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जैन परम्परा का इतिहास विविध रचनाएं-चर्चा का नया स्रोत
भ्रम विध्वंसन, जिनाज्ञा मुखमडन, कुमति विहडन, सदेह विपोपधि आदि चार्चिक अन्य, श्रद्धा की चौपाई, फुटकर ढालें आदि सस्कृति के उद्बोधक नन्थ, उनको कुशाग्नीयता के सजग प्रहरी है। आगम समन्वय के स्रष्टा ।
आचार्य भिक्षु की विविध रचनाओ का जैन-आगमो से समन्वय किया, यह आपको मौलिक सूझ है । आपने इन कृत्तियों का नाम रखा 'सिद्धान्त सार' । आचार्य भिक्षु की विचार-धारा जैन सूत्रो से प्रमाणित है, यह स्वतः नितर आया है । इसके पहले आगम से दर्शन करने की प्रणाली का उद्गम हुआ प्रतीत नही होता। जयाचार्य इसके स्रष्टा है। स्तुतिकार __ जयाचार्य का हृदय जितना तात्त्विक था, उतना ही श्रद्धालु । उन्होने तीर्थकर, आचार्य और साधुओ की स्तुति करने मे कुछ उठा नही रखा। वे गुण के साथ गुणी का आदर करना जानते थे। उनकी प्रसिद्ध रचना 'चौवीसी' भक्ति-रस को सजल सरिता है। सिद्धसेन, समन्तभद्र, हेमचन्द्र और आनन्दघन जैसे तपस्वी लेखको की दार्गनिक स्तुतियों के साथ जयाचार्य ने एक नई कडी जोड़ी। उनकी स्तुति-रचना मे आत्म-जागरण का उद्वोध है। साधक के लिए दर्शन और आत्मोद्वीव-ये दोनो आवश्यक है । आत्मोद्वोध के विना दर्शन मे आग्रह का भाव बढ जाता है । इसलिए दार्शनिक की ख्याति पाने से पहले अध्यात्म की गिक्षा पाना जरूरी है। जीवनी-लेखक
भारत के प्राच्य साहित्य में जीवनियाँ लिखने की प्रथा रही है। उसमें अतिरंजन अधिक मिलता है। अपनी कथा अपने हाथो लिखना ठीक नही समझा जाता था। इसलिए जिन किन्ही की लिखी गई, वे प्रायः दूसरो के द्वारा लिखी गई। दूसरे व्यक्ति विशेष श्रद्धा या अन्य किशी स्वार्थ से प्रेरित हो लिखते, इसलिए इनकी कृति मे यथार्थवाद की अपेक्षा अर्थ-वाद अधिक रहता । जयाचार्य इसके अपवाद रहे है । उन्होने बीसियो छोटी-मोटी जीवनियाँ लिखी। सवमे यथार्थ-दृष्टि का पूरा-पूरा धान रखा। वस्तु स्थिति को स्पष्ट