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जैन परम्परा का इतिहास का जीवन-चरित्र पढा जाता है।
उन्होने शब्द-लालित्य के साथ भाव-लालित्य का भी पूरा ध्यान रखा है। दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्तियो के बीच दरार डालने की विशाल शक्ति होती है। उसकी विशालता के सामने कवि को बड़े बड़े समुद्र और पहाड़ भी छोटे से दीखने लगते है।
भवतात् तटिनीश्वरोन्तरा विषमोऽस्तु क्षितिभृचयोन्तरा।।
सरिदस्तु जलाधिकान्तरा पिशुनो मास्तु किलान्तरावयो ७२ ॥ अपने बड़े भाई सम्राट भरत को मारने के लिए पराक्रम-मूर्ति बाहुबलि की मुष्टि ज्योहि उठती है, त्योही देववाणी से वह शान्त हो जाती है। कवि इस स्थिति को ऐसे सुन्दर ढग से रखता है कि पाठक शमरस-विभोर बन जाते है ।
अयिबाहुबले कलहायवल, भवतो भवदायतिचारु किमु प्रजिघांसुरसित्वमपि स्वगुरु,
यदि तद्गुरुशासनकृतक इह ॥ ६६ ॥ नृप । सहर-संहर कोपमिम तव येन पथा चरितश्वपिता
सर तां सरणि हि पितुः पदवी, न जहत्यनद्यास्तनयाः क्वचन ॥ ७१ ॥ धरिणी हरिणीनयना नयते, बशतां यदि भूप । भवन्तमलम् विधुरो विधिरेप तदा भविता, गुरुमाननरूप इहा क्षयत ॥ ७२ ॥ तव मुष्टिमिमां सहते भुवि को,
हरिहेतिमिवाधिकघातवतीम् । भरता चरित चरित मनसा, स्मर मा स्मर केलिमिव श्रमण ॥ ७३ ॥
अयि साधय साधय साधुपद भज शान्तरसं तरमा सरसम् । ऋषभध्वज वंशनभस्तरणे । तरणाय मन. किल धावतु ते ॥ ७४ ॥