________________
जैन परम्परा का इतिहास
[६६ त्रिवेणी मे आज भी उनका हृदय बोल रहा है । जिन-वाणी पर उनकी अटूट श्रद्धा थी । विचार-भेद की दुनियां के लिए वे तार्किक थे। साहित्य, संगीत, कला, सस्कृति-ये उनके व्युत्पत्ति-क्षेत्र थे । उनका सर्वतोन्मुखी व्यक्तित्व उनके युगपुरुप होने की साक्षी भर रहा है । कुशल टीकाकार
जयाचार्य ने जैन-आगमों पर अनेक टीकाए लिखी । उनकी भाषा मारवाड़ी है-गुजराती का कुछ मिश्रण है । वे पद्य-बद्ध है । संगीत को स्वर लहरी से थिरकती गीतिकाओ में जैन तत्त्व-मीमांसा चपलता से तैर रही है। उनमे अनेक समस्याओं का समाधान और विशद आलोचना-आत्मलोचनाएं है। सबसे बड़ी टीका भगवती सूत्र की है, उसका ग्रन्थमान करीव ८० हजार श्लोक है । सही अर्थ में वे थे कुशल टीकाकार । वातिककार और स्तवककार
आचारांग-द्वितीय श्रुतस्कघ के जटिल विपयो पर उन्होने वार्तिका लिखा । उसमें विविध उलझन भरे पाठो को विशद चर्चा के साथ सुलझाया है । और विसवाद-स्थानीय स्थलो को बड़े पुष्ट प्रमाणों से संवादित किया है। यो तो उस समूचे शास्त्र का टब्बा भी उन्होने लिखा । एक तुलनात्मक दृष्टि
अभय देव८२, शोलोकाचार्य:३, शांत्याचार्य४, हरिभद्र८५, मलधारी हेमचन्द्र८६, और मलयगिरि८७,-जैन-आगमों के प्रसिद्ध संस्कृत-टोकाकार हुए हैं। इनकी टीकाओ मे आगमिक टीकामओ की अपेक्षा दार्शनिक चर्चाओ का वाहुल्य है।
इनके पहले आगमो की टोकाए प्राकृत में लिखी गई । वे नियुक्ति०८, भाष्य और चूर्णि. के नाम से प्रसिद्ध है । इनमे आगमिक चर्चाओ के अतिरिक्त जैन दर्शन की तर्क सगत व्याख्याए भी मिलती है। जैन तत्त्वो की तार्किक व्याख्या करने में विशेष्यावश्यक भाष्यकार जिनभद्र ने अनूठा कौशल दिखाया है । नियुक्ति और भाष्य पद-बद्ध है और चूर्णियां गद्यमय । चूणिर्यो मे मुख्यतया भाष्य का विपय सक्षेत्र मे लिखा गया है ।
जैन आचार्य लोक भाषा के पोपक रहे है । इसलिए जैन-साहित्य भाषा