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जैन परम्परा का इतिहास
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धर्म और समाज
धर्म असामाजिक-वैयक्तिक तत्त्व है। किन्तु धर्म की आराधना करने वालो का समुदाय बनता है, इसलिए व्यवहार मे धर्म भी सामाजिक बन जाता है।
सभी तीर्थकरो की भापा में धर्म का मौलिक रूप एक रहा है। धर्म का साध्य मुक्ति है, उसका सावन द्विरूप नही हो सकता। उसमे मात्रा-भेद हो सकता है, किन्तु स्वरूा भेद नही हो सकता। मुक्ति का अर्थ है-- बाह्य का पूर्ण त्याग-सूक्ष्म गरीर का भी त्याग । इसीलिए मुमुक्षु-वर्ग ने वाह्य के अस्वीकार पक्ष को पुष्ट किया । यही तत्व भिन्न भिन्न युगो मे निर्ग्रन्य-प्रवचन, जिन-वाणी और जन-धर्म की सजा पाता रहा है। भारतीय मानस पर त्याग और तपस्या का प्रतिविम्ब है, उसका मूल जन-धर्म ही है ।
___ अहिंसा और सत्य की साधना को समाज-व्यापी बनाने का श्रेय भगवान् । पार्श्व को है । भगवान् पार्श्व अहिंसक परम्परा के उन्नयन द्वारा बहुत लोकप्रिय हो गए थे। इसकी जानकारी हमे "पुरिसादाणीय"-पुरुपादानीय विशेषण के द्वारा मिलती है। भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के लिए इस विशेषण का सम्मानपूर्वक प्रयोग करते थे । यह पहले बताया जा चुका है-आगम की भाषा मे सभी तीर्थकरो ने ऐसा ही प्रयत्न किया। प्रो० तान-युनशान के अनुसार अहिंसा का प्रचार वैज्ञानिक तथा स्पष्ट रूप से जैन तीर्थकरो द्वारा और विशेषकर २४ तीर्थंकरो द्वारा किया गया है, जिनमे अन्तिम महावीर-वर्धमान थे। विहार का क्रान्ति-घोष
__ भगवान् महावीर ने उसी शाश्वत सत्य का उपदेश दिया, जिसका उनसे पूर्ववर्ती तीर्थकर दे चुके थे । किन्तु महावीर के समय की परिस्थितियो ने उनकी वाणी को ओजपूर्ण बनाने का अवसर दिया। हिंसा का प्रयोजन पक्ष सदा होता है-कभी मन्द कभी तीन । उस समय हिंसा सैद्धान्तिक पक्ष में भी स्वीकृत थी। भगवान् ने इस हिंसा के आचरण को दोहरी मूर्खता कहा । उन्होंने कहा-प्रातः स्नानादि से मोक्ष नही होता 3 | जो सुबह और शाम