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जैन परम्परा का इतिहास उनकी अपनी विशेषता है। उनकी वाणी का स्रोत क्रान्ति और शान्ति दोनो धाराओ में बहा है। ब्रह्मचारी को मित-भोजी होना चाहिए। अमित-भोजी की शारीरिक और मानसिक दुर्दशा का उन्होने सजीव चित्र खीचा है :
अति आहार थी दुख हुवे, गले रूप बल गात । परमाद निद्रा आलस हुवै, बले अनेक रोग होय जात ॥ अति आहार थी विषय बध, धणोइज फाटै पेट । धान अमाऊ ऊरतां, हांडी फाट नेट ७९ ॥ फाटै पेट अत्यन्त रे, बन्ध हुदै नाडियां । बले श्वास लेवे, अबखो थको ए॥ बलै होवे अजीरण रोग रे। मुख बासै बुरो, पेट झाले आफरो ए ॥ ते उठे उकाला पेट रे, चाल कलमली। बले छूटै मुख थूकनी ए॥ डील फिर चक्डोल रे, पित घूमे घणा । चाले मुजल बले मुलकणी ए॥ आवै मीठी घणी डकार रे। बले आवै गुचलका, जद आहार भाग उलटो पडै ए ॥ हांडी फाटै नेट रे, अधिको अरियां । तो पेट न फाटै किण बिधै ए ॥ ब्रह्मचारी इम जाण रे, अधिको नही जीमिए ।
उणोदरी में ए गुण घणा ए८०॥ नव पदार्थ, विनीत-अविनीत, व्रतान्नत, अनुकम्पा, शील री नवबाड़ आदि, उनको प्रमुख रचनाएं है।
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमजयाचार्य महाकवि थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण गद्य-पद्य लिखे।
उनकी लेखनी में प्रतिभा का चमत्कार था। वे साहित्य और अध्यात्म के क्षेत्र में अनिरुद्ध गति से चले। उनकी सफलता का स्वतः प्रमाण उनकी अमर कृतियाँ है। उनका तत्त्व-ज्ञान प्रौढ़ था। श्रद्धा, तर्क और व्युलति की