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जैन परम्परा का इतिहास
की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । उत्तर भारत और दक्षिण भारत की विविध भाषाए आज भी जैन-धर्म की व्यापकता की गाथा गा रही है। पायचन्दसूरि
और धर्म सिह १ नुनि ने गुजराती में टब्बा लिखे २ । विस्तृत टीकाओ में रस पान जिनके लिए सुगम नही था, उनके लिए ये बड़े उपयोगी बने । दूसरे, ज्योज्यो संस्कृत का प्रसार कम हो रहा था, त्यो-त्यो लोग विषय से दूर होते जा रहे थे। इनकी रचना उस कमी की पूर्ति करने में सफल सिद्ध हुई । हजारो जैन मुनि इन्ही के सहारे सिद्धान्त के निष्णात वने ।
जयाचार्य २० वी सदी के महान् टीकाकार है । उनकी टीकाएं सैद्धान्तिक चर्चाओं से भरी पूरी है। शास्त्रीय विषय का आलोड़न-प्रत्यालौड़न मे वे इतने गहरे उतरे जितना कि एक सफल टीकाकार को उतरना चाहिए । दार्शनिक व्याख्याए लम्बी नही चली है । सैद्धान्तिक विधि-निषेध और विसवादो पर उनकी लेखनी तव तक नही की, जब तक जिज्ञासा का धागा नही टूटा । एक बात को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत करने मे उन्हें अपूर्व कौशल मिला है । सिद्धान्त समालोचना की दृष्टि से उनकी टीकाए वेजोड़ है-~-यह कहा जा सकता है और एक समीक्षक की दृष्टि से कहा जा सकता है ।
प्रबन्धकार
आपने करीव १६ प्रबन्ध लिखे । उनमे कई छोटे है और कई बडे । भाषा सहज और सरस है । सभी रसो के वर्णन के बाद शान्त-रस की धारा बहाना उनकी अपनी विशेषता है । जगह-जगह पर जैन-सस्कृति और तत्त्व-ज्ञान को स्फुट छाया है। इनके अध्ययन से पाठक को जीवन का लक्ष्य समझने में बड़ी सफलता मिलती है । कवि की भावुकता और संगीत की मधुर स्वर-लहरी से जगमगाते ये प्रबन्ध जीवन की सरसता ओर लक्ष्य प्राप्ति के परम उपाय है।
अध्यात्मोपदेष्टा
उनकी लेखनी की नोक अध्यात्म के क्षेत्र मे बड़ी तीखी रही है । आराधना मोहजीत, फुटकर ढालें - ये ऐसी रचनाएं है, जिनमें अचेतन को चेतनावान् बनाने की क्षमता है।