु चारित्रिक मूल्यो से ही हो सकता है। जैन संस्कृति और कला
माना जाता है-आर्य भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर ई० सन् से लगभग ३००० वर्ष पूर्व आये। आर्यो से पहले बसने वाले पूस, भद्र, उर्वश, सुहब्रू, अनु, कुनाश, शवर, नमुचि, नात्य आदि मुख्य थे। जैन-धर्मो मे व्रतो की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। उसके सवाहक श्रमण व्रती थे। उनका अनुग मी समाज व्रात्य था-यह मानने में कोई कठिनाई नही है।
प्राग्वैदिक और वैदिक काल मे तपो-धर्म का प्रावल्य था। तपो-धर्म का परिष्कृत विकास ही जैन-धर्म है-कुछ विद्वान् ऐसा मानते है ३७ । तपस्या जन-साधना-पद्धति का प्रमुख अग है। भगवान् महावीर दीर्घ-तपस्वी कहलाते थे। :जन-श्रमणो को भी तपस्वी कहा गया है। "तवे सूरा अणगारा" तप में शूर अणगार होते है-यह जैन-परम्परा का प्रसिद्ध वाक्य है।
भगवान महाधीर के समय में जैन-धर्म को निग्नन्थ-प्रवचन कहा जाता,