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जैन परम्परा का इतिहास
[ ८७ बनाया, वह लौकिक ( वर्तमान में प्रचलित ) संस्कृत को पल्लवित करने वाला ही है ।
लौकिक संस्कृत में लिखने के सम्बन्ध मे किसने पहल की और कौन पीछे से लिखने लगा, यह प्रश्न हो सकता है किन्तु ग्रन्य किसने कम रचे और किसने अधिक रचे - यह कहना जरा कठिन है ।
सक्कय पाय चेव, पसत्य इसि भासिय ५०
संस्कृत और प्राकृत --- ये दोनो श्रेष्ठ भाषाएं है और ऋषियों की भाषाए है । इस तरह आगम-प्रणेताओ ने संस्कृत और प्राकृत की समकक्षता स्वीकार करके सस्कृत का अध्ययन करने के लिए जैनो का मार्ग प्रशस्त वना दिया |
संस्कृत भाषा तार्किको के तीखे तर्क- बाणो के लिए तूणीर बन चुकी । इसलिए इस भाषा का अध्ययन न करने वालो के लिए अपने विचारो की सुरक्षा खतरे में थी । अत सभी दार्शनिक संस्कृत भाषा को अपनाने के लिए तेजी से पहल करने लगे ।
जैनाचार्य भी इस दौड़ मे पीछे नही रहे । वे समय की गति को पहचान ने वाले थे, इसलिए उनकी प्रतिभा इस ओर चमकी और स्वयं इस ओर मुड़े । उन्होने पहले ही कदम मे प्राकृत भाषा की तरह संस्कृत भाषा पर भी अधिकार जमा लिया ।
जिस तरह से वैदिक लोग वेदो को और बौद्ध त्रिपिटक को स्वत प्रमाण मानते है, उसी प्रकार जैनो के लिए गणिपिटक ( द्वादशांगी ) स्वत प्रमाण है । गणिपिटक के अग में जो चौदह पूर्व थे, वे सस्कृत भाषा मे ही रचे गए — परम्परा से ऐसी अनुभूती चल रही है । किन्तु उन पूर्वो के विच्छिन्न हो जाने के कारण उनकी संस्कृत का क्या रूप था, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नही है । जैन साहित्य अभी जो उपलब्ध हो रहा है, वह विक्रम सम्वत् से पहले का नही है । इतिहासकार यह मानते है कि विक्रम की तीसरी शताब्दी मे उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र ( मोक्ष - शास्त्र ) की रचना की। जैन परम्परा मे संस्कृत कल्पवृक्ष का यह पहला फूल था । उमास्वाति ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यग् - चरित्र जिन्हें जैन दर्शन मोक्ष मार्ग के रूप में मानता है, को सूत्रों मे सुव्यवस्थित किया | जैनेतर विद्वानों के लिए जन-दर्शन का परिचय पाने के