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जैन परम्परा का इतिहास
"जब घरे शीश पर खीरे, ध्यावे यों धृति धर धीरे । है कौन वरिष्ठ भुवन मे जो मुझको आकर पीरे ॥ मैं अपनो रूप पिछार्ने, हो उदय ज्ञानमय भानू । वास्तव मे वस्तु पराई, क्यों अपनी करके मानू ॥ मैंने जो सकट पाये, सब मात्र इन्ही के कारण । अव तो सब जजीरे, ध्यावे यो धृति धर धीरे ॥
कवके ये बन्धन मेरे, अवलो नही गये बिखेरे । जब से मैंने अपनाये, तब से डाले दृढ डेरे ॥ सम्बन्ध कहा मेरे से, कहा भैंस गाय के लागे। है निज गुण असली हीरे, घ्यावे यो धृति घर धीरे॥
में चेतन चिन्मय चारू, ये जड़ता के अधिकारू । मैं अक्षय अज अविनाशी, ये गलन-मिलन विशरारू ॥ क्यो प्रेम इन्ही से ठायो,