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जैन परम्परा का इतिहास
लिए यह ग्रन्थ आज भी प्रमुख साधन है । उमास्वाति ने और भी अनेक ग्रन्थो की रचना की, जिनमे 'प्रशमरति' एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । उसमें प्रशम और प्रशम से पैदा होने वाले आनन्द का सुन्दर निरूपण और प्रासङ्गिक बहुत से तथ्यो का समावेश है, जैसे
काल, क्षेत्र, मात्रा, सांत्म्य, द्रव्य-गुरु-लाघवं स्वबलम्
ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य भुङ्कते कि भेषजस्तस्य ॥ उमास्वाति की प्रतिभा तत्त्वो का संग्रह करने में बडी कुशल थी । तत्त्वार्थसूत्र में वह बहुत चमकी है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है
--'उपोमास्वाति संगृहीतार ५६...' इतिहासकार मानते है कि सिद्धसेन दिवाकर चौथी और पांचवीं शताब्दी के बीच में हुए, वे महान् तार्किक, कवि और साहित्यकार थे। उन्होंने बत्तीस बत्तीसियों ( द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका ) की रचना की । वे रचना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । उनमे भावो की गहनता और तार्किक प्रतिभा का चमत्कार है । इनके विषय में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के ये विचार है
क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्थी ? अशिक्षितालापकला क्व चैपा ? तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः,
स्खलद्गति स्तस्य शिशुर्न शोच्यः । ६० 'अनुसिद्धसेन कवयः, सिद्धसेन चोटी के कवि थे ६१ । उन्होने अनेकान्त दृष्टि की व्यवस्था को और अनेक दृष्टियो का सुन्दर ढग से समन्वय किया । आगमो में जो अनेकान्त के बीज बिखरे हुए पडे थे, उनको पल्लवित करने मे सिद्धसेन और समन्तभद्र-ये दोनों आचार्य स्मरणीय है। भारतीय न्याय-शास्त्र पर इन दोनों आचार्यों का वरद हाथ रहा, यह तो अति स्पष्ट है। सिद्धसेन ने भगवान् महावीर की स्तुति करते हुए साथ मे विरोधी दृष्टिकोणों का भी समन्वय किया---
क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते ' वचः स्वभावनियता प्रजा. समयतत्रवृत्ताः क्वचित् ?