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जैन परम्परा का इतिहास
[११७ (१) क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम-क्षेत्रवास्तु परिमाण का अतिक्रमण करना (२) हिरण्य-सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम - चाँदी और सोने के परिमाण का अतिक्रमण करना । (३) धनधान्य-प्रमाणातिक्रम-धन, रुपये, पैसे, रत्नादि और धान्य के परिमाण का अतिक्रमण - उल्लघन करना (४) द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रमद्विपद-तोता, मैना, दास-दासी और चतुष्पद गाय, भैंस आदि पशुओ के परिमाण का अतिक्रमग-उल्लघन करना और (५) कुप्यप्रमाणातिक्रम-~घर के वर्तन आदि उपकरणो के परिमाण का अतिक्रमण-उल्लघन करना । ___छठे दिगवत के पाँच अतिचार है, जो श्रमणोपासक को जानने चाहिए और जिनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है :-(१) ऊर्ध्व-दिक्प्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा के प्रमाण का अतिक्रमण (२) अधोदिक्प्रमाणातिक्रम-अधोदिशा के प्रमाण का अतिक्रमण (३) तिर्यग-दिकप्रमाणातिक्रम-अन्य सर्वदिना-विदिशाओ के प्रमाण का अतिक्रमण (४) क्षेत्रवृद्धि-एक दिशा में क्षेत्र घटा कर दूसरी मे बढाना और (५) स्मृत्यन्तराधानपरिमाण के सम्बन्ध मे स्मृति न रख आगे जाना ।
सातवाँ उपभोग परिभोग व्रत दो प्रकार का कहा गया है-भोजन से और कर्म से। उसमे से भोजन सम्बन्धी पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है :(१) सचित्ताहार -प्रत्याख्यान के उपरान्त - सचित्त-सजीव वनस्पति आदि का आहार करना (२) सचित्त प्रतिवद्धाहार-सचित्त वस्तु के साथ लगी अचित्त वस्तु का भोजन करना - जैसे गुठली सहित सूखे वेर या खजूर खाना । (३) अपस्वोपधि-भक्षण - अग्नि से न पकी औषधि-वनस्पति-शाकभाजी का भक्षण करना (४) दुष्पक्वौपविभक्षण-अर्द्ध पकी औषधि- वनस्पति का भक्षण करना और (५) तुच्छोपधि- असार वनस्पति-शाकभाजी का भक्षण करना।
कर्म-आश्रयी श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादान जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है --(१) अगार कर्मजिसमे अगार-अग्नि का विशेप प्रयोग होता हो, ऐसा उद्योग या व्यापार (2) वन कर्म-जगल, वृक्ष वनस्पति वेचने का व्यापार, वृक्षादि काटने का