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जैन परम्परा का इतिहास
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जल का स्पर्श करते हुए-जल स्नान से मुक्ति बतलाते है, वे अज्ञानी है। हुत से जो मुक्ति बतलाते है, वे भी अज्ञानी है ।
स्नान, हवन आदि से मुक्ति बतलाना अपरीक्षित बचन है । पानी और अग्नि में जीव है । सब जीव सुख चाहते है इसलिए जीवों को दुख देना मोक्ष का मार्ग नही है-यह परीक्षित बचन है ।
जाति की कोई विशेषता नही है ७ । जाति और कुल त्राण नही बनते ८ । जाति-मद का घोर विरोध किया । ब्राह्मणो को अपने गणों का प्रमुख बना उन्होने जाति समन्वय का आदर्श उपस्थित किया।
उन्होने लोक-भाषा मे उपदेश देकर भाषा के उन्माद पर तीन प्रहार किया ' । आचार धर्म को प्रमुखता दे, उन्होने विद्या-मद की बुराई की ओर स्पष्ट संकेत किया ।
लक्ष्य का विपर्यय समझाते हुए भगवान् ने कहा-"जिस तरह कालकूट विष पीने वाले को मारता है, जिस तरह उल्टा ग्रहण किया हुआ शस्त्र शस्त्रधारी को ही घातक होता है और जिस तरह विधि से वश नही किया हुआ बैताल मन्त्रधारी का ही विनाश करता है, उसी तरह विषय की पूर्ति के लिए ग्रहण किया हुआ धर्म आत्मा के पतन का ही कारण होता है ।
वैषम्य के विरुद्ध आत्म-तुला का मर्म समझाते हुए भगवान् ने कहा"प्रत्येक दर्शन को पहले जानकर मैं प्रश्न करता हूँ," हे वादियो । तुम्हे सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय ? यदि तुम स्वीकार करते हो कि दु ख अप्रिय है तो तुम्हारी तरह ही सर्व प्राणियो को, सर्व भूतो को, सर्व जीवो को और सर्व सत्वों को दु ख महा भयकर, अनिष्ट और अशान्तिकर है १२ । यह सब समझ कर किसी जीव की हिंसा नही करनी चाहिए।
इस प्रकार भगवान को वाणी मे अहिसा की समग्नता के साथ-साथ वैषम्य,... जातिवाद, भाषावाद और हिंसक मनोभाव के विरुद्ध क्रान्ति का उच्चतम घोष था । उसने समाज की अन्तर्-चेतना को नव जागरण का संदेश दिया। तत्त्व चर्चा का प्रवाह ___ भगवान् महावीर की तपः पूत वाणी ने श्रमणों को आकृष्ट किया। भगवान पार्श्व की परम्परा के श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ मे सम्मिलित हो