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जैन परम्परा का इतिहास
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प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से सन्देशादि द्वारा कोई वस्तु मगाना ( २ ) प्रेष्यण- प्रयोग — मर्यादित क्षेत्र के बाहर भृत्यादि द्वारा कुछ भेजना ( २ ) शब्दानुपात - खाँसी वगैरह शब्दो द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी को मनोगत भाव व्यक्त करना ( ४ ) रूपानुपात - रूप दिखा कर अथवा इ गितो द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर किसी को मनोगत भाव प्रगट करना ( ५ ) बहि पुद्गल प्रक्षेप – ककर आदि फेंक कर इशारा करना ।
ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है :(१) अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्या सस्तारक - वसति और कम्बल आदि का प्रतिलेखन – निरीक्षण न करना अथवा अच्छी तरह न करना ( २ ) अप्रमार्जिन - दुष्प्रमार्जित शय्या सस्तारक - बसति और कम्बल आदि वस्तुओ का प्रमार्जन न करना अथवा अच्छी तरह प्रमार्जन न करना ( ३ ) अप्रतिले खितदुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि- - उच्चार - टट्टी की जगह और प्रस्रवण - पेशाब करने की जगह का प्रतिलेखन - निरीक्षण न करना अथवा अच्छी तरह निरीक्षण न करना ( ४ ) अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित उच्चारप्रस्रवणभूमि - टट्टी की भूमि और पेगाव करने की भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा अच्छी तरह से प्रमार्जन न करना ( ५ ) पौषधोपवास- सम्यक्अपालन - पौषधोपवास व्रत का विधिवत् पालन नही करना ।
बारहवें यथासविभाग व्रत के पाँच अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए। वे इस प्रकार है (१) सचित्त - निक्षेप - साधु को देने योग्य आहारादि पर सचित वनस्पति वगैरह रखना ( २ ) सचित्त- पिधान - आहार आदि सचित्त वस्तु से ढकना (३) कालातिक्रम- - साधुओ को देने के समय को टालना ( ४ ) परव्यपदेश - 'यह वस्तु दूसरे की है' — ऐसा कहना और ( ५ ) मत्सरिता - मात्सर्यपूर्वक दान देना ।
संलेखना
के पाँच
अपश्चिममारणांतिक - सखना जोषणाराधना अतिचार श्रमणोपासक को जानने चाहिए और उनका आचरण नही करना चाहिए । वे इस प्रकार है - (१) इहलोकशसा - 'मैं राजा होऊ' - ऐसी इहलौकिक