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जैन परम्परा का इतिहास उपाध्याय यशोविजयजी ने केवल दर्शन-क्षेत्र में ही समन्वय नही किया बल्कि योग के विषय में भी बहुत बडा समन्वय प्रस्तुत किया। पातञ्जल योगसूत्र का तुलनात्मक विवरण, योगदीपिका, योगविंशिका की टीका आदि अनेक ग्रन्थ उसके प्रमाण है।
इन्होने नव्य-न्याय की शैली मे अधिकार पूर्वक जैन-न्याय के ग्रन्थ तैयार किए । बनारस में विद्वानो से सम्पर्क स्थापित करके जैन-न्याय की प्रतिष्ठा बहुत बढाई । ये 'लघुहरिभद्र' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
हरिभद्र सूरि का समय विक्रम की आठवी शताब्दी माना जाता है । इन्होने १४४४ प्रकरणों की रचना की ऐसा सुप्रसिद्ध है ६७ । इनमे से जो प्रकरण प्राप्त है, वे इनके प्रखर पाण्डित्य को बताने वाले है। अनेकान्त-जयपताका आदि आकर (बड़े ) ग्रन्थ दार्शनिक जगत् के गौरव को पराकाष्ठा तक पहुंचा देते है । यशोविजय ने योग के जिस मार्ग को विशुद्ध बनाया उसके आदि बीज हरिभद्र सूरि ही थे। योग-दृष्टि-समुच्चय, योग-विन्दु, योग-विंशिका आदि समन्वयात्मक ग्रन्थ योग के रास्ते मे नये कदम थे । दिडनाग-रचित न्याय-प्रवेश की टीका लिख कर इन्होने जैनो को बौद्ध-न्याय का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। समन्वय की दृष्टि से इन्होंने नई दिशा दिखाई। लोकतत्त्व-निर्णय की कुछ एक सूक्तियाँ दृष्टि में ताजगी भर देती है जैसे
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य. परिग्रहः ॥ दार्शनिक-मूर्धन्य अकलंक, उद्योतन सूरि जिनसेन, सिद्धषि आदि-आदि अनेक दूसरे-दूसरे बड़े प्रतिभाशाली साहित्यकार हुए। समस्त साहित्यकारो के नाम बताना और उनके ग्रन्थो की गणना करना जरा कठिन है । यह स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने प्रचलित समस्त विषयों में अपनी लेखनी उठाई । अनेक ग्रन्थ ऐसे वृहत्काय बनाए, जिनका श्लोक-परिमाण ५० हजार से भी अधिक है । सिद्धर्षि की बनाई हुई 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' कथा-साहित्य का एक उदाहरणीय ग्रन्थ है । कुवलयमाला, तिलक मञ्जरी, यशस्तिलक-चम्पू आदि अनेक गद्यात्मक ग्रन्थ भाषा की दृष्टि से बडे महत्त्वपूर्ण है। चरित्रात्मक काव्य भी बहुत बड़ी